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प्रायश्चित/best praschit hindi story

 नमस्कार दोस्तो आज हम best praschit hindi story भागवतीचरण वर्मा की की कहानी आपके साथ शेयर कर रहे हैं ।

 

अगर कबरी बिल्‍ली घर-भर में किसी से प्रेम करती थी, तो रामू की बहू से, और अगर रामू की बहू घर-भर में किसी से घृणा करती थी, तो कबरी बिल्‍ली से। रामू की बहू, दो महीने हुए मायके से प्रथम बार ससुराल आई थी, पति की प्‍यारी और सास की दुलारी, चौदह वर्ष की बालिका। भंडार-घर की चाभी उसकी करधनी में लटकने लगी, नौकरों पर उसका हुक्‍म चलने लगा, और रामू की बहू घर में सब कुछ। सासजी ने माला ली और पूजा-पाठ में मन लगाया।

 

Hindi story



 

लेकिन ठहरी चौदह वर्ष की बालिका, कभी भंडार-घर खुला है, तो कभी भंडार-घर में बैठे-बैठे सो गई। कबरी बिल्‍ली को मौका मिला, घी-दूध पर अब वह जुट गई। रामू की बहू की जान आफत में और कबरी बिल्‍ली के छक्‍के पंजे। रामू की बहू हाँडी में घी रखते-रखते ऊँघ गई और बचा हुआ घी कबरी के पेट में। रामू की बहू दूध ढककर मिसरानी को जिंस देने गई और दूध नदारद। अगर बात यहीं तक रह जाती, तो भी बुरा न था, कबरी रामू की बहू से कुछ ऐसा परच गई थी कि रामू की बहू के लिए खाना-पीना दुश्‍वार। रामू की बहू के कमरे में रबड़ी से भरी कटोरी पहुँची और रामू जब आए तब तक कटोरी साफ चटी हुई। बाजार से बालाई आई और जब तक रामू की बहू ने पान लगाया बालाई गायब।

रामू की बहू ने तय कर लिया कि या तो वही घर में रहेगी या फिर कबरी बिल्‍ली ही। मोर्चाबंदी हो गई, और दोनों सतर्क। बिल्‍ली फँसाने का कठघरा आया, उसमें दूध मलाई, चूहे, और भी बिल्‍ली को स्‍वादिष्‍ट लगनेवाले विविध प्रकार के व्‍यंजन रखे गए, लेकिन बिल्‍ली ने उधर निगाह तक न डाली। इधर कबरी ने सरगर्मी दिखलाई। अभी तक तो वह रामू की बहू से डरती थी; पर अब वह साथ लग गई, लेकिन इतने फासिले पर कि रामू की बहू उस पर हाथ न लगा सके।

कबरी के हौसले बढ़ जाने से रामू की बहू को घर में रहना मुश्किल हो गया। उसे मिलती थीं सास की मीठी झिड़कियाँ और पतिदेव को मिलता था रूखा-सूखा भोजन।

एक दिन रामू की बहू ने रामू के लिए खीर बनाई। पिस्‍ता, बादाम, मखाने और तरह-तरह के मेवे दूध में औटाए गए, सोने का वर्क चिपकाया गया और खीर से भरकर कटोरा कमरे के एक ऐसे ऊँचे ताक पर रखा गया, जहाँ बिल्‍ली न पहुँच सके। रामू की बहू इसके बाद पान लगाने में लग गई।

उधर बिल्‍ली कमरे में आई, ताक के नीचे खड़े होकर उसने ऊपर कटोरे की ओर देखा, सूँघा, माल अच्‍छा है, ता‍क की ऊँचाई अंदाजी। उधर रामू की बहू पान लगा रही है। पान लगाकर रामू की बहू सासजी को पान देने चली गई और कबरी ने छलाँग मारी, पंजा कटोरे में लगा और कटोरा झनझनाहट की आवाज के साथ फर्श पर।

आवाज रामू की बहू के कान में पहुँची, सास के सामने पान फेंककर वह दौड़ी, क्‍या देखती है कि फूल का कटोरा टुकड़े-टुकड़े, खीर फर्श पर और बिल्‍ली डटकर खीर उड़ा ही है। रामू की बहू को देखते ही कबरी चंपत।

रामू की बहू पर खून सवार हो गया, न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी, रामू की बहू ने कबरी की हत्‍या पर कमर कस ली। रात-भर उसे नींद न आई, किस दाँव से कबरी पर वार किया जाए कि फिर जिंदा न बचे, यही पड़े-पड़े सोचती रही। सुबह हुई और वह देखती है कि क‍बरी देहरी पर बैठी बड़े प्रेम से उसे देख रही है।

रामू की बहू ने कुछ सोचा, इसके बाद मुस्‍कुराती हुई वह उठी। कबरी रामू की बहू के उठते ही खिसक गई। रामू की बहू एक कटोरा दूध कमरे के दवाजे की देहरी पर रखकर चली गई। हाथ में पाटा लेकर वह लौटी तो देखती है कि कबरी दूध पर जुटी हुई है। मौका हाथ में आ गया, सारा बल लगाकर पाटा उसने बिल्‍ली पर पटक दिया। कबरी न हिली, न डुली, न चीखी, न चिल्‍लाई, बस एकदम उलट गई।

आवाज जो हुई तो महरी झाड़ू छोड़कर, मिसरानी रसोई छोड़कर और सास पूजा छोड़कर घटनास्‍थल पर उपस्थित हो गईं। रामू की बहू सर झुकाए हुए अपराधिनी की भाँति बातें सुन रही है।

महरी बोली – “अरे राम! बिल्‍ली तो मर गई, माँजी, बिल्‍ली की हत्‍या बहू से हो गई, यह तो बुरा हुआ।”

मिसरानी बोली – “माँजी, बिल्‍ली की हत्‍या और आदमी की हत्‍या बराबर है, हम तो रसोई न बनावेंगी, जब तक बहू के सिर हत्‍या रहेगी।”

सासजी बोलीं – “हाँ, ठीक तो कहती हो, अब जब तक बहू के सर से हत्‍या न उतर जाए, तब तक न कोई पानी पी सकता है, न खाना खा सकता है। बहू, यह क्‍या कर डाला?”

महरी ने कहा – “फिर क्‍या हो, कहो तो पंडितजी को बुलाय लाई।”

सास की जान-में-जान आई – “अरे हाँ, जल्‍दी दौड़ के पंडितजी को बुला लो।”

बिल्‍ली की हत्‍या की खबर बिजली की तरह पड़ोस में फैल गई – पड़ोस की औरतों का रामू के घर ताँता बँध गया। चारों तरफ से प्रश्‍नों की बौछार और रामू की बहू सिर झुकाए बैठी।

पंडित परमसुख को जब यