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फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी एक आदिम रात्रि की महक/ Fanishwernath renu story

आज हम आपके लिए Fanishwernath renu story आदिम चरित्र लेकर आये हैं। उम्मीद है ये story आपको पसंद आएगी।

 

न …करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने ‘इस्टिसन’ सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।…ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी…!

करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी। ‘करमा, नींद नहीं आती?’ ‘बाबू’ ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा। गमछे से नथुने को साफ करते हुए करमा ने कहा – ‘यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!’ ‘मुझे भी नींद नहीं आएगी,’ बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा – ‘नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।’ करमा पूछना चाहता था कि नए ‘पोख्ता’ मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?…बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया – जरूर जूता-खोर कुत्ता है, साला!… नहीं, सिर्फ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफिरखाने की ओर दुलकी चाल से चला गया। बाबू ने पूछा – ‘तुम्हारा नाम करमा है या करमचंद या करमू?’ …सात दिन तक साथ रहने के बाद, आज आधी रात के पहर में बाबू ने दिल खोल कर एक सवाल के जैसा सवाल किया है। ‘बाबू, नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे लोगों के हजार मुँह हैं, हजार नाम कहते हैं।…निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने ब दिन कामा ही कहा और असगर बाबू तो हमेशा करम-करम कहते थे। खुश रहने पर दिल्लगी करते थे – हाय मेरे करम!…नाम में क्या है, बाबू? जो मन में आए कहिए। हजार नाम…!’ ‘तुम्हारा घर संथाल परगना में है, या राँची-हजारीबाग की ओर?’ करमा इस सवाल पर अचकचाया, जरा! ऐसे सवालों के जवाब देते समय वह रमते जोगी की मुद्रा बना लेता है। ‘घर? जहाँ धड़, वहाँ घर। माँ-बाप-भगवान जी!’…लेकिन, बाबू को ऐसा जवाब तो नहीं दे सकता! …बाबू भी खूब हैं। नाम का ‘अरथ’ निकाल कर अनुमान लगा लिया – घर संथाल परगना या राँची-हजारीबाग की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देख कर भी…। …बाबू तो बहुत ‘गुनी’ मालुम होते हैं। अपने बारे में करमा को कुछ मालुम नहीं। और बाबू नाम और कपाल देख कर सब कुछ बता रहे हैं। इतने दिन के बाद एक बाबू मिले हैं, गोपाल बाबू जैसे! करमा ने कहा – ‘बाबू, गोपाल बाबू भी यही कहते थे! यह ‘करमा’ नाम तो गोपाल बाबू का ही दिया हुआ है!’ करमा ने गोपाल बाबू का किस्सा शुरु किया – ‘…गोपाल बाबू कहते थे, आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक ‘डोको’ के अंदर तू पड़ा था, बिना ‘बिलटी-रसीद’ के ही…लावारिस माल।’ …चलो, बाबू को नींद आ गई। नाक बोलने लगी। गोपाल बाबू का किस्सा अधूरा ही रह गया। …कुतवा फिर गश्त लगाता हुआ आया। यह कातिक का महीना है न! ससुरा पस्त हो कर आया है। हाँफ रहा है।…ले, तू भी यहीं सोएगा? ऊँह! साले की देह की गंध यहाँ तक आती है – धेत! धेत! बाबू ने जग कर पूछा, ‘हूँ-ऊ-ऊ! तब क्या हुआ तुम्हारे गोपाल बाबू का?’ कुत्ता बरामदे के नीचे चला गया। उलट कर देखने लगा। गुर्राया। फिर, दो-तीन बार दबी हुई आवाज में ‘बुफ-बुफ’ कर जनाने मुसाफिरखाने के अंदर चला गया, जहाँ पैटमान जी सोता है। ‘बाबू, सो गए क्या?’ …चलो, बाबू को फिर नींद आ गई ! बाबू की नाक ठीक ‘बबुआनी आवाज’ में ही ‘डाकती’ है!…पैटमान जी तो, लगता है, लकड़ी चीर रहे हैं! – गोपाल बाबू की नाक बीन-जैसी बजती थी – सुर में!!…असगर बाबू का खर्राटा…सिंघ जी फुफकारते थे और साहू बाबू नींद में बोलते थे – ‘ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा…!’ …तार की घंटी! स्टेशन का घंटा! गार्ड साहब की सीटी! इंजिन का बिगुल! जहाज का भोंपो! – सैकडों सीटियाँ…बिगुल…भोंपा…भों-ओं-ओं-ओं…! – हजार बार, लाख बार कोशिश करके भी अपने को रेल की पटरी से अलग नहीं कर सका, करमा। वह छटपटाया। चिल्लाया, मगर जरा भी टस-से-मस नहीं हुई उसकी देह। वह चिपका रहा। धड़धड़ाता हुआ इंजिन गरदन और पैरों को काटता हुआ चला गया। …लाइन के एक ओर उसका सिर लुढ़का हुआ पड़ा था, दूसरी ओर दोनों पैर छिटके हुए! उसने जल्दी से अपने कटे हुए पैरों को बटोरा – अरे, यह तो एंटोनी ‘गाट’ साहब के बरसाती जूते का जोड़ा है! गम-बूट!…उसका सिर क्या हुआ?..धेत,धेत! ससुरा नाक-कान बचा रहा…! ‘करमा!’ – धेत-धेत! ‘उठ करमा, चाय बना?’ करमा धड़फड़ा कर उठ बैठा।…ले, बिहान हो गया। मालगाड़ी को ‘थुरु-पास’ करके, पैटमान जी हाथ में बेंत की कमानी घुमाता हुआ आ रहा है। …साला! ऐसा भी सपना होता है, भला? बारह साल में, पहली बार ऐसा अजूबा सपना देखा करमा ने। बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा। इस तरह ‘एकसिडंटवाला सपना’ कभी नहीं देखा उसने! करमा रेल-कंपनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, खलासी पैटमान या पानी पाँडे़ की नौकरी मिल सकती थी। खूब आसानी से रेलवे-नौकरी में ‘घुस’ सकता था। मगर मन को कौन समझाए! मन माना नहीं। रेल-कंपनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक उसे कभी नहीं हुआ! रेल-कंपनी क्या, किसी की नौकरी करमा ने कभी नहीं की। नामधाम पूछने के बाद लोग पेशे के बारे में पूछते हैं। करमा जवाब देता है – ‘बाबू के ‘साथ’ रहते हैं।’…एक पैसा भी मुसहरा न लेनेवालों को ‘नौकर’ तो नहीं कह सकते! …गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँच वर्ष! इसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिन कर कर बतलाना होगा! लेकिन, एक बात है – ‘रिलिफिया बाबू’ को छोड़ कर किसी ‘सालटन बाबू’ के साथ वह कभी नहीं रहा। …सालटन बाबू माने किसी ‘टिसन’ में ‘परमानंटी’ नौकरी करनेवाला – फैमिली के साथ रहनेवाला! …जा रे गोपाल बाबू! वैसा बाबू अब कहाँ मिले? करमा का माय-बाप, भाय-बहिन, कुल-परिवार जो बूझिए – सब एक गोपाल बाबू!…बिना ‘बिलटी-रसीद’ का लावारिस माल था, करमा। रेलवे अस्पताल से छुड़ा कर अपने साथ रखा गोपाल बाबू ने।जहाँ जाते, करमा साथ जाता। जो खाते, करमा भी खाता। …लेकिन आदमी की मति को क्या कहिए! रिलिफिया काम छोड़ कर सालटानी काम में गए। फिर, एक दिन शादी कर बैठे। …बौमा …गोपाल बाबू की ‘फैमली’ – राम-हो-राम! वह औरत थी? साच्छात चुड़ैल! …दिन-भर गोपाल बाबू ठीक रहते। साँझ पड़ते ही उनकी जान चिड़िया की तरह ‘लुकाती’ फिरती।…आधी रात को कभी-कभी ‘इसपेसल’ पास करने के लिए बाबू निकलते। लगता, अमरीकन रेलवे-इंजिन के ‘बायलर’ में कोयला झोंक कर निकले हैं। …करमा ‘क्वाटर’ के बरामदे पर सोता था। तीन महीने तक रात में नींद नहीं आई, कभी। …बौमा ‘फों-फों’ करती – बाबू मिनमिना कुछ बोलते। फिर शुरु होता रोना-कराहना, गाली-गलौज, मारपीट। बाबू भाग कर बाहर निकलते और वह औरत झपट कर माथे का केश पकड़ लेती। …तब करमा ने एक उपाय निकाला। ऐसे समय में वह उठ कर दरवाजा खटखटा कर कहता – ‘बाबू, ‘इसपेशल’ का ‘कल’ बोलता है…।’ बाबू की जान कितने दिनों तक बचाता करमा? …बौमा एक दिन चिल्लाई – ‘ए छोकरा हरामजदा के दूर करो। यह चोर है, चो-ओ-ओ-र!’ …इसके बाद से ही किसी ‘टिसन’ के फैमिली क्वाटर को देखते ही करमा के मन में एक पतली आवाज गूँजने लगती है – चो-ओ-ओ-र! हरामजदा! फैमिली क्वाटर ही क्यों – जनाना मुसाफिरखाना, जनाना दर्जा, जनाना… जनाना नाम से ही करमा को उबकाई आने लगती है। …एक ही साल में गोपाल बाबू को ‘हाड़-गोड़’ सहित चबा कर खा गई, वह जनाना! फूल-जैसे सुकुमार गोपाल बाबू! जिंदगी में पहली बार फूट-फूट कर रोया था, करमा। …रमता-जोगी, बहता-पानी और रिलिफिया बाबू! हेड-क्वाटर में चौबीस घंटे हुए कि ‘परवाना’ कटा – फलाने टिशन का मास्टर बीमार है, सिक-रिपोट आया है। तुरंत ‘जोआएन’ करो।…रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा ‘रेडी’ रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह रिलिफिया बाबू। …लकड़ी के एक बक्से में सारी गुहस्थी बंद करके – आज यहाँ, कल वहाँ।…पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैहा से रौताड़ा। पीर, हेड-क्वाटर, कटिहार! …गोपाल बाबू ने ही घोस बाबू के साथ लगा दिया था – ‘खूब भालो बाबू। अच्छी तरह रखेगा। लेकिन, घोस बाबू के साथ एक महीना से ज्यादा नहीं रह सका, करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत! गाली भी बहुत खराब-खराब! माँ-बहन की गाली।…इसके अलावा घोस बाबू में कोई ऐब नहीं था। अपने ‘समांग’ की तरह रखते थे। …घोस बाबू आज भी मिलते हैं तो गाली से ही बात शुरु करते हैं – ‘की रे…करमा? किसका साथ में हैं आजकल मादर्च…?’ घोस बाबू को माँ-बहन की गाली देनेवाला कोई नहीं। नहीं तो समझते कि माँ-बहन की गाली सुन कर आदमी का खून किस तरह खौलने लगता है। किसी भले आदमी को ऐसी खराब गाली बकते नहीं सुना है करमा ने, आज तक। …राम बाबू की सब आदत ठीक थी। लेकिन – भा-आ-री ‘इस्की आदमी।’ जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर-सूपर को एकांत में बुला कर घुसर-फुसर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी जनाना मुसाफिरखाना में, तो कभी जनाना-पैखाना में…छिः-छिः…जहाँ जाते छुछुआते रहते – ‘क्या जी, असल-माल-वाल का कोई जोगाड़ जंतर नहीं लगेगा?’…आखिर वही हुआ जो करमा ने कहा था – ‘माल’ ही उनका ‘काल’ हुआ। पिछले साल, जोगबनी-लाइन में एक नेपाली ने खुकरी से दो टुकड़ा काट कर रख दिया। और उड़ाओ माल! …जैसी अपनी इज्जत वैसी पराई ! …सिंघ जी भारी ‘पुजेगरी’! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी। रोज चार बजे भोर से ही नहा कर पूजा की घंटी हिलाते रहते। इधर ‘कल’ की घंटी बजती। …जिस घर में ठाकुर जी की झोली रहती, उसमें बिना नहाए कोई पैर भी नहीं दे सकता। …कोई अपनी देह को उस तरह बाँध कर हमेशा कैसे रह सकता है? कौन दिन में दस बार नहाए और हजार बार पैर धोए! सो भी, जाड़े के मौसम में! …जहाँ कुछ छुओ कि हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे-छू दिया न? …ऐसे छुतहा आदमी को रेल-कंपनी में आने की क्या जरुरत? …सिंघ जी का साथ नहीं निभ सका। …साहू बाबू दरियादिल आदमी थे। मगर मदक्की ऐसे कि दिन-दोपहर को पचास-दारु एक बोतल पी कर मालगाड़ी को ‘थुरुपास’ दे दिया और गाड़ी लड़ गई। करमा को याद है, ‘एकसिडंट’ की खबर सुन कर साहू बाबू ने फिर एक बोतल चढ़ा लिया। …आखिर डॉक्टर ने दिमाग खराब होने का ‘साटिफिटिक’ दे दिया। …लेकिन, उस ‘एकसिडंट’ के समय भी किसी रात को करमा ने ऐसा सपना नहीं देखा! …न …भोर-भार ऐसी कुलच्छन-भरी बात बाबू को सुना कर करमा ने अच्छा नहीं किया। रेलवे की नौकरी में अभी तुरत ‘घुसवै’ किए हैं। …न…बाबू के मिजाज का टेर-पता अब तक करमा को नहीं मिला है। करीब एक सप्ताह तक साथ में रहने के बाद, कल रात में पहली बार दिल खोल कर दो सवाल-जवाब किया बाबू ने। इसीलिए, सुबह को करमा ने दिल खोल कर अपने सपने की बात शुरु की थी। चाय की प्याली सामने रखने के बाद उसने हँस कर कहा – ‘हँह बाबू, रात में हम एक अ-जू-ऊ-ऊ-बा सपना देखा। धड़धड़ाता इंजिन… लाइन पर चिपकी हमारी देह टस-से-मस- नहीं… सिर इधर और पैर लाइन के उधर… एंटोनी गाट साहब के बरसाती जूते का जोड़ा… गमबोट…!’ ‘धेत! क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, सुबह-सुबह? गाँजा-वाँजा पीता है क्या?’ …करमा ने बाबू को सपने की बात सुना कर अच्छा नहीं किया। करमा उठ कर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने ‘अ-जू-ऊ-ऊ-बा’ कह कर देखा। छिः उसके होंठ तीतर की चोच की तरह…। ‘का करमचन? का बन रहा है?’ …पानी पाँड़े भला आदमी है। पुरानी जान-पहचान है इससे, करमा की। कई टिसन में संगत हुआ हैं। लेकिन, यह पैटमान ‘लटपटिया’ आदमी मालूम होता है। हर बात में पुच-पुच कर हँसनेवाला। ‘करमचन, बाबू कौन जाती के हैं?’ ‘क्यों? बंगाली हैं।’ ‘भैया, बंगाली में भी साढ़े-बारह बरन के लोग होते है।’ पानी पाँड़े जाते-जाते कह गया, ‘थोड़ी तरकारी बचा कर रखना, करमचन!’ …घर कहाँ? कौन जाति? मनिहारी घाट के मस्ताना बाबा का सिखाया हुआ जवाब, सभी जगह नहीं चलता – हरि के भजे सो हरी के होई! मगर, हरि की भी जाति थी! …ले, यह घटही-गाड़ी का इंजन कैसे भेज दिया इस लाइन में आज? संथाली-बाँसी जैसी पतली सीटी-सी-ई-ई!! …ले, फक्का! एक भी पसिंजर नहीं उतरा, इस गाड़ी से भी। काहे को इतना खर्चा करके रेल-कंपनी ने यहाँ टिसन बनाया, करमा के बुद्धि में नहीं आता। फायदा? बस, नाम ही आदमपुरा है – आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं और सिर्फ पाँच पासिंजर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के। …इतने दिन के बाद पंद्रह बोरा बैंगन उस दिन बुक हुआ। पंद्रह बैंगन दे कर ही काम बना लिया, उस बूढ़े ने।…उस बैंगनवाले की बोली-बानी अजीब थी। करमा से खुल कर गप करना चाहता था बूढ़ा। घर कहाँ है? कौन जाति? घर में कौन-कौन हैं? …करमा ने सभी सवालों का एक ही जवाब दिया था – ऊपर की ओर हाथ दिखला कर! बूढ़ा हँस पड़ा था। …अजीब हँसी! …घटही-गाड़ी! सी-ई-ई-ई!! करमा मनिहारीघाट टिसन में भी रहा है, तीन महीने तक एक बार, एक महीना दूसरी बार। …मनिहारीघाट टिसन की बात निराली है। कहाँ मनिहारीघाट और कहाँ आदमपुरा का यह पिद्दी टिसन! …नई जगह में, नए टिसन में पहुँच कर आसपास के गाँवों में एकाध चक्कर घुमे-फिरे बिना करमा को न जाने ‘कैसा-कैसा’ – लगता है। लगता है, अंध-कूप में पड़ा हुआ है। …वह ‘डिसटन-सिंगल’ के उस पार दूर-दूर तक खेत फैले हैं। …वह काला जंगल …ताड़ का वह अकेला पेड़ …आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा। …यदि गाँव-घर और खेत मैदान में नहीं घूमता-फिरता, तो वह पेड़ पर चढ़ना कैसे सीखता? तैरना कहाँ सीखता? …लखपतिया टिसन का नाम कितना ‘जब्बड़’ है! मगर टिसन पर एक ‘सत्तू-फरही’ की भी दुकान नहीं। आसपास में, पाँच कोस तक कोई गाँव नहीं। मगर, टिसन से पूरब जो दो पोखरे हैं, उन्हें कैसे भूल सकता है करमा? आईना की तरह झलमलाता हुआ पानी। …बैसाख महीने की दोपहरी में, घंटो गले-भर पानी में नहाने का सुख! मुँह से कह कर बताया नहीं जा सकता! …मुदा, कदमपुरा – सचमुच कदमपुरा है। टिसन से शुरु करके गाँव तक हजारों कदम के पेड़ हैं। …कदम की चटनी खाए एक युग हो गया! …वारिसगंज टिसन, बीच कस्बा में है। बड़े-बड़े मालगोदाम, हजारों गाँठ-पाट, धान-चावल के बोरे, कोयला-सीमेंट-चूना की ढेरी! हमेशा हजारों लोगों की भीड़! करमा को किसी का चेहरा याद नहीं। …लेकिन टिसन से सटे उत्तर की ओर मैदान में तंबू डाल कर रहनेवाले गदहावाले मगहिया डोमों की याद हमेशा आती है। …घाघरीवाली औरतें, हाथ में बड़े-बड़े कड़े, कान में झुमके …नंगे बच्चे, कान में गोल-गोल कुंडलवाले मर्द! …उनके मुर्गे! उनके कुत्ते! …बथनाह टिसन के चारों ओर हजार घर बन गए हैं। कोई परतीत करेगा कि पाँच साल पहले बथनाह टिसन पर दिन-दोपहर को टिटही बोलती थी। …कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है! …सोनबरसा के आम …कालूचक की मछलियाँ …भटोतर की दही …कुसियारगाँव का ऊख! …मगर सबसे ज्यादा आती है मनिहारीघाट टिसन की याद। एक तरफ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज। इस पार खेत-गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरोटिया का नीला पहाड़। नीला पानी – सादा बालू! …तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है, करमा। चार ‘जनम तक’ पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! इतना बढ़िया नाम शायद ही किसी टिसन का होगा – मनीहार। …बलिहारी! मछुवे जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखे चौंधिया जातीं। …रात में, उधर जहाज चला जाता – धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की ‘झाँपी’ बंद हो जाती। तब घाट पर मस्तानबाबा की मंडली जुटती। …मस्तानबाबा कुली-कुल के थे। मनिहारीघाट पर ही कुली का काम करते थे। एक बार मन ऐसा उदास हो गया कि दाढ़ी और जटा बढ़ा कर बाबा जी हो गए। खंजड़ी बजा कर निरगुन गाने लगे। बाबा कहते – ‘घाट-घाट का पानी पी कर देखा – सब फीका। एक गंगाजल मीठा…।’ बाबा एक चिलम गाँजा पी कर पाँच किस्सा सुना देते। सब बेद-पुरान का किस्सा! करमा ने ग्यान की दो-चार बोली मनिहारीघाट पर ही सीखीं। मस्तानबाबा के सत्संग में। लेकिन, गाँजा में उसने कभी दम नहीं लगाया। …आज बाबू ने झुँझला कर जब कहा, ‘गाँजा-वाँजा पीते हो क्या’ – तो करमा को मस्तानबाबा की याद आई। बाबा कहते – हर जगह की अपनी खुशबू-बदबू होती है! …इस आदमपुरा की गंध के मारे करमा को खाना-पीना नहीं रुचता। …मस्तानबाबा को बाद दे कर मनिहारीघाट की याद कभी नहीं आती। करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखे अधमुँदी करके दाँत निकाल कर हँसते हुए मस्तानबाबा के चेहरे की नकल उतारने की चेष्टा की – ‘मस्त रहो! …सदा आँख-कान खोल कर रहो। …धरती बोलती है। गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। …फसल को नाचते-गाते देखा है, कभी? रोते सुना है कभी अमावस्या की रात को? है…है…है – मस्त रहो…।’ …करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े हो कर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा, ‘तुम जगे-जगे खड़े हो कर भी सपना देखता है? …कहता है कि गाँजा नहीं पीता?’ सचमुच वह खड़ा-खड़ा सपना देखने लगा था। मस्तानबाबा का चेहरा बरगद के पेड़ की तरह बड़ा होता गया। उसकी मस्त हँसी आकाश में गूँजने लगी! गाँजे का धुआँ उड़ने लगा। गंगा की लहरे आईं। दूर, जहाज का भोंपा सुनाई पड़ा – भों-ओं-ओं! बाबू ने कहा, ‘खाना परोसो। देखूँ, क्या बनाया है? तुमको लेकर भारी मुश्किल है…।’ मुँह का पहला कौर निगल कर बाबू करमा का मुँह ताकने लगे, ‘लेकिन, खाना तिओ बहोत बढ़िया बनाया है!’ खाते-खाते बाबू का मन-मिजाज एकदम बदल गया। फिर रात की तरह दिल खोल कर गप करने लगे, ‘खाना बनाना किसने सिखलाया तुमको? गोपाल बाबू की घरवाली ने?’ …गोपाल बाबू की घरवाली? माने बौमा? वह बोला, ‘बौमा का मिजाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुन कर कड़ाही का ताजा दूध फट जाए। वह किसी को क्या सिखावेगी? फूहड़ औरत?’ ‘और यह बात बनाना किसने सिखलाया तुमको?’ करमा को मस्तान बाबा की ‘बानी’ याद आई, ‘बाबू,सिखलाएगा कौन? …सहर सिखाए कोतवाली!’ ‘तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा!’ बाबू का मन-मिजाज इसी तरह ठीक रहा तो एक दिन करमा मस्तानबाबा का पूरा किस्सा सुनाएगा। ‘बाबू, आज हमको जरा छुट्टी चाहिए।’ ‘छुट्टी! क्यों? कहाँ जाएगा?’ करमा ने एक ओर हाथ उठाते हुए कहा, ‘जरा उधर घूमने-फिरने…।’ पैटमान जी ने पुकार कर कहा, ‘करमा! बाबू को बोलो, ‘कल’ बोलता है।’ …तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा! …करमा की बीबी! वारीसगंज टिसन …मगहिया डोमो के तंबू …उठती उमेरवाली छौंड़ी …नाक में नथिया …नाक और नथिया में जमे हुए काले मैले …पीले दाँतो में मिस्सी!! करमा अपने हाथ का बना हुआ हलवा-पूरी उस छौंड़ी को नहीं खिला सका। एक दिन कागज की पुड़िया में ले गया। लेकिन वह पसीने से भीग गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। …यदि यह छौंड़िया चिल्लाने लगे कि तुम हमको चुरा-छिपा कर हलवा काहे खिलाता है? …ओ, मइयो-यो-यो-यो-यो-यो…!! …बाबू हजार कहें, करमा का मन नहीं मानता कि उसका घर संथाल-परगना या राँची की ओर कहीं होगा। मनिहारीघाट में दो-दो बार रह आया है, वह। उस पार के साहेबगंज-कजरौटिया के पहाड़ ने उसको अपनी ओर नहीं खींचा कभी! और वारिसगंज, कदमपुरा, कालूचक, लखपतिया का नाम सुनते ही उसके अंदर कुछ झनझना उठता है। जाने-पहचाने, अचीन्हे, कितने लोगों के चेहरों की भीड़ लग जाती है! कितनी बातें सुख-दुख की! खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुरमुन-सभी एक साथ टानते हैं, करमा को! …सात दिन से वह काला जंगल और ताड़ का पेड़ उसको इशारे से बुला रहे है। जंगल के ऊपर आसमान में तैरती हुई चील आ कर करमा को क्यों पुकार जाती है? क्यों? रेलवे-हाता पार करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं लौटा तो करमा ने झिड़की दी, ‘तू कहाँ जाएगा ससुर? जहाँ जाएगा झाँव-झाँव करके कुत्ते दौड़ेंगे। …जा! भाग! भाग!!’ कुत्ता रुक कर करमा को देखने लगा। धनखेतों से गुजरनेवाली पगडंडी पकड़ कर करमा चल रहा है। धान की बालियाँ अभी फूट कर निकली नहीं हैं। …करमा को हेडक्वाटर के चौधरी बाबू की गर्भवती घरवाली की याद आई। सुना है, डॉक्टैरनी ने अंदर का फोटो ले कर देखा है – जुड़वाँ बच्चा है पेट में! …इधर, ‘हथिया-नच्छत्तर अच्छा ‘झरा’ था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है। …मछली? …पानी में माँगुर मछलियों को देख कर करमा की देह अपने-आप बँध गई। वह साँस रोक कर चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियाँ छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा। …करमा कया करे? …उधर की मेंड़ से सटा कर एक ‘छेंका’ दे कर पानी को उलीच दिया जाए तो…? …हैहै-हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ! …अरे, काँटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं। आठ माँगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियाँ! कटिहार हाट में इसी का दाम बेखटके तीन रुपयो ले लेता। …कर्मा ने गमछे में मछलियों को बाँध लिया। ऐसा ‘संतोख’ उसको कभी नहीं हुआ, इसके पहले। बहुत-बहुत मछली का शिकार किया उसने! एक बूढ़ा भैंसवार मिला जो अपनी भैंस को खोज रहा था, ‘ए भाय! उधर किसी भैंस पर नजर पड़ी है?’ भैंसवार ने करमा से एक बीड़ी माँगी। उसको अचरज हुआ – कैसा आदमी है, न बीड़ी पीता है, न तंबाकू खाता है। उसने नाराज हो कर जिरह शुरु किया, ‘इधर कहाँ जाना है? गाँव में तुम्हारा कौन है? मछली कहाँ ले जा रहे हो?’ …ताड़ का पेड़ तो पीछे की ओर घसकता जाता है! करमा ने देखा, गाँव आ गया। गाँव में कोई तमाशावाला आया है। बच्चे दौड़ रहे हैं। हाँ, भालू वाला ही है। डमरु की बोली सुन कर करमा ने समझ लिया था। …गाँव की पहली गंध! गंध का पहला झोंका! …गाँव का पहला आदमी। यह बूढ़ा गोबी को पानी से पटा रहा है। बाल सादा हो गए हैं, मगर पानी भरते समय बाँह में जवानी ऐंठती है! …अरे, यह तो वही बूढ़ा है जो उस दिन बैंगन बुक कराने गया था और करमा से घुल-मिल कर गप करना चाहता था। करमा से खोद-खोद कर पूछता था – माय-बाप है नहीं या माय-बाप को छोड़ भाग आए हो? …ले, उसने भी करमा को पहचान लिया! ‘क्या है, भाई! इधर किधर?’ ‘ऐसे ही। घूमने-फिरने! …आपका घर इसी गाँव में है?’ बूढ़ा हँसा। घनी मूँछें खिल गई। …बूढ़ा ठीक सत्तो बाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है। एक लाल साड़ीवाली लड़की हुक्के पर चिलम चढ़ा कर फूँकती हुई आई। चिलम को फूँकते समय उसके दोनों गाल गोल हो गए थे। करमा को देख कर वह ठिठकी। फिर गोभी के खेत के बाड़े को पार करने लगी। बूढ़े ने कहा, ‘चल बेटी, दरवाजे पर ही हम लोग आ रहे हैं।’ बूढ़ा हाथ-पैर धो कर खेत से बाहर आया, ‘चलो!’ लड़की ने पूछा, ‘बाबा, यह कौन आदमी है?’ ‘भालू नचानेवाला आदमी।’ ‘धेत्त!’ करमा लजाया। …क्या उसका चेहरा-मोहरा भालू नचानेवाले-जैसा है? बूढ़े ने पूछा, ‘तुम रिलिफिया बाबू के नौकर हो न?’ ‘नहीं, नौकर नहीं।…ऐसे ही साथ में रहता हूँ।’ ‘ऐसे ही? साथ में? तलब कितना मिलता है?’ ‘साथ में रहने पर तलब कितना मिलेगा?’ …बूढ़ा हुक्का पीना भूल गया। बोला, ‘बस? बेतलब का ताबेदार?’ बूढ़े ने आँगन की ओर मुँह करके कहा, ‘सरसतिया! जरा माय को भेज दो, यहाँ। एक कमाल का आदमी…।’ बूढ़ी टट्टी की आड़ में खड़ी थी। तुरत आई। बूढ़े ने कहा, ‘जरा देखो, इस किल्लाठोंक-जवान को। पेट भात पर खटता है। …क्यों जी, कपड़ा भी मिलता है?…इसी को कहते हैं – पेट-माधोराम मर्द!’ …आँगन में एक पतली खिलखिलाहट! …भालू नचानेवाला कहीं पड़ोस में ही तमाशा दिखा रहा है। डमरु ने इस ताल पर भालू हाथ हिला-हिला कर ‘थब्बड़-थब्बड़’ नाच रहा होगा – थुथना ऊँचा करके! …अच्छा जी भोलेराम! …सैकड़ों खिलखिलाहट!! ‘तुम्हारा नाम क्या है जी? …करमचन? वाह, नाम तो खूब सगुनिया है। लेकिन काम? काम चूल्हचन?’ करमा ने लजाते हुए बात को मोड़ दिया, ‘आपके खेत का बैंगन बहोत बढ़िया है। एकदम घी-जैसा…।’ बूढ़ा मुसकराने लगा। और बूढ़ी की हँसी करमा की देह में जान डाल देती है। वह बोली, ‘बेचारे को दम तो लेने दो। तभी से रगेट रहे हो।’ ‘मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?’ ‘नहीं। ऐसे ही… रास्ते में शिकार…।’ ‘सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भून कर मछली की भाजी के साथ खिलाओ! …एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!’ जलपान करते समय करमा ने सुना – कोई पूछ रही थी, ‘ए, सरसतिया की माय! कहाँ का मेहमान है?’ ‘कटिहार का।’ ‘कौन है?’ ‘कुटुम ही है।’ ‘कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?’ ‘हाल से ही।’ …फिर एक खिलखिलाहट! कई खिलखिलाहट!! …चिलम फूँकते समय सरसतिया के गाल मोसंबी की तरह गोल हो जाते हैं। बूढ़ी ने दुलार-भरे स्वर में पूछा, ‘अच्छा ए बबुआ! तार के अंदर से आदमी की बोली कैसे जाती है? हमको जरा खुलासा करके समझा दो।’ चलते समय बूढ़ी ने धीरे-से कहा, ‘बूढ़े की बात का बुरा न मानना। जब से जवान बेटा गया, तब से इसी तरह उखड़ी-उखड़ी बात करता है। …कलेजे का घाव…।’ ‘एक दिन फिर आना।’ ‘अपना ही घर समझना!’ लौटते समय करमा को लगा, तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। आँखें नहीं – डिसटन-सिंगल, होम-सिंगल और पैट सिंगल की लाल गोल-गोल रोशनी! जिस खेत में करमा ने मछली का शिकार किया था उसकी मेंड़ पर एक ढोढ़िया-साँप बैठा था। फों-फों करता भागा। …हद है! कुत्ता अभी तक बैठा उसकी राह देख रहा था! खुशी के मारे नाचने लगा करमा को देख कर! रेलवे-हाता में आ कर करमा को लगा, बूढ़े ने उसको बना कर ठग लिया। तीन रुपए की मोटी-मोटी माँगुर मछलियाँ एक चुटकी चूड़ा खिला कर, चार खट्टी-मीठी बात सुना कर…। …करमा ने मछली की बात अपने पेट में रख ली। लेकिन बाबू तो पहले से ही सबकुछ जान लेनेवाला – ‘अगरजानी’ है। दो हाथ दूर से ही बोले, ‘करमा, तुम्हारी देह से कच्ची मछली की बास आती है। मछली ले आए हो?’ …करमा क्या जवाब दे अब? जिंदगी में पहली बार किसी बाबू के साथ उसने विश्वासघात किया है। …मछली देख कर बाबू जरुर नाचने लगते! पंद्रह दिन देखते देखते ही बीत गया। अभी, रात की गाड़ी से टिसन के सालटन-मास्टर बाबू आए हैं – बाल बच्चों के साथ। पंद्रह दिन से चुप फैमिली-क्वाटर में कुहराम मचा है। भोर की गाड़ी से ही करमा अपने बाबू के साथ हेड-क्वाटर लौट जाएगा।…इसके बाद मनिहारीघाट? …न …आज रात भी करमा को नींद नहीं आएगी। नहीं, अब वार्निश-चुने की गंध नहीं लगती। …बाबू तो मजे से सो रहे हैं। बाबू, सचमुच में गोपाल बाबू जैसे हैं। न किसी की जगह से तिल-भर मोह, न रत्ती-भर माया। …करमा क्या करे? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। …’एक दिन फिर आना। अपना ही घर समझना। …कुटुम है… पेट-माधोराम मर्द!’ …अचानक करमा को एक अजीब-सी गंध लगी। वह उठा। किधर से यह गंध आ रही है? उसने धीरे-से प्लेकटफार्म पार किया। चुपचाप सूँघता हुआ आगे बढ़ता गया। …रेलवे-लाइन पर पैर पड़ते ही सभी सिंगल – होम, डिसटट और पैट- जोर-जोर से बिगुल फूँकने लगे। …फैमिली-क्वाटर से एक औरत चिल्लाने लगी – ‘चो-ओ-ओ-र!’ वह भागा। एक इंजिन उसके पीछे-पीछे दौड़ा आ रहा है। …मगहिया डोम की छौंड़ी? …तंबू में वह छिप गया। …सरसतिया खिलखिला कर हँसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गंध, करमा के प्राण में समा गई। …वह डर कर सरसतिया की गोद में …नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है। …रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी…। ‘करमा, उठ! करमा, सामान बाहर निकालो!’ …करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है। उसने उठ कर कुरता पहना। बाबू का बक्सा बाहर निकाला। पानी-पाँड़े ने ‘कहा-सुना माफ करना’ कहा। करमा डूब रहा! …गाड़ी आई। बाबू गाड़ी में बैठे। करमा ने बक्सा चढ़ा दिया। …वह ‘सरवेंट-दर्जा’ में बैठेगा। बाबू ने पूछा, ‘सबकुछ चढ़ा दिया तो? कुछ छूट तो नहीं गया?’…नहीं, कुछ छूटा नहीं है। …गाड़ी ने सीटी दी। करमा ने देखा, प्लेाटफार्म पर बैठा हुआ कुत्ता उसकी ओर देख कर कूँ-कूँ कर रहा है। …बेचैन हो गया कुत्ता! ‘बाबू?’ ‘क्या है?’ ‘मैं नहीं जाऊँगा।’ करमा चलती गाड़ी से उतर गया। धरती पर पैर रखते ही ठोकर लगी। लेकिन सँभल गया।

