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पत्नी किसकी … Betal pachisi dusri story in hindi

Hi दोस्तों स्वागत है आपका inhindistory.com पर betal pachisi story in hindi सीरीज की दूसरी story 

आज पोस्ट कर की जा रही है। इसके पहले वाली story 
पिछली पोस्ट में पढ़ सकते है
Starting story betal pachisi in hindi
1st story betal pachisi  in hindi

अब दूसरी story in hindi


Betal pachisi dusri story in hindi


पत्नी किसकी … Betal pachisi dusri story in hindi

विक्रम पुनः उसी शिंशपा-वृक्ष के नीचे पहुंचे। वहां चिता की
मटमैली रोशनी में उनकी नजर भूमि पर पड़े उस शव पर पड़ी जो धीरे-धीरे कराह
रहा था।

उन्होंने शव को उठाकर कंधे पर डाला और चुपचाप उसे उठाए तेज गति से लौट
पड़े।

कुछ आगे चलने पर शव के अंदर से बेताल की आवाज आई-“राजन ! तुम
अत्यंत अनुचित क्लेश में पड़ गए, अतः तुम्हारे मनोरंजन के लिए मैं एक कहानी
सुनाता हूं, सुनो।”

यमुना किनारे ब्रह्मस्थल नाम का एक स्थान है, जो ब्राह्मणों को दान में मिला
हुआ था। वहां वेदों का ज्ञाता अग्निस्वामी नाम का एक ब्राह्मण था। उसके यहां
मन्दरावती नाम की एक अत्यंत रूपवती कन्या उत्पन्न हुई। जब वह कन्या युवती
हुई, तब तीन कान्यकुब्ज ब्राह्मण कुमार वहां आए जो समान भाव से समस्त गुणों से
अलंकृत थे।

उन तीनों ने ही उसके पिता से अपने लिए कन्या की याचना की। कित कन्या के
पिता ने उनमें से किसी के भी साथ कन्या का विवाह करना स्वीकार नहीं किया
क्योकि उसे भय हुआ कि ऐसा करने पर वे तीनों आपस में ही लड़ मरेंगे। इस तरह
वह कन्या कुआंरी ही रही।

वे तीनों ब्राह्मण कुमार भी चकोर का व्रत लेकर उसके मुखमंडल पर टकटकी
लगाए रात-दिन वहीं रहने लगे।

एक बार मंदारवती को अचानक दाह-ज्वर हो गया और उसी अवस्था में उसकी
मौत हो गई। उसके मर जाने पर तीनों ब्राह्मण कुमार शोक से बड़े विकल हुए और
उसे सजा-संवारकर श्मशान ले गए, जहां उसका दाह-संस्कार किया।

उनमें से एक ने वहीं अपनी एक छोटी-सी मढैया बना ली और मंदारवती की
चिता की भस्म अपने सिराहने रखकर एवं भीख में प्राप्त अन्न पर निर्वाह करता हुआ
वहीं रहने लगा।

दूसरा उसकी अस्थियों की भस्म लेकर गंगा-तट पर चला गया और तीसरा योगी
बनकर देश-देशांतरों के भ्रमण के लिए निकल पड़ा।

योगी बना वह ब्राह्मण घूमता-फिरता एक दिन वत्रोलक नाम के गांव में जा
पहुंचा। वहां अतिथि के रूप में उसने एक ब्राह्मण के घर में प्रवेश किया। ब्राह्मणद्वारा सम्मानित होकर जब वह भोजन करने बैठा, तो उसी समय एक बालक ने
जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। बहुत बहलाने-समझाने पर भी जब बालक चुप न
हुआ तो घर की मालकिन ने क्रुद्ध होकर उसे हाथों में उठा लिया और जलती हुई
अग्नि में फेंक दिया। आग में गिरते ही, कोमल शरीर वाला वह बालक जलकर राख
हो गया। यह देखकर उस योगी को रोमांच हो आया। उसने परोसे हुए भोजन को
आगे सरका दिया और उठकर खड़ा होते हुए क्रोधित भाव में बोला-“धिक्कार है
आप लोगों पर। आप ब्राह्मण नहीं, कोई ब्रह्म-राक्षस हैं। अब मैं तुम्हारे घर का
भोजन तो क्या, एक अन्न का दाना भी ग्रहण नहीं करूंगा।”
__योगी के ऐसा कहने पर गृहस्वामी बोला—”हे योगिराज, आप कुपित न हों। मैं
बच्चे को फिर से जीवित कर लूंगा। मैं एक ऐसा मंत्र जानता हूं जिसके पढ़ने से मृत
व्यक्ति जीवित हो जाता है।”

यह कहकर वह गृहस्थ, एक पुस्तक ले आया जिसमें मंत्र लिखा था। उसने मंत्र
पढ़कर उससे अभिमंत्रित धूल आग में डाल दी। आग में धूल के पड़ते ही वह बालक
जीवित होकर ज्यों-का-त्यों आग से निकल आया।

जब उस ब्राह्मण योगी का चित्त शांत हो गया तो उसने भोजन ग्रहण किया।
गृहस्थ ने उस पुस्तिका को बांधकर खूटी पर टांग दिया और भोजन करके योगी के
साथ वहीं सो गया। गृहपति के सो जाने के पश्चात् वह योगी चुपचाप उठा और
अपनी प्रिया को जीवित करने की इच्छा से उसने डरते-डरते वह पुस्तक खूटी से
उतार ली और चुपचाप बाहर निकल आया।

रात-दिन चलता हुआ, वह योगी उस जगह पहुंचा, जहां उसकी प्रिया का दाह हुआ
था। वहां पहुंचते ही उसने उस दूसरे ब्राह्मण को देखा जो मंदारवती की अस्थियां लेकर
गंगा में डालने गया था।

तब उस योगी ने उससे तथा उस पहले ब्राह्मण से, जिसने वहां कुटिया बना ली थी
और चिता-भस्म से सेज रच रखी थी कहा कि-‘तुम यह कुटिया यहां से हटा लो
जिससे मैं एक मंत्र शक्ति के द्वारा इस भस्म हुई मदारवती को जीवित करके उठा लूं।”
___ इस प्रकार उन्हें बहुत समझा-बुझाकर उसने वह कुटिया उजाड़ डाली। तब वह
योगी पुस्तक खोलकर मंत्र पढ़ने लगा। उसने धूल को अभिमत्रित करके चिता-भस्म
में डाल दिया और मंदारवती उसमें से जीती-जागती निकल आई। अग्नि में प्रवेश
करके निकलते हुए उसके शरीर की कांति पहले से भी अधिक तेज हो गई थी।
उसका शरीर अब ऐसा लगने लगा था जैसे वह सोने का बना हुआ हो। इस प्रकार
उसको जीवित देखकर वे तीनों ही काम-पीडित हो गए और उसको पाने के लिए
आपस में लड़ने-झगड़ने लगे। जिस योगी ने मत्र से उसे जीवित किया था वह बोला
कि वह स्त्री उसकी है। उसने उसे मंत्र-तंत्र से प्राप्त किया है। दूसरे ने कहा कि तीर्थो
के प्रभाव से मिली वह उसकी भार्या है। तीसरा बोला कि उसकी भस्म को रखकर अपनी तपस्या से उसने उसे जीवित किया है, अतः उस पर उसका ही अधिकार है।

इतनी कहानी सुनाकर बेताल ने विक्रमादित्य से कहा-“राजन ! उनके इस विवाद
का निर्णय करके तुम ठीक-ठीक बताओ कि वह स्त्री किसकी होनी चाहिए ? यदि तुम
जानते हुए भी न बतला पाए तो तुम्हारा सिर फटकर अनेक टुकड़ों में बंट जाएगा।”

बेताल द्वारा कहे हुए शब्दों को सुनकर राजा विक्रमादित्य ने कहा- “हे बेताल!
जिस योगी ने कष्ट उठाकर भी, मंत्र-तंत्र से उसे जीवित किया, वह तो उसका पिता
हुआ। ऐसा काम करने के कारण उसे पति नहीं होना चाहिए और जो ब्राह्मण उसकी
अस्थियां गंगा में डाल आया था, उसे स्वयं को उस स्त्री का पुत्र समझना चाहिए।
कित, जो उसकी भस्म की शैय्या पर आलिंगन करते हुए तपस्या करता रहा और
श्मशान में ही बना रहा, उसे ही उसका पति कहना चाहिए, क्योंकि गाढ़ी प्रीति वाले
उस ब्राह्मण ने ही पति के समान आचरण किया था।”

“तूने ठीक उत्तर दिया राजा किंतु ऐसा करके तने अपना मौन भंग कर दिया।
इसलिए मै चला वापस अपने स्थान पर ।” यह कहकर बेताल उसके कंधे से उतरकर
लोप हो गया।

राजा ने भिक्षु के पास ले जाने के लिए, उसे फिर से पाने के लिए कमर कसी
क्योंकि धीर वृत्ति वाले लोग प्राण देकर भी अपने दिए हुए वचन की रक्षा करते हैं।
तब राजा फिर से उसी स्थान की ओर लौट पड़ा जहां से वह शव को उतारकर लाया
था।

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पाप किस को लगा……betal pachisi first story in hindi

दोस्त betal pachisi स्टोरी सीरीज की पहली कहानी आज inhindistory पर शेयर कर रहे है। betal pachisi starting story पहले ही पोस्ट की जा चुकी है । जिसे आप पढ़ ले ताकि आगे की story आपको आसानी से समझ आ जाये।

 पाप किस को लगा……betal pachisi first story in hindi

Betal pachisi story in hindi




आर्यावर्त में वाराणसी नाम की एक नगरी है, जहां भगवान शंकर निवास करते
हैं। पुण्यात्मा लोगों के रहने के कारण वह नगरी कैलाश-भूमि के समान जान पड़ती
है। उस नगरी के निकट अगाध जल वाली गंगा नदी बहती है जो उसके कंठहार की
तरह सुशोभित होती है। प्राचीनकाल में उस नगरी मे एक राजा राज करता था,
जिसका नाम था प्रताप मुकुट ।
Betal pachisi story in hindi

प्रताप मुकुट का वज्रमुकुकट नामक एक पुत्र था जो अपने पिता की ही भांति बहत
धीर, वीर और गंभीर था। वह इतना सुंदर था कि कामदेव का साक्षात् अवतार लगता
था। राजा के एक मंत्री का बेटा बुद्धिशरीर उस वज्रमुकुट का घनिष्ठ मित्र था। एक बार
वज्रमुकुट अपने उस मित्र के साथ जंगल में शिकार खेलने गया। वहां घने जंगल के बीच
उसे एक रमणीक सरोवर दिखाई दिया, जिसमें बहुत-से कमल के सुंदर-सुंदर पुष्प खिले
हुए थे। उसी समय अपनी कुछ सखियों सहित एक राजकन्या वहां आई और सरोवर में
स्नान करने लगी। राजकन्या के सुंदर रूप को देखकर वज्रमुकूट उस पर मोहित हो
गया। राजकन्या ने भी वज्रमुकुट को देख लिया था और वह भी पहली ही नजर में उसकी
ओर आकृष्ट हो गई। राजकुमार वज्रमुकुट अभी उस राजकन्या के बारे में जानने के लिए
सोच ही रहा था कि राजकन्या ने खेल-खेल में ही उसकी ओर संकेत करके अपना
नाम-धाम भी बता दिया। उसने एक कमल के पत्ते को लेकर कान में लगाया, दंतपत्र से
देर तक दांतों को खुरचा, एक दूसरा कमल माथे पर तथा हाथ अपने हृदय पर रखा।
किंतु राजकुमार ने उस समय उसके इशारों का मतलब न समझा।
Betal pachisi story in hindi

उसके बुद्धिमान मित्र बुद्धिशरीर ने उन इशारों का मतलब समझ लिया था, अतः
मंद-मंद मुस्कराता हुआ अपने मित्र की हालत देखता रहा, जो उस राजकन्या के प्रेमबाण
से आहत होकर,राजकन्या और उसकी सखियों को वापस जाते देख रहा था।
Betal pachisi story in hindi

राजकुमार घर लौटा तो वह बहुत उदास था। उसकी दशा जल बिन-मछली की
भांति हो रही थी। जब से वह शिकार से लौटा था, उस राजकन्या के वियोग में उसका
खाना-पीना छूट गया था। राजकुमारी की याद आते ही उसका मन उसे पाने के लिए
बेचैन होने लगता था।
Betal pachisi story in hindi

एक दिन बुद्धिशरीर ने राजकुमार से एकान्त में इसका कारण पूछा। कारण
जानकर उसने कहा कि उसका मिलना कठिन नहीं है। तब राजकुमार ने अधीरता से
कहा-“जिसका न तो नाम-धाम मालूम है और न जिसके कुल का ही कोई पता है,
वह भला कैसे पाई जा सकती है ? फिर तुम व्यर्थ ही मुझे भरोसा क्यों दिलाते हो?”
इस पर मंत्रीपुत्र बुद्धिशरीर बोला-“मित्र, उसने तुम्हें इशारों से जो कुछ
बताया था, क्या उन्हें तुमने नहीं देखा ? सुनो–उसने कानों पर उत्पल (कमल)
रखकर बताया कि वह राजा कर्णोत्पल के राज्य में रहती है। दांतों को खुरचकर यह
संकेत दिया कि वह वहां के दंतवैद्य की कन्या है। अपने कान में कमल का पत्ता
लगाकर उसने अपना नाम पद्मावती बताया और हृदय पर हाथ रखकर सूचित किया
कि उसका हृदय तुम्हें अर्पित हो चुका है। कलिंग देश में कर्णोत्पल नाम का एक
सुविख्यात राजा है। उसके दरबार में दंतवैद्य की पद्मावती नाम की एक कन्या है जो
उसे प्राणों से भी अधिक प्यारी है। दंतवैद्य उस पर अपनी जान छिड़कता है।”
____ मंत्रीपुत्र ने आगे बताया–“मित्र, ये सारी बातें मैंने लोगों के मुख से सुन रखी थीं
इसलिए मैने उसके उन इशारों को समझ लिया, जिससे उसने अपने देश आदि की सूचना
दी थी।”
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उसके ऐसा कहने पर राजकुमार को बेहद संतोष हुआ। प्रिया का पता
लगाने का उपाय मिल जाने के कारण वह प्रसन्न भी था। वह अपने मित्र के साथ
अगले ही दिन आखेट का बहाना करके अपनी प्रिया से मिलने चल पड़ा। आधी राह
में अपने घोड़े को वायु-वेग से दौड़ाकर उसने अपने सैनिकों को पीछे छोड़ दिया और
केवल मंत्रीपुत्र के साथ कलिग की ओर बढ़ चला।
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राजा कर्णोत्पल के राज्य में पहुंचकर उसने दंतवैद्य की खोज की और उसका घर
देख लिया। तब राजकुमार और मंत्रीपुत्र ने उसके घर के पास ही निवास करने के
लिए, एक वृद्ध स्त्री के मकान में प्रवेश किया।
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मंत्रीपुत्र ने घोड़ों को दाना-पानी देकर उन्हें छिपाकर बांध दिया, फिर राजकुमार
के सामने ही उसने वृद्धा से कहा-“हे माता, क्या आप संग्रामवर्धन नाम के किसी
दंतवैद्य को जानती हैं ?”Betal pachisi story in hindi

यह सुनकर उस वृद्धा स्त्री ने आश्चर्यपूर्वक कहा-“हां, मैं जानती हूं। मै
उनकी धाय हूं लेकिन अधिक उम्र हो जाने के कारण अब उन्होंने मुझे अपनी बेटी
पद्मावती की सेवा में लगा दिया है। किंतु, वस्त्रों से हीन होने के कारण मैं सदा
उसके पास नहीं जाती। मेरा बेटा नालायक और जुआरी है। मेरे वस्त्र देखते ही वह
उन्हें उठा ले जाता है।”

बुढ़िया के ऐसा कहने पर प्रसन्न होकर मंत्रीपुत्र ने अपने उत्तरीय आदि वस्त्र उसे
देकर संतुष्ट किया। फिर वह बोला-“तुम हमारी माता के समान हो। पुत्र
समझकर हमारा एक कार्य गुप्त रूप से कर दो तो हम आपके बहुत आभारी रहेंगे।
तुम इस दंतवैद्य की कन्या पद्मावती से जाकर कहो कि जिस राजकुमार को उसने
सरोवर के किनारे देखा था, वह यहां आया हुआ है। प्रेमवश उसने यह संदेश कहने
के लिए तुम्हें वहां भेजा है।”

उपहार मिलने की आशा में वह बुढ़िया तुरंत ऐसा करने को तैयार हो गई। वह
पद्मावती के पास पहुंची और वह संदेश पद्मावती को देकर शीघ्रता से लौट आई।
___ पूछने पर उसने राजकुमार और मंत्रीपुत्र को बताया-“मैंने जाकर तुम लोगों के
आने की बात गुप्त रूप से उससे कही। सुनकर उसने मुझे बहुत बुरा-भला कहा और
कपूर लगे अपने दोनों हाथों से मेरे दोनों गालो पर कई थप्पड़ मारे। मैं इस अपमान
को सहन न कर सकी और दुखी होकर रोती हुई वहा से लौट आई। बेटे, स्वयं
अपनी आंखों से देख लो, मेरे दोनों गालों पर अभी भी उसके द्वारा मारे गए थप्पड़ों के
निशान मौजूद हैं।”
___ बुढ़िया द्वारा बताए जाने पर राजकुमार उदास हो गया किंतु महाबुद्धिमान
मंत्रीपुत्र ने उससे एकांत में कहा-“तुम दुखी मत हो मित्र | पद्मावती ने बुढ़िया
को फटकारकर, कपूर से उजली अपनी दसों उंगलियों की छाप द्वारा तुम्हें ये बताने
की कोशिश की है कि तुम शुक्लपक्ष की दस चांदनी रातों तक प्रतीक्षा करो। ये रातें
मिलन के लिए उपयुक्त नहीं हैं।”
___ इस तरह राजकुमार को आश्वासन देकर मंत्रीपुत्र बाजार में गया और अपने
पास का थोडा-सा सोना बेच आया। उससे मिले धन से उसने बुढ़िया से उत्तम
भोजन तैयार करवाया और उस वृद्धा के साथ ही भोजन किया ।

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इस तरह दस दिन बिताकर मंत्रीपुत्र ने उस बुढ़िया को फिर पद्मावती के पास भेज
दिया । बुढ़िया उत्तम भोजन के लोभ में यह कार्य करने के लिए फिर से तैयार हो गई।

बुढ़िया ने लौटकर उन्हें बताया-“आज मैं यहां से जाकर, चुपचाप उसके पास
खड़ी रही। तब उसने स्वयं ही तुम्हारी बात कहने के लिए मेरे अपराध का उल्लेख
करते हुए मेरे हृदय पर महावर लगी अपनी तीन उंगलियों से आघात किया। इसके
बाद मैं उसके पास से यहां चली आई।”
____ तीन रातें बीत जाने के बाद मंत्रीपुत्र ने अकेले में राजकुमार से कहा- “तुम
कोई शंका मत करो, मित्र । पद्मावती ने महावर लगी तीन उंगलियों की छाप
छोड़कर यह सूचित किया है कि वह अभी तीन दिन तक राजमहल में रहेगी।”

यह सुनकर मंत्रीपुत्र ने फिर से बुढ़िया को पद्मावती के पास भेजा। उस दिन
जब बुढ़िया पद्मावती के पास पहुंची तो उसने बुढ़िया का उचित स्वागत-सत्कार
किया और उसे स्वादिष्ट भोजन भी कराया। पूरा दिन वह बुढ़िया के साथ
हंसती-मुस्कराती बातें करती रही। शाम को जब बुढ़िया लौटने को हुई, तभी बाहर
बहुत डरावना शोर-गुल सुनाई दिया-“हाय-हाय, यह पागल हाथी जंजीरें तोड़कर
लोगों को कुचलता हुआ भागा जा रहा है।” बाहर से मनुष्यों की ऐसी चीख-पुकार
सुनाई पड़ी।
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तब पद्मावती ने उस बुढ़िया से कहा- “राजमार्ग को एक हाथी ने रोक रखा है। उससे तुम्हारा जाना उचित नहीं है। मैं तुम्हें रस्सियों से बंधी एक पीढ़ी पर
बैठाकर उस बड़ी खिड़की के रास्ते नीचे बगीचे में उतरवा देती हूं। उसके बाद तुमपेड़ के सहारे बाग की चारदीवारी पर चढ़ जाना और फिर वहां से दूसरी ओर के पेड़
पर चढकर नीचे उतर जाना । फिर वहां से अपने घर चली जाना ।” यह कहकर एक
रस्सी से बंधी पीढ़ी पर बैठाकर उसने बुढ़िया को अपनी दासियों द्वारा खिड़की के
रास्ते नीचे बगीचे में उतरवा दिया। बुढ़िया पद्मावती द्वारा बताए हुए उपाय से घर
लौट आई और सारी बातें ज्यों-की-त्यों राजकुमार और मंत्रीपुत्र को बता दीं।

तब उस मंत्रीपुत्र ने राजकुमार से कहा—”मित्र, तुम्हारा मनोरथ पूरा हुआ।
उसने युक्तिपूर्वक तुम्हें रास्ता भी बतला दिया है इसलिए आज ही शाम को तुम वहां
जाओ और इसी मार्ग से अपनी उस प्रिया के भवन में प्रवेश करो।”
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राजकुमार ने वैसा ही किया। बुढ़िया के बताए हुए तरीके द्वारा वह चारदीवारी
पर चढ़कर पद्मावती के बगीचे में पहुंच गया। वहां उसने रस्सियों से बंधी हुई पीढ़ी
को लटकते देखा, जिसके ऊपरी छज्जे पर राजकुमार की राह देखती हुई कई दासियां
खड़ी थीं। ज्योंही राजकुमार पीढ़ी पर बैठा, दासियों ने रस्सी ऊपर खींच ली और वह
खिड़की की राह से अपनी प्रिया के पास जा पहुंचा। मंत्रीपुत्र ने जब अपने मित्र को
निर्विन खिड़की में प्रवेश करते देखा तो वह संतुष्ट होकर वहां से लौट गया।