Chhota jadugar famous hindi story/ Jaishankar prasad story

 

 

Jaishankar prasad story कहानी  famous hindi story छोटा जादूगर आपके साथ शेयर करे रहे हैं। यह एक हृदय स्पर्शी मार्मिक कहानी है जो आपके दिल को छू लेगी।

 

 



 

कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लड़का चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्‍सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्‍ते थे। उसके मुँह पर गंभीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्‍यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी संपन्‍नता थी।

 

मैंने पूछा, ”क्‍यों जी, तुमने इसमें क्‍या देखा?”

 

”मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्‍छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्‍मा है। उससे अच्‍छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।” उसने बड़ी प्रगल्‍भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रूकावट न थी।

 

मैंने पूछा, ”और उस परदे में क्‍या है? वहाँ तुम गए थे?”

 

”नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।”

 

मैंने कहा, ”तो चलो, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।” मैंने मन-ही-मन कहा, ‘भाई! आज के तुम्‍हीं मित्र रहे।’

 

उसने कहा, ”वहाँ जाकर क्‍या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाए।”

 

मैंने उससे सहमत होकर कहा, ”तो फिर चलो, पहले शरबत पी लिया जाए।” उसने स्‍वीकार-सूचक सिर हिला दिया।

 

मनुष्‍यों की भीड़ से जाड़े की संध्‍या भी वहाँ गरम हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा, ”तुम्‍हारे घर में और कौन हैं?”

 

”माँ और बाबूजी।”

 

”उन्‍होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?”

 

”बाबूजी जेल में हैं।”

 

”क्‍यों?”

 

”देश के लिए।” वह गर्व से बोला।

 

”और तुम्‍हारी माँ?”

 

”वह बीमार है।”

 

”और तुम तमाशा देख रहे हो?”

 

उसके मुँह पर तिरस्‍कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा, ”तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्‍य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्‍नता होती!”

 

मैं आश्‍चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।

 

”हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँजी बीमार हैं, इसीलिए मैं नहीं गया।”

 

”कहाँ?”

 

”जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्‍यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।”

 

मैंने दीर्घ नि:श्‍वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्‍यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा, ”अच्‍छा चलो, निशाना लगाया जाए।”

 

हम दोनों उस जगह पर पहुँचे जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिए।

 

वह निकला पक्‍का निशानेबाज। उसकी कोई गेंद खाली नहीं गई। देखनेवाले दंग रह गए। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रूमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिये गए।

 

लड़के ने कहा, ”बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।” वह नौ-दो ग्‍यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, ‘इतनी जल्‍दी आँख बदल गई!”

 

में घूमकर पान की दुकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता-देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्‍मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा, ”बाबूजी!”

 

मैंने पूछा, ”कौन?”

 

”मैं हूँ छोटा जादूगर।”

 

 

 

कलकत्‍ते के सुरम्‍य बोटैनिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मंडली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने का खादी का झोला, साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रूमाल सूत की रस्‍सी से बँधी हुई थी। मस्‍तानी चाल में झूमता हुआ आकर वह कहने लगा –

 

”बाबूजी, नमस्‍ते! आज कहिए तो खेल दिखाऊँ?”

 

”नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।”

 

”फिर इसके बाद क्‍या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?”

 

”नहीं जी, तुमको….” क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमतीजी ने कहा, ”दिखलाओ जी, तुम तो अच्‍छे आए। भला, कुछ मन तो बहले।” मैं चुप हो गया, क्‍योंकि श्रीमतीजी की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका नहीं जा सकता। उसने खेल आरंभ किया।

 

उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्‍ली रूठने लगी। बंदर घुड़कने लगा। गुड़िया का ब्‍याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते लोट-पोट हो गए।

 

मैं सोच रहा था। बालक को आवश्‍यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।

 

ताश के सब पत्‍ते लाल हो गए। फिर सब काले हो गए। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुड़ गई। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा, ”अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जाएँगे।”

 

श्रीमतीजी ने धीरे से उसे एक रूपया दे दिया। वह उछल उठा।

 

मैंने कहा, ”लड़के!”

 

”छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।”

 

मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमतीजी ने कहा, ”अच्‍छा, तुम इस रुपए से क्‍या करोगे?”

 

”पहले भरपेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कंबल लूँगा।”

 

मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा, ‘ओह! कितना स्‍वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपया पाने पर मैं ईर्ष्‍या करने लगा था न!”

 

वह नमस्‍कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।

 

उस छोटे से बनावटी जंगल में संध्‍या साँय-साँय करने लगी थी। अस्‍ताचलगामी सूर्य की अंतिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शांत वातावरण था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।

 

रह-रहकर छोटा जादूगर स्‍मरण हो आता था। तभी सचमुच वह एक झोंपड़ी के पास कंबल कंधे पर डाले मिल गया। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा, ”तुम यहाँ कहाँ?”

 

”मेरी माँ यहीं है न! अब उसे अस्‍पताल वालों ने निकाल दिया है।” मैं उतर गया। उस झोंपड़ी में देखा तो एक स्‍त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।

 

छोटे जादूगर ने कंबल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा, ”माँ!”

 

मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।

 

+

 

बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने ऑफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्‍ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्‍छा हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता तो और भी…. मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्‍द लौट आना था।

 

दस बज चुके थे। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मैं मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्‍ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्‍याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्‍नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्‍टा कर रहा था, तब जैसे स्‍वयं काँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्‍चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण भर के लिए स्‍फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा, ”आज तुम्‍हारा खेल जमा क्‍यों नहीं?”

 

”माँ ने कहा है कि आज तुरंत चले आना। मेरी अंतिम घड़ी समीप है।” अविचल भाव से उसने कहा।

 

”तब भी तुम खेल दिखलाने चले आए!” मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्‍य के सुख-दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसके अनुपात से वह तुलना करता है।

 

उसके मुँह पर वहीं परिचित तिरस्‍कार की रेखा फूट पड़ी।

 

उसने कहा, ”क्‍यों न आता?”

 

और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।

 

क्षण भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा, ”जल्‍दी चलो।” मोटरवाला मेरे बताए हुए पथ पर चल पड़ा।

 

कुछ ही मिनटों में मैं झोंपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोंपड़े में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किंतु स्‍त्री के मुँह से, ‘बे…’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गए। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था। मैं स्‍तब्‍ध था। उस उज्‍ज्‍वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्‍य करने लगा।

 

  कहानीकार – जय शंकर प्रसाद

 

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 दोस्तों आज हम In hindi story पर आपके कर लिए एक और motivational story लेकर आये हैं। यह कहानी आपको निश्चित रूप से प्रेरित करेगी।

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       एक बार एक पुत्र ने बहुत दुखी और जिंदगी से निराश होकर अपने पिताजी से शिकायत की वो अपनी जिंदगी से बहुत परेशान हो चुका है । रोज उसकी life में नई नई परेशानी आती रहती हैं। एक problem सॉल्व करता हूँ तो दूसरी problem उत्पन्न हो जाती है। हमेशा मेरे साथ ही क्यूँ ऐसा होता है?
 
       पिता ने पुत्र को कहा ” जाओ kitchen से कुछ अंडे , कुछ आलू और कुछ कॉफी बिन्स ले कर आओ।” पुत्र ने वैसा ही किया।
 
        पिता ने फिर पुत्र से कहा अब इन्हें छूकर बताओ इनके बारे में। पुत्र ने कहा पिताजी आलू कठोर है , अंडे मुलायम हैं और कॉफी बिन्स ठोस हैं।
 
       पिता ने फिर पुत्र को कहा good अब एक काम करो इन तीनों को पानी में कुछ समय के लिए उबालो ( गर्म ) कर के लेकर आओ। पुत्र किचन में जाकर तीनो को अलग अलग बर्तन में उबाल कर तीनो बर्तनों को लेकर आता है। एक बर्तन में आलू , दूसरे में अंडे और तीसरे बर्तन में कॉफी बिन्स।
 
     पिताने अब पुत्र से कहा अब फिर से तीनों को छूकर बताओ । पुत्र को अभी भी कुछ समझ नही आया कि आखिर पिताजी क्या साबित करना चाहते हैं। मैंने अपनी जीवन की परेशानी share की और ये कुछ और ही काम करवा रहे मुझे से पर खैर उसने फिर से आलू को छुआ फिर अंडे को छुआ पर कॉफी के बिन्स पानी में मिक्स हो गए।
 
    पूत्र ने पिता को जबाब दिया कि ” पिताजी आलू अब मुलायम हो गए हैं , अंडे कठोर हो गए और कॉफी के बिन्स पानी में मिक्स हो गए और उनसे मस्त खुशबू आ रही है।”
 
     पिता ने मुस्कुराते हुए कहा बस यही मैं तुम को समझना चाहता हु कि इन तीनों ने समान परिस्थितियों का सामना किया , आलू कठोर था तो तो वो इस परिस्थिति में कमजोर हो गया , अंडे मुलायम थे तो वो इस परिस्थिति का सामना कर कठोर हो गए, और कॉफी बीन्स ने इस परिस्थिति का  उपयोग कर खुसबू में बदल गए।”
 
       पिता ने आगे कहा ” बेटा ख़राब situation हर किसकी जिंदगी में आती हैं पर वो उन परिस्थिति का सामना कैसे करता है यही तरीका उस व्यक्ति को महान बनाता है। जैसे आलू मुलायम हो गये , अंडे सख्त हो गए जबकि उसी परिस्थिति का use कर कॉफी बीन्स ने खुसबू उत्पन्न की। बेटा तुमको भी कॉफी बीन्स की तरह विपरीत परिस्थितियों का फायदा उठाना है।”
 
       पुत्र को अब अपने पिताजी की बात अच्छी तरह से समझ आ गई। उसने अपने पिता से वादा किया कि वो अब कभी भी अपनी life की शिकायत नही करेगा। हर situation का हल निकालेगा।
 
    दोस्तों ये एक short कहानी है पर जिंदगी का एक बड़ा सबब देती है कि हर problem में एक अवसर छुपा होता है। बस हमे इस अवसर को पहचानकर इसका फायदा उठाना चाहिए।
 
 
       यदि आपके पास भी को ऐसी ही motivational hindi story हो तो हमे send कर सकते हैं। हम आपकी post को आपके नाम के साथ प्रकाशित करेंगे। हमारा पता है [email protected]
 
 

Kisan a motivational story in hindi/ किसान ए मोटिवेशनल स्टोरी इन हिंदी

 Kisan a motivational story in hindi/ किसान ए मोटिवेशनल स्टोरी इन हिंदी

 
रामू एक गरीब किसान का बेटा था। उसके परिवार में उसकी एक छोटी बहन , माँ और पिता थे। रामू के पिता ने रामू को कभी भी गरबी का अहसास नही होने दिया। जो कोपड़े , खिलौने , जूते रामू को पसन्द आते रामु के पिता उसको दिला देते । रामु की बहन को अपने परिवार को स्थिति को समझती थी । इसलिए वो हमेशा कम खर्चा करती और पढ़ने में ज्यादा से ज्यादा मेहनत करती ।
Hindi story

 

 
          रामू और उसकी बहन एक ही क्लास में पढ़ते थे। अब वो 10 वी कक्षा में आ गए थे। रामू की बहन ने मेहनत करना जारी रखा। वह रोज खानाँ बनाने और घर का काम करने में माँ की सहायता करती और उसके बाद पढ़ाई करती। तो वहीं रामू सारा समय अपने दोस्तों के साथ आवारा गर्दी करने में गुजार देता। 
 
           अब परीक्षा का समय  आ गया था। इसलिए रामू ने  भी पढ़ाई करने शुरू कर दिया । परीक्षा हुई और आखिर में रिजल्ट का दिन आ गया । 10 वीं की परीक्षा में रामू की बहन ने पूरे प्रदेश में प्रथम स्थान प्राप्त किया था। तो वहीं रामू fail हो गया था।
 