अंदर पहुंचकर राजकुमार ने अपनी प्रिया को देखा। पद्मावती का मुख पूर्णचंद्र
के समान था जिससे शोभा की किरणे छिटक रही थीं। पद्मावती भी उत्कंठा से भरी
राजकुमार के अंग लग गई और अनेक प्रकार से उसका सम्मान करने लगी।

अनन्तर, राजकुमार ने गांधर्व-विधि से पद्मावती के साथ विवाह रचा लिया और
कई दिन तक गुप्त रूप से उसी के आवास में छिपा रहा | कई दिनों तक यहां रहने के
बाद, एक रात को उसने अपनी प्रिया से कहा–“मेरे साथ मेरा मित्र बुद्धिशरीर भी
यहां आया है। वह यहां अकेला ही तुम्हारी धाय के घर में रहता है। मैं अभी जाता
हूं, उसकी कुशलता का पता करके और उसे समझा-बुझाकर पुनः तुम्हारे पास आ
जाऊंगा।”

यह सुनकर पद्मावती ने राजकुमार से कहा-“आर्यपुत्र, यह तो बतलाइए कि
मैंने जो इशारे किए थे, उन्हें तुमने समझा था या बुद्धिशरीर ने?”

“मैं तो तुम्हारे इशारे बिल्कुल भी नहीं समझा था।” राजकुमार से बताया-“उन
इशारों को मेरे मित्र बुद्धिशरीर ने ही समझकर मुझे बताया था।

यह सुनकर और कुछ सोचकर पद्मावती ने राजकुमार से कहा—‘”यह बात इतने
विलम्ब से कहकर आपने बहुत अनुचित कार्य किया है। आपका मित्र होने के कारण वह
मेरा भाई है। पान-पत्तों से मुझे पहले उसका ही स्वागत-सत्कार करना चाहिए था।”
___ ऐसा कहकर उसने राजकुमार को जाने की अनुमति दे दी। तब, रात के समय
राजकुमार जिस रास्ते से आया था, उसी से अपने मित्र के पास गया।

पद्मावती से, उसके इशारे समझाने के बारे में राजकुमार को जो बातें हुई थीं,बातों-बातों में बह सब भी उसने मंत्रीपुत्र को कह सुनाई। मंत्रीपुत्र ने अपने संबंध में कही
गई इस बात को उचित न समझकर इसका समर्थन नहीं किया। इसी बीच रात बीत गई।

सवेरे सध्या-वंदन आदि से निवृत्त होकर दोनों बातें कर रहे थे, तभी पद्मावती
की एक सखी हाथ में पान और पकवान लेकर वहां आई। उसने मंत्रीपुत्र का
कुशल-मंगल पूछा और लाई हुई चीजें उसे दे दीं। बातों-बातों में उसने राजकुमार से
कहा कि उसकी स्वामिनी भोजन आदि के लिए उसकी प्रतीक्षा कर रही है। पल-भर
बाद, वह गुप्त रूप से वहां से चली गई। तब मंत्रीपुत्र ने राजकुमार से
कहा-“मित्र, अब देखिए, मैं आपको एक तमाशा दिखाता हूं।”

यह कहकर उसने एक कुत्ते के सामने वह भोजन डाल दिया। कुता वह पकवान
खाते ही तड़प-तड़पकर मर गया। यह देखकर आश्चर्यचकित हुए राजकुमार ने
मंत्रीपुत्र से पूछा-“मित्र, यह कैसा कौतुक है ?” ।

तब मंत्रीपुत्र ने कहा- “मैंने उसके इशारों को पहचान लिया था इसलिए मुझे
धूर्त समझकर उसने मेरी हत्या कर देनी चाही थी। इसी से, तुममें बहुत अनुराग होने
के कारण उसने मेरे लिए विष मिश्रित पकवान भेजे थे। उसे भय था कि मेरे रहते
राजकुमार एकमात्र उसी में अनुराग नहीं रख सकेगा और उसके वश में रहकर, उसे
छोड़कर अपनी नगरी में चला जाएगा। इसलिए उस पर क्रोध न करो बल्कि उसे
अपने माता-पिता के त्याग के लिए प्रेरित करो और सोच-विचार उसके हरण के लिए
मैं तुम्हें जो युक्ति बतलाता हूं, उसके अनुसार आचरण करो।”
___ मंत्रीपुत्र के ऐसा कहने पर राजकुमार यह कहकर उसकी प्रशंसा करने लगा
कि-“सचमुच तुम बुद्धिमान हो।” इसी बीच अचानक बाहर से दुख से विकल
लोगों का शोरगुल सुनाई पड़ा, जो कह रहे थे-“हाय-हाय. राजा का छोटा बच्चा
मर गया।”

यह सुनकर मंत्रीपुत्र प्रसन्न हुआ। उसने राजकुमार से कहा-“आज रात को
तुम पद्मावती के घर जाओ। वहां तुम उसे इतनी मदिरा पिलाना कि वह बेहोश हो
जाए, और वह किसी मृतक के समान जान पड़े। जब वह बेहोश हो तो उस हालत
में तुम एक त्रिशूल गर्म करके उसकी जांघ पर दाग देना और उसके गहनों की गठरी
बांधकर रस्सी के सहारे, खिड़की के रास्ते से यहां चले आना। उसके बाद मैं
सोच-विचारकर कोई वैसा उपाय करूंगा जो हमारे लिए कल्याणकारी हो।”
____ राजकुमार ने वैसा ही किया। उसने पद्मावती को जी-भरकर मदिरा पिलाई

और जब वह बेहोश हो गई तो उसकी जांघ पर त्रिशूल से एक बड़ा-सा दाग बना
दिया और उसके गहनों की गठरी बनाकर अपने साथ ले आया।
___सवेरे श्मशान में जाकर मंत्रीपुत्र ने तपस्वी का रूप धारण किया और राजकुमार
को अपना शिष्य दनाकर उससे कहा-“अब तुम इन आभूषणों में से मोतियों का
हार लेकर बाजार में बेचने के लिए जाओ, लेकिन इसका दाम इतना अधिक बताना

कि इसे कोई खरीद न सके, साथ ही यह भी प्रयत्न करो कि इस को
अधिक-से-अधिक लोग देखें। अगर नगररक्षक तुम्हें पकड़ें, तो बिना घबराए हुए तुम
कहना कि- “मेरे गुरु ने इसे बेचने के लिए मुझे दिया है।”

तब राजकुमार बाजार में गया और वहां उस हार को लेकर घूमता रहा।

उधर दंतवैद्य की बेटी के गहनों की चोरी की खबर पाकर, नगररक्षक उसका
पता लगाने के लिए घूमते फिर रहे थे। राजकुमार को हार के साथ देखकर उन लोगों
ने उसे पकड़ लिया।

नगररक्षक राजकुमार को नगरपाल के पास ले गए। उसने तपस्वी के वेश में
राजकुमार को देखकर आदर सहित पूछा-“भगवन्, मोतियों का यह हार आपको
कहां से मिला? पिछले दिनों दंतवैद्य की कन्या के आभूषण चोरी हो गए थे जिनमें
इस हार का भी जिक्र था।”

इस पर तपस्वी-शिष्य बना राजकुमार बोला- “इसे मेरे गुरु ने बेचने के लिए
मुझे दिया है। आप उन्हीं से पूछ लीजिए।” ।

तब नगरपाल वहां आया तो तपस्वी रूपी मंत्रीपुत्र ने कहा- ‘मैं तो तपस्वी हूं।
सदा जंगलों में यहां-वहां घूमता रहता हूं। संयोग से मैं पिछली रात इस श्मशान में
आकर टिक गया था। यहां मैंने इधर-उधर से आई हुई योगिनियों को देखा। उनमें
से एक योगिनी राजपुत्र को ले आई और उसने उसका हृदय निकालकर भैरव को
अर्पित कर दिया। मदिरा पीकर वह मायाविनी मतवाली हो गई और मुझे मुंह
चिढ़ाकर, मेरी उस रुद्राक्ष माला को लेने दौड़ी जिसके मनकों के साथ मैं तप कर रहा
था। जब उसने मुझे बहुत तंग किया तो मुझे उस पर क्रोध आ गया। मैंने मंत्रबल से
अग्नि जलाई और उसमें त्रिशूल तपाकर उसकी जंघा पर दाग दिया। उसी समय मैंने
उसके गले से यह मोतियों का हार खींच लिया था। अब मैं ठहरा तपस्वी, यह हार
मेरे किसी काम का नहीं है इसलिए मैंने अपने शिष्य को इसे बेचने के लिए भेज दिया

था।”

यह सुनकर नगरपाल राजा के पास पहुंचा और उसने राजा से सारा वृत्तांत कह
सुनाया। राजा ने बात सुनकर उस मोतियों के हार को पहचान दिया। पहचानने का
कारण यह था कि वह हार स्वयं राजा ने ही दंतवैद्य की बेटी को उपहार स्वरूप मेंट
किया था।

तब राजा ने अपनी एक विश्वासपात्र वृद्धा दासी को यह जांच करने के लिए
दंतवैद्य के यहां भेजा कि वह पद्मावती के शरीर का परीक्षण कर यह पता करे कि
उसकी जांघ पर त्रिशूल का चिन्ह है या नहीं। वृद्धा दासी ने जांच करके राजा को
बताया कि उसने पद्मावती की जांघ पर वैसा ही एक दाग देखा है। इस पर राजा
को विश्वास हो गया कि पद्मावती ही उसके बेटे को मारकर खा गई है। तब वह
स्वयं तपस्वी-वेशधारी मंत्रीपुत्र के पास गए और पूछा कि पद्मावती को क्या दंडदिया जाए। मंत्रीपुत्र के कहने पर राजा ने पद्मावती को नग्नावस्था मे अपने राज्य
सं निर्वासित कर दिया।

नग्न करके वन में निर्वासित कर दिए जाने पर भी पद्मावती ने आत्महत्या नहीं
की। उसने सोचा कि मंत्रीपुत्र ने ही यह सब उपाय किया है। शाम होने पर तपस्वी
का वेश त्यागकर राजुकमार और मंत्रीपुत्र, घोड़ों पर सवार होकर वहां पहुंचे जहां
पद्मावती शोकमग्न बैठी थी। वे उसे समझा-बुझाकर घोड़े पर बैठाकर अपने देश ले
गए। वहां राजकुमार उसके साथ सुखपूर्वक रहने लगा।

बेताल ने इतनी कथा सुनाकर राजा विक्रमादित्य से पूछा-“राजन ! आप
बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, अतः मुझे यह बताइए कि यदि राजा क्रोधवश उस समय
पद्मावती को नगर निर्वासन का आदेश न देकर उसे मारने का आदेश दे
देता…अथवा पहचान लिए जाने पर वह राजकुमार का ही वध करवा देता तो इन
पति-पली के वध का पाप किसे लगता ? मंत्रीपुत्र को, राजकुमार को अथवा
पद्मावती को ? राजन, यदि जानते हुए भी तुम मुझे ठीक-ठीक नहीं बतलाओगे तो
विश्वास जानो कि तुम्हारे सिर के सौ टुकड़े हो जाएंगे।”