            रामु के घर के बाहर उसके बहन को बधाई देने के लिए गांव के आ जा रहे थे । रामू की बहन का साक्षात्कार लेने के लिए पत्रकार  भी आ जा रहे थे। रामू की बहन को सम्मानित करने के लिए आज क्षेत्र के विधायक जी भी आ रहे थे। रामू को आज बहुत दुख हो रहा था कि वो फ़ैल हो गया। उसको समझ नही आ रहा था कि उसकी बहन ने कैसे पुरे प्रदेश में top कर लिया। जबकि 9th में उसकी बहन के नंबर उससे बहुत कम थे।
 
              मंच सज चुका था गांव और क्षेत्र के सभी प्रतिष्ठित व्यक्ति और स्कूल स्टाफ और रामू के माँ और पिताजी वहां मौजूद थे। रामू भी एक सबसे last में सर झुकाए हुए बैठा था। जैसे कोई योद्धा युद्ध क्षेत्र से पीठ दिखाकर भाग कर बच गया हो और बाद में उसको आत्म ग्लानि हो। विधायकजी ने रामू की बहन को सम्मानित किया। और रामू की बहन से उसकी सफलता का राज सबको बताने के लिए बोला।
 
            रामू की बहन ने कहना शुरू किया कि ” मेरी सफलता के पीछे मेरे पिताजी का हाथ है। मेरे पिताजी एक किसान हैं और हम बहुत गरीब हैं। मुझे घर की स्थिति पहले से ही पता थी। इसलिए मैं पढ़ना चाहती थी पर हर बार मेरा परीक्षा परिणाम कक्षा में सबसे कम रहता था। 9th का रिजल्ट भी कुछ वैसा ही था । मैं बहुत दुखी थी और मुझे ऐसा लग रहा था कि मैं जीवन में कुछ नही कर सकती। तभी मेरे पिताजी ने मुझे ऐसे दुखी देखा तो मुझे से दुखी होने की पूरी बात पूछी । मैंने पिताजी को  सारी बात बताई और बोली की पिताजी मैं हर बार असफल हो जाती हूँ। मैं जीवन में कुछ नही कर सकती।
 
         पिताजी ने मेरी पूरी बात सुनी उसके बाद प्यार से मेरे सर पर हाथ फेरा और कहा चलो मैं तुम को आज सफलता का राज बताता हूँ। पिताजी मुझे खेत पर ले गए और बोले बताओ यदि हम आज खेत में गेंहू बो देंगे तो क्या होगा? मैंने बोला पिताजी खेत साफ नही है यदि गेंहू बो भी देंगे तो नही होगा।
 
     पिताजी मुस्कुराये और बोले ठीक है । यदि खेत साफ कर के बो दें गेंहू तो ? मैंने बोला पिताजी खेत साफ कर के भी गेंहू वो देने पर वो नही होगा। उसमे पानी देना पड़ेगा मेहनत कर उसे पकाना पड़ेगा और उसके बाद उसे काट कर निकलना पड़ेगा।
 
     पिताजी मेरी बात सुनकर मुस्कुराये और बोले बेटा ऐसे ही पढ़ाई में भी है पहले खेत को साफ करने के जैसे अपने दिमाग को साफ करो। उसके बाद जैसे हम खेत में बीज डालते है वैसे ही तुम पढ़ाई करो। और जैसे हम समय समय पर पानी देते है वैसे ही तुम समय समय पर अपनी पढ़ी हुए चींजों को पुनः पढ़ते रहें। जैसे हम किसानों को सर्दी , गर्मी सभी को सह कर कठोर मेहनत लगातार करनी होती है । वैसे ही तुम को भी कठोर मेहनत करनी पड़ेगी।
 
     उस दिन मुझे सफल होने का राज पता चला । और जैसा जैसा पिताजी ने बताया था वैसा ही मैंने किया और आज मैंने प्रदेश में 10 वी में प्रथम स्थान प्राप्त किया। अंत मैं अपने साथी दोस्तों से इतना ही कहना चाहती हूँ कि
 
     ” एक दिन में सफलता नही मिलती , पर एक दिन सफलता जरूर मिलती है बस उस दिन तक मेहनत करते रहना।”
 
    ये कहकर रामू की बहन ने अपनी बात खत्म कि चारो और तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी रामू के माता पिता की आँखों से आंसू वर्ष रहे थे और रामू के उदास चेहरे पर एक मुस्कुराहट छा गयी थी क्योंकि आज उसे अपनी बहन की सफलता का राज जो पता चल गया था।
 
 
 
 
 
 

UPSC और STATE PSC Exam के लिए बेस्ट प्रेरणादायक Quotes in hindi

IP UPSC और STATE PSC Exam के लिए बेस्ट प्रेरणादायक Quotes in hindi

 

 

UPSC का पुरा नाम  UNION PUBLIC SERVICE COMMISSION ( संघ लोक सेवा आयोग ) और STATE PSC का पूरा नाम ( राज्य लोक सेवा आयोग है) ये दोनों ही EXAM लेते है । UPSC का EXAM भारत के अत्यधिक प्रतिष्ठित EXAM में से एक माना जाता है । जिससे यह आईएएस और आईपीएस जैसे अधिकारियों की भर्ती करता है।

        जबकि state psc  डिप्टी कलेक्टर , एस डी एम , डी एस पी जैसे अधिकारियों की भर्ती करता है।

 

इन दोनों ही एग्जाम की तैयारी करने वाले छात्रों बहुत अधिक मेहनत के साथ साथ खुद को मोटीवेट रखने की भी बहुत आवश्यकता होती है। आज हम ऐसे छात्रों के लिए मोटिवेशनल हिंदी quotes ले कर आये है। जो आपको इन एग्जाम की तैयारी करने के लिए प्रतोसाहित करेंगे।

 

 

 

UPSC और STATE PSC के लिए बेस्ट हिंदी QUOTES –

 

 

 

QUOTES 1 –   ” छोटी मोटी सरकारी  सरकारी नौकरी करना IMPORTANT नही है। लोक सेवा आयोग की परीक्षा की तैयारी कर रहे ये ज्यादा IMPORTANT है।”

 

 

UPSC , PSC QUOTES

 

QUOTES 2. –  ” लोक सेवा आयोग की परीक्षा आपको एक बढ़ा अधिकारी बनाती है। इसलिए मेहनत भी आपको वैसी ही करनी पड़ेगी।”

 

 

QUOTES 3. ” आप लाखों से बेहतर हैं ये सिद्ध करने की परीक्षा UPSC कहलाती है।”

 

 

QUOTES 4. –  ” लोक सेवा आयोग की परीक्षा एक युद्ध है जो आपको स्वयं से लड़ना है।”

 

 

QUOTES 5. – ” यदि आप अपने सुख चैन , दोस्त , रिस्तेदारों और रात की नींद को नही त्याग सकते तो लोक सेवा आयोग की परीक्षा आपके लिए नही है।”

 

 

QUOTES 6. – ” मेहनत और लगन के साथ साथ आपके धैर्य की परीक्षा भी लेता है । लोक सेवा आयोग।”

 

 

QUOTES 7. – ” लोकसेवा आयोग की परीक्षा रूपी इस महाभारत  में NCERT कृष्ण हैं।”

 

 

QUOTES 8. – ” दुनिया को अपनी औकात बताना है । तो लोक सेवा आयोग की परीक्षा CLEAR करो।”

 

 

QUOTES 9. – ” आज जो आपका मजाक उड़ाते हैं। कल वो आपके ऑफिस के सामने हाथ जोड़े खड़े होंगे। लोक सेवा आयोग की परीक्षा एक बार निकालो तो सही।”

 

 

QUOTES 10. – ” अकेले पड़ जाओगे कोई साथ नही देगा होंसले टूटने लगेंगे पर फिर आपको ये जंग जीतनी है बस ये याद रखना।”

 

 

QUOTES 11. – ” लोक सेवा आयोग की परीक्षा एक नशा है। आप कभी नही समझ पयोगे साहब।”

 

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QUOTES 12. – “LIFE सिर्फ एक बार मिलती है । बनाना है तो इसी लाइफ में कुछ बड़ा बनो।”

 

 

QUOTES 13. – ” किस्मत पर भरोसा मत करो , करना ही है भरोसा तो अपनी मेहनत पर करो।”

 

 

QUOTES 14.  – ” इतिहास गवाह है हार न मारने की जिद्दी ने ही लोगो को महान बनाया है।”

 

 

QUOTES 15. ” जब तक आपका अपने आपको कंट्रोल नही कर सकते तब तक आप अपनी जिंदगी को कंट्रोल नही कर सकते।”

 

 

QUOTES 16. – ” बढे से बढ़ा सपना देखो । क्योंकि आपके सपने से ही आपकी औकात का पता चलता है।”

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                                          @ Gaurav rajput

 

 

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आत्मविश्वास कैसे बढ़ाएं? Self Confidence बढ़ाने के 10 बेहतरीन तरीके/ confidence badane ke 10 behatreen tarike

 आत्मविश्वास कैसे बढ़ाएं? Self Confidence बढ़ाने के 10 बेहतरीन तरीके

 

 

यदि जीवन को भरपूर जीना हो तो आत्मविश्वाश जरुरी है , यदि खुद की अलग पहचान बनानी है तो self confidence  जरुरी है स्कूल लाइफ से professional life  तक आत्मविश्वास की जरुरत होती है। जिन व्यक्तियों के अंदर आत्मविश्वास नही  होता वो तनावग्रस्त हो जाते हैं । उदास रहने लगते हैं उन्हें जीवन नीरस प्रतीत होने लगता है , कोई कार्य करने में मन नही लगता  है। जो व्यक्ति आत्मविश्वासी होतें है वो ही अपने जीवन को अपने अनुसार जीते हैं और अपने सपनो को पूरा करते हैं।

 

 

 

क्या होता है आत्मविश्वास  ? What is self confidence – 

 

आत्मविश्वास दो शब्दों से मिलकर बना है आत्म + विश्वास जिसका अर्थ होता है स्वयं पर विश्वास । यदि हम को अपने ऊपर विश्वास है तो वो हमारा आत्मविश्वास कह लायेगा। यदि आपको कोई ऐसा कार्य करने  के लिए बोला जाये जो आपने कभी नही किया । तो आपके पास  दो ऑप्शन होंगे या तो आप बोल दोगे की आप वो कार्य नही कर सकते क्योंकि अपने पहले कभी नही किया । दूसरा ऑप्शन आप बोलो की मैंने ये कार्य पहले कभी नही किया पर मैं कोशिश कार्य को करने की कोशिश जरूर करूँगा।

जब आप first option चुनते हैं तो ये आपके आत्मविश्वास की कमी को बताता है । इस attitude से आप लाइफ में कुछ खास नही कर सकते । पर जब आप second option चुनते हैं तो ये आपके आत्मविश्वास को व्यक्त करता है। आप इस attitude से जीवन में हमेशा बेहतर कर सकते हैं

 

आत्मविश्वास और अति आत्मविश्वास में अंतर – 

 

जहाँ आत्मविश्वास हमें जीवन में सफल बनाता है उसके विपरीत अतिआत्मविश्वास ( over confidence)  हमे ले डूबता है। दोनों में बहुत महिम अंतर है इसलिए ज्यादतर लोग over confidence को confidence समझने लगते हैं। 

“यदि आपको लगता है कि आप किसी कार्य को कर सकते हैं तो ये आपका आत्मविश्वास है ।”

” यदि आपको लगता है कि किसी कार्य को आप ही कर सकते हैं ।आपके अलावा कोई और उस कार्य को नही कर सकता। यो ये आपका अतिआत्मविश्वास ( over confidence) है।”

 

आत्मविश्वास बढ़ाने के 10 बेहतरीन तरीके –

 

1.सकारात्मक सोच ( Positive thinking ) – 

 

हमेशा पॉजिटिव सोच रखें । जब हम किसी subject के बारे में सकारात्मक सोचते हैं तो हमे एक ख़ुशी महसूस होती । हमारा mind भी हमारी सोच के अनुसार ही कार्य करता है । जब हम सोचते हैं कि मैं ये कार्य सकता हूँ तो mind भी उसी तरह set हो जाता है। और हम उस कार्य को आसानी से कर सकते है । जिससे हमारा confidence और बढ़ता है।

 

2.  बढ़े लक्ष्य को छोटे छोटे लक्ष्य में तोड़कर पूरा करें – 

 

जब हमारे पास कोई बड़ा लक्ष्य होता है तो हमारा आत्मविश्वास कमजोर होने लगता है। जैसे यदि  हम ये सोचे की आज हमें 5 घंटे regular पढ़ना है । तो हम थोड़ा देर सही तरीके से पढ़ पाएंगे और हमारा mind हमे अहसास दिलाने लगेगा कि ऐसा करना कठिन है । वही यदि हम इन 5 घण्टो को पांच भाग में बाँट दे अर्थात सोचे कि सिर्फ अभी 1 घंटा पढ़ना है तो हमारे दिमाग को ये बहुत आसान लगेगा और हम इस target को आसानी से पूरा कर लेंगे। इस प्रकार हम एक एक घंटे पढ़कर अपने 5 घण्टे के target को आसानी से पूरा कर सकते हैं। इससे हमारा confidence बढ़ता है।

 

 

3. कार्य को एक निश्चित समय में पूरा करें –

 

 जो भी कार्य करना है उसके लिए पुर्व में ही एक समय निश्चित कर लें और उस कार्य को निर्धारित समय में ही पूरा करें। यदि आप ऐसा करते हैं तो कुछ ही दिनों में इसका अद्भुत असर आपके जीवन में दिखना शुरू हो जायेगा ।

 

4. खुद को स्वीकार करना सीखें –

 

यदि आप मोटे हैं या काले है या जैसे भी है आप best है अपनी तुलना दूसरों से करना बंद करें। जब हम अपनी तुलना दूसरों से करते हैं और दूसरों को अपने से बेहतर मानने लगते है । जिससे हमारा आत्मविश्वास अपने ऊपर कम होने लगता है। 

 

5.  दिखावे से दूर रहें – 

 

बहुत सारे लोगो वो दिखाने की कोशिश करते हैं जो हकीकत में वो नही होते। कुछ लोग अपने आपको अमीर दिखाने के लिए बहुत सारा दिखावा करते हैं। जब आप दिखावा करते हैं तो सामने वाले को भी आपकी हकीकत पता होती है। अंत में ऐसा करना आपके आत्मविश्वास को चोट पहुँचता है। आप जैसे है वैसे ही बने।

 

6. खुद की इज्जत करें – 

 

कहा गया है कि ” जब तक आप अपनी इज्जत नही करेंगे। तब तक दुनिया आपकी इज्जत नही करेगी।” 

अपने बारे में कभी भी बुरा भला न कहें जैसे मैं पढ़ने में कमजोर हूँ , मेरी तो किस्मत ही ख़राब है , मुझे से ये काम नही हो पायेगा, मुझे तो कोई पसन्द ही नही करता।

 

 

7. ड्रेसिंग पर ध्यान दें –

 

ड्रेसिंग का मतलब है कि आप जिस स्थान पर जैसी ड्रेसिंग की आवश्यकता हो वहाँ वैसे ही कपड़े पहने । जैसे आप ऑफिस जा रहे हैं तो फॉर्मल कपड़े ही पहने । यदि आप ऐसा करते हैं तो ये आपके confidence को निश्चत रूप से बढ़ाएगा।

 

8. अच्छी किताबें पढ़े –

 

किताबें पढ़ने की आदत डालें जब आप अच्छी किताबें पढ़ते है तो आपको अच्छा महसूस होता है । साथ ही साथ आपका ज्ञान भी बढ़ता है । और जब knowledge बढेगा तो confidence तो स्वतः ही बढ़ जायेगा।

 

9. Discussion में ज्यादा से ज्यादा भाग लें – 

 

किसी subject पर आपके school , collage या office में 

Discussion चल रहा हो तो उसमें जरूर भाग ले और अपने विचार रखें इससे बाकि लोग भी आपसे impress होंगे साथ ही साथ आपकी communication skills भी इम्प्रूव होगी।

 

10. नियमित प्रणायाम और व्यायाम करें –

 

जब रक हम स्वस्थ नही रहेंगे तब तक कुछ भी कर ले हमारा confidence नही बढ़ सकता। इसलिए सबसे ज्यादा प्राथमिकता अपने स्वस्थ को दें। देर रात तक न जागें जल्दी सोयें और सुबह जल्दी जागने की आदत विकसित करें। साथ साथ योगासन और व्यायाम को भी अपनी daily लाइफ में शामिल जरूर करें।

 

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नये वर्ष 2021 को कैसे बनाये खास/ naye varsh ko kaise khas banaye

 

Hi दोस्तों आप सभी का स्वागत है naye varsh ko kaise khas banaye आपको पता ही है कि 2020 जाने वाला है और एक नई उमंग , नई उम्मीद , नये उत्साह लेकर 2021 आने वाला है। 2020 में कोरोना महामारी और lockdown के कारण काफी परेशानी भरा रहा। कई लोगों ने अपनी जान गवा दी तो बहुत से लोगो को अपनी रोजी रोटी गवांनी पड़ी।  2020 में कभी ऐंसा लगा की जिंदगी थम सी गई है  तो कभी ऐसा लगा की हम शायद कोई बुरा सपना देख रहे हैं। 

Happy new year 2021 , 2021 को कैसे बनायें खास

 

 

        खैर अब हम 2020 की यादो और सिखों के साथ आगे बढ़ने के लिए तैयार हो जाना चाहिए। सब कुछ भुलाकर feature पर  focus करना चाहिये । हर साल की तरह नया वर्ष आता है और चला जाता है । यदि आपको 2021 को कुछ खास बनाना है तो जो बातें आज बतायी जा रही है उनको follow करें निश्चित ही आप 2021 को अपने जीवन का खास साल बना सकतें है। 

 

         2021 में आप वो सब पा सकते हो जिसके अपने सपने देखें हो , 2020 में अपने क्या किया इससे कोई फर्क नही पड़ता 2021 अब जो करोगे वो आपकी जिंदगी की दिशा तय करेगा। इस बार  फिर ईश्वर ने आपको 365 दिन दिए है। अब आपको निर्णय लेना है कि आप ईश्वर के इस बहुमूल्य तोफे का उपयोग कैसे करेंगे। 

 

इन बातों को अपने जीवन में उपयोग कर नए वर्ष 2021 को खास बनाये –

 

1. लक्ष्य का निर्धारण  –  

                                    आप एक ऐसे जहाज की कल्पना कीजिये जो समुद्र के बीचों बीच है पर जहाज क captain को ये  नही मालुम की उसको कहाँ जाना है। same कंडीशन हमारी होती है जब हमारे पास कोई लक्ष्य नही होता । लक्ष्य होने पर हम अच्छी तरह फोकस कर पाते हैंं। और जब हम   आपनी परी क्षमता से किसी चीज पर फोकस करते हैैं । तो उसे    हम   आसानी से हासिल कर सकते हैं। so 2021 के लिए आपना एक goal जरूर set कर लें। 

 

2. Time टेबल बनाये – 

                            यह एक बहुत महत्वपूर्ण topic है जिस पर हम ज्यादा  ध्यान नही देते हैं। अपने एक बात पर ध्यान  दिया होगा कि अधिकतर लोग ये कहते हैं कि उनकेे पास समय नही पर शायद उनको  ये पता नही कि ईश्वर ने सबको 24 घंंटे दीये हैैं ।   दुनिया के जितने भी महान व्यक्ति है या हुए हैं या आगे होंगे सभी के पास यही 24 घंटे थे। सोचो यदि न्यूटन कहता कि मेरे पास तो समय ही नही तो क्या वो गुरुत्वाकर्षण का नियम दे पाता। एडिसन के पास टाइम नही होता तो क्या आज हमें बल्ब मिल पाता। बस अंतर इतना है कि वो उन 24 घंटो का पूर्ण उपयोग कर पाए। जितने भी successful व्यक्ति होते है उनमें एक चीज common होती है । वो है उनका टाइम मैनेजमेंट ।  2021 में आपको भी यदि अपना लक्ष्य पाना है तो टाइम मैनजेमेंट करना ही पड़ेगा।

 

3. नियमित व्यायाम करें – 

                                   ये तो आपने सुना ही होगा कि एक स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मन का बास होता है। रात को जल्दी सोने और सुबह जल्दी उठने की आदत विकसित करें। फिल्मस्टार अक्षय कुमार भी अपनी सफलता और fitness का श्रेय अपनी इसी सयंमित लाइफ स्टाइल को देते हैं।

 

 

4. अपने knowledge को update करते रहें – 

                                                                       कहा जाता है कि यदि आपको किसी क्षेत्र में श्रेष्ट बनना है तो उस क्षेत्र में आपका ज्ञान ही आपको सर्वश्रेठ बना सकता है। आज जिस क्षेत्र में जिंनका नाम चलता है उस कारण है कि उनका  ज्ञान उस क्षेत्र में अन्य की तुलना में अधिक है। इसलिये आपको जिस field में भी जाना है उस फील्ड से सम्बंधित नयी नयी बुक पढ़ते रहें। जिससे की उस क्षेत्र में अन्य लोगो की तुलना में आप को ज्यादा ज्ञान हो।

 

इन बातों का अमल आप करते है तो यकीनन आपका आत्मविश्वास बढ़ेगा और आप 2021 में अपने सपनो को जरूर पूरा करोगे। यदि ये post आपको अच्छी लगे तो अपने दोस्तों के साथ जरूर शेयर करें। आप सभी को नव वर्ष 2021 की हार्दिक शुभकामनाएं 

ईदगाह हिंदी कहानी/ Edgaah hindi story

 हिंदी कहानियों के श्रेष्ठ संग्रह में आज की कहानी Edgaah hindi story ईदगाह मुंशी प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। इस कहानी में मुंशी प्रेमचंद ने एक बुढ़ी गरीब दादी का अपने पोते और पोते का अपनी दादी केEdgaah प्रति मार्मिक प्रेम का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है।
 
 
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब- सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
 
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
 
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जायँगे।
 
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
 
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब- घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।
 
महमूद ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
 
मोहसिन बोला- चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।
 
महमूद- लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
 
मोहसिन- हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।
 
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
 
हामिद को यकीन न आया- ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?
 
मोहसिन ने कहा- जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।
 
हामिद ने फिर पूछा- जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
 
मोहसिन- एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।
 
हामिद- लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
 
मोहसिन- अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
 
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
 
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं।रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे- बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।
 
हामिद ने पूछा- यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
 
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो बरतन-भांडे आये।
 
हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं?
 
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
 
अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
 
सहसा ईदगाह नजर आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।
 
2
 
नमाज खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
 
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!
 
मोहसिन कहता है- मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।
 
महमूद- और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
 
नूरे- और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
 
सम्मी- और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।
 
हामिद खिलौनों की निंदा करता है- मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ, लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।
 
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।
 
मोहसिन कहता है- हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
 
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
 
मोहसिन- अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव।
 
हामिद- रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?
 
सम्मी- तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
 
महमूद- हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।
 
हामिद- मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
 
मोहसिन- लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
 
महमूद- हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।
 
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं जिद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
 
हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं हैं।तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा- यह चिमटा कितने का है?
 
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा- तुम्हारे काम का नहीं है जी!
 
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
 
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?’
 
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
 
‘छ: पैसे लगेंगे।’
 
हामिद का दिल बैठ गया।
 
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।’
 
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा- तीन पैसे लोगे?
 
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
 
मोहसिन ने हँसकर कहा- यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
 
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा- जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।
 
महमूद बोला-तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
 
हामिद- खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
 
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला- मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
 
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
 
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज ग्ये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
 
अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, मह्मूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
 
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा- अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
 
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा- भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वाडर पर छिड़कने लगेगा।
 
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई- अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।
 
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा- हमें पकड़ने कौन आयेगा?
 
नूरे ने अकड़कर कहा- यह सिपाही बंदूकवाला।
 
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा- यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!
 
मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी- तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
 
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया- आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
 
महमूद ने एक जोर लगाया- वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा।
 
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
 
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की- मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
 
बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी; लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
 
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
 
संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा- जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
 
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।
 
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
 
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे- मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
 
मोहसिन- लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
 
महमूद- दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
 
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।
 
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।
 
3
 
ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।
 
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।
 
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।
 
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
 
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
 
‘यह चिमटा कहाँ था?’
 
‘मैंने मोल लिया है।
 
‘कै पैसे में?’
 
‘तीन पैसे दिये।’
 
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।
 
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।
 
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।
 
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।
 
 
 

हिंदी कहानी – उसने कहा था/ usne kha tha

usne kha tha हिदी स्टोरी  चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की एक श्रेष्ठ  कहानी है ।
 
 
यह एक love story ( प्यार की कहानी) है जिसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने लिखी है।
 
हिंदी कहानी
 

 

 
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।
 
ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
 
    ‘तेरे घर कहाँ हैं?’
    ‘मगरे में; और तेरे?’
    ‘माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?’
    ‘अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।’
    ‘मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बजार में हैं।’
 
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, – ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
 
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली – ‘हाँ हो गई।’
 
‘कब?’
 
‘कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।’ लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
 
 
 
2
 
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।’
 
‘लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।’
 
‘चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो – ‘
 
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?’ सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर कहा -‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?’
 
‘सूबेदार जी, सच है,’ लहनसिंह बोला – ‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।’
 
‘उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।’ – यह कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।
 
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला – ‘मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।
 
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा – ‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।’
 
‘हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।’
 
‘लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम – ‘
 
‘चुप कर। यहाँवालों को शरम नहीं।’
 
‘देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तंबाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।’
 
‘अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?’
 
‘अच्छा है।’
 
‘जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’
 
‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।’
 
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा – ‘क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे –
 
    दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
    कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
    कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए –
    (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
    कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए,
    हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
 
कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
 
 
 
3
 
दो पहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
 
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
 
‘पानी पिला दो।’
 
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा – ‘कहो कैसे हो?’ पानी पी कर बोधा बोला – ‘कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।’
 
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’
 
‘और तुम?’
 
‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।’
 
‘ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए – ‘
 
‘हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुन कर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।’ यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
 
‘सच कहते हो?’
 
‘और नहीं झूठ?’ यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
 
आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई – ‘सूबेदार हजारासिंह।’
 
‘कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!’ – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
 
‘देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’
 
‘जो हुक्म।’
 
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा – ‘लो तुम भी पियो।’
 
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ‘लाओ साहब।’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?’ शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
 
‘क्यों साहब, हम लोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?’
 
‘लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?’
 
‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे –
 
‘हाँ, हाँ – ‘
 
‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का – सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे।’
 
‘हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया – ‘
 
‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?’
 
‘हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
 
‘पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ’ – कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
 
अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।
 
‘कौन? वजीरासिंह?’
 
‘हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?’
 
 
 
4
 
‘होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।’
 
‘क्या?’
 
‘लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?’
 
‘तो अब!’
 
‘अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
 
सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।’
 
‘हुकुम तो यह है कि यहीं – ‘
 
‘ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम – जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।’
 
‘पर यहाँ तो तुम आठ है।’
 
‘आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।’
 
लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने –
 
इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘ऑख! मीन गौट्ट’ कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
 
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ‘क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।’
 
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
 
लहनासिंह कहता गया – ‘चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो – ‘
 
साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।
 
बोधा चिल्लया – ‘क्या है?’
 
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
 
इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनटों में वे – अचानक आवाज आई, ‘वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
 
एक किलकारी और – अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव – भारी घाव लगा है।
 
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
 
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ‘तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।’
 
‘और तुम?’
 
‘मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।’
 
‘अच्छा, पर – ‘
 
‘बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।’
 
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा – ‘तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?’
 
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।’
 
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। ‘वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।’
 
 
 
5
 
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
 
*** *** ***
 
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ‘हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
 
‘वजीरासिंह, पानी पिला दे।’
 
***    ***      ***
 
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
 
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला – ‘लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।’ लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
 
‘मुझे पहचाना?’
 
‘नहीं।’
 
‘तेरी कुड़माई हो गई – धत् – कल हो गई – देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में –
 
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
 
‘वजीरा, पानी पिला’ – ‘उसने कहा था।’
 
***    ***      ***
 
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।
 
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
 
‘वजीरासिंह, पानी पिला’ – ‘उसने कहा था।’
 
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लहना का सिर अपनी गोद में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला – ‘कौन! कीरतसिंह?’
 
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा – ‘हाँ।’
 
‘भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।’ वजीरा ने वैसे ही किया।
 
‘हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।’ वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
 
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कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा –
 
फ्रांस और बेल्जियम – 68 वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।
 
                               – चंद्रधर शर्मा गुलेरी