बेताल के ऐसा कहने पर सब-कुछ जानते हुए भी राजा विक्रमादित्य ने शाप के
भय से उससे यों कहा-“योगेश्वर, इसमें न जानने योग्य क्या है ? इसमें इन तीनों
का कोई पाप नहीं है। जो पाप है वह राजा कर्णोत्पल का है।”

बेताल बोला- “इसमें राजा का पाप क्या है ? जो कुछ किया, वह तो उन
तीनों ने किया। हंस यदि चावल खा जाएं तो इसमें कौओं का क्या अपराध है ?”

तब विक्रमादित्य बोला–“उन तीनों का कोई दोष नहीं था। पद्मावती और
राजकुमार कामाग्नि में जल रहे थे, वे अपने स्वार्थ साधन में लगे हुए थे। अतः वे भी
निर्दोष थे। उनका विचार नहीं करना चाहिए लेकिन राजा कर्णोत्पाल अवश्य पाप का
भागी था। राजा होकर भी वह नीतिशास्त्र नहीं जानता था। उसने अपने गुप्तचरों के
द्वारा अपनी प्रजा से भी सच-झूठ का पता नहीं लगवाया। वह धूर्तो के चरित्र को
नहीं जानता था। फिर भी बिना विचारे उसने जो कुछ किया, उसके लिए वह पाप
का भागी हुआ।”

शव के अंदर प्रविष्ट उस बेताल से, जब राजा ने मौन छोड़कर ऐसी युक्तियुक्त
बातें कहीं, तब उनकी दृढ़ता की परीक्षा लेने के लिए अपनी माया के प्रभाव से वह
राजा विक्रमादित्य के कंधे से उतरकर इस तरह कहीं चला गया कि राजा को पता भी
नहीं चला। फिर भी राजा घबराया नहीं, राजा ने उसे फिर से ढूंढ़ निकालने का
निश्चय किया और वापस उसी वृक्ष की ओर लौट पड़ा।

Betal pachisi सीरीज की next story जल्द ही पोस्ट की जाएगी inhindistory पर। आपको यह स्टोरी पसन्द आयी हो तो शेयर जरूर करें।
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बैताल पचीसी – भवभूति | Baital Pachisi by Bhavabhuti in Hindi story

बैताल पचीसी – भवभूति | Baital Pachisi by Bhavabhuti in Hindi story

बैताल पच्चीसी राजा विक्रमादित्य के शासन की न्याय प्रियता का परिचय देती है। इस 25 रोचक कहानियों का संग्रह है जो एक से बढ़ कर एक हैं । हर कहानी के अंत में दिमाग को हिला देने वाला गूढ़ सवाल होता है । जिसे बैताल , राजा विक्रम से पूछता है।बैताल पच्चीसी की रचना बेताल भट्टराव ने की थी। ये kahaniyan भारत के साथ साथ अन्य देशों में भी कभी प्रसिद्ध । इन कहानियों का अन्य कई भाषााओं में भी अनुवाद हो चूका है । हम सभी 25  kahaniyan  हमारी वेबसाइट inhindistory.com पर share करेंंगे ।



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बैताल पचीसी


In hindi story

प्राचीन काल की बात है, तब उज्जयनी (वर्तमान में उज्जैन) में महाराज विक्रमादित्य
राज किया करते थे। विक्रमादित्य हर प्रकार से एक आदर्श राजा थे। उनकी दानशीलता
की कहानियां आज भी देश के कोने-कोने में सुनी जाती हैं। राजा प्रतिदिन अपने दरबार
में आकर प्रजा के दुखों को सुनते व उनका निवारण किया करते थे। एक दिन राजा के
दरबार में एक भिक्षु आया और एक फल देकर चला गया। तब से वह भिक्षु प्रतिदिन
राजदरबार में पहुंचने लगा। वह राजा को एक फल देता और राजा उसे कोषाध्यक्ष को
सौंप देता। इस तरह दस वर्ष व्यतीत हो गए। हमेशा की तरह एक दिन जब वह भिक्षु
राजा को फल देकर चला गया तो राजा ने उस दिन फल को कोषाध्यक्ष को न देकर एक
पालतू बंदर के बच्चे को दे दिया जो महल के किसी सुरक्षाकर्मी का था और उससे छूटकर
राजा के पास चला आया था। उस फल को खाने के लिए जब बंदर के बच्चे ने उसे बीच
से तोड़ा तो उसके अंदर से एक बहुत ही उत्तम कोटि का बहुमूल्य रत्ल निकला। यह
देखकर राजा ने वह रल ले लिया और कोषाध्यक्ष को बुलाकर उससे पूछा- “मैं
रोज-रोज भिक्षु द्वारा लाया हुआ जो फल तुम्हें देता हूं, वे फल कहां हैं ?”

राजा ने आज्ञा दी तो कोषाध्यक्ष रल-भंडार गया और कुछ ही देर बाद आकर
राजा को बताया-“प्रभु, वे फल तो सड़-गल गए, वे मुझे वहां नहीं दिखाई दिए।
हां, चमकती-झिलमिलाती रलों की एक राशि वहां अवश्य मौजूद है।” ।

यह सुनकर राजा कोषाध्यक्ष पर प्रसन्न हुए और उसकी निष्ठा की प्रशंसा करते
हुए सारे रत्न उसे ही सौंप दिए। अगले दिन पहले की तरह जब वह भिक्षु फिर
राजदरबार में आया तो राजा ने उससे कहा-‘हे भिक्षु ! इतनी बहुमूल्य भेंट तुम
प्रतिदिन मुझे क्यों अर्पित करते हो ? अब मैं तब तक तुम्हारा यह फल ग्रहण नहीं
करूंगा, जब तक तुम इसका कारण नहीं बताओगे।”

राजा के कहने पर भिक्षु उन्हें अलग स्थान पर ले गया और उनसे कहा-“हे
राजन, मुझे एक मंत्र की साधना करनी है, जिसमें किसी वीर पुरुष की सहायता
अपेक्षित है। हे वीरश्रेष्ठ ! उस कार्य में मैं आपकी सहायता की याचना करता हूं।”

यह सुनकर राजा ने उसकी सहायता करने का वचन दे दिया। तब संतुष्ट होकर
भिक्षु ने राजा से फिर कहा-“देव, तब मैं आगामी अमावस्या को यहां के
महाश्मशान में, बरगद के पेड़ के नीचे आपकी प्रतीक्षा करूंगा। आप कृपया वहीं मेरे
पास आ जाना।”

“ठीक है, मै ऐसा ही करूंगा।” राजा ने उसे आश्वस्त किया । तब वह भिक्षु संतुष्टहोकर अपने घर चला गया। जब अमावस्या आई, तो राजा को भिक्षु को दिए अपने
वचन का स्मरण हो आया और वह नीले कपड़े पहन, माथे पर चंदन लगाकर तथा हाथ में
तलवार लेकर गुप्त रूप से राजधानी से निकल पड़ा। राजा उस श्मशान में पहुंचा, जहां
भयानक गहरा और घुप्प अंधेरा छाया हुआ था। वहां जलने वाली चिताओं की लपटें
बहुत भयानक दिखाई दे रही थीं। असंख्य नर-कंकाल, खोपड़ियां एवं हड्डियां इधर-उधर
बिखरी पड़ी थीं। समूचा श्मशान भूत-पिशाचों से भरा पड़ा था और सियारों की डरावनी

आवाजें श्मशान की भयानकता को और भी ज्यादा बढ़ा रही थीं। निर्भय होकर राजा ने
वहां उस भिक्षु को ढूंढा । भिक्षु एक वट-वृक्ष के नीचे मंडल बना रहा था। राजा ने उसके
निकट जाकर कहा-“भिक्षु, मैं आ गया हूं। बताओ, मुझे क्या करना होगा ?” राजा
को उपस्थित देखकर भिक्षु बहुत प्रसन्न हुआ। उसने कहा-“राजन ! यदि आपने मुझ
पर इतनी कृपा की है तो एक कृपा और कीजिए, आप यहां से दक्षिण की ओर जाइए।
यहां से बहुत दूर,श्मशान के उस छोर पर आपको शिशपा (शीशम) का एक विशाल वृक्ष
मिलेगा । उस पर एक मरे हुए मनुष्य का शरीर लटक रहा है। आप उस शव को यहां ले
आइए और मेरा कार्य पूरा कीजिए।” राजा विक्रमादित्य भिक्षु की बात मानकर वहां से
दक्षिण की ओर चल पड़े।
___जलती हुई चिताओं के प्रकाश के सहारे वे उस अंधकार में आगे बढ़ते गए और
बड़ी कठिनाई से उस वृक्ष को खोज पाए। वह वृक्ष चिताओं के धुएं के कारण काला
पड़ गया था। उससे जलते हुए मांस की गंध आ रही थी। उसकी एक शाखा पर
एक शव इस प्रकार लटका हुआ था जैसे किसी प्रेत के कंधे पर लटक रहा हो। राजा
ने वृक्ष पर चढ़कर अपनी तलवार से डोरी काट डाली और शव को जमीन पर गिरा
दिया। नीचे गिरकर वह शव बड़ी जोर से चीख उठा, जैसे उसे बहुत पीड़ा पहुंची
हो। राजा ने समझा कि वह मनुष्य जीवित है। राजा को उस पर दया आई।
अचानक उस शव ने जोर से अट्टाहस किया। तब राजा समझ गया कि उस पर
बेताल चढ़ा हुआ है। राजा उसके अट्टहास करने का कारण जानने की कोशिश कर
रहा था कि अचानक शव में हरकत हुई और वह हवा में उड़ता हुआ पुनः उसी शाखा
पर जा लटका। इस पर राजा एक बार फिर से वृक्ष पर चढ़ा और शव को पुनः नीचे
उतार लिया। फिर राजा ने उस शव को अपने कंधे पर डाला और खामोशी से भिक्षु
की ओर चल पड़ा। कुछ दूर चलने पर राजा के कंधे पर सवार शव के अंदर का
बेताल बोला-“राजन, मुझे ले जाने के लिए तुम्हें बहुत परिश्रम करना पड़ रहा है।
तुम्हारे श्रम के कष्ट को दूर करने एवं समय बिताने के लिए मैं तुम्हें एक कथा सुनाना
चाहता हूं। किंतु कथा के दौरान तुम मौन ही रहना | यदि तुमने अपना मौन तोड़ा तो
मैं तुम्हारी पकड़ से छूटकर पुनः अपने स्थान को लौट जाऊंगा। राजा द्वारा सहमति
जताने पर बेताल ने उसे एक रोचक कथा सुनाई।

दोस्तों जल्द है बैताल पच्चीसी की प्रथम कहानी post करेंगे । आपको यदि आपको यह स्टोरी पसंद आयी तो शेयर जरूर करें।
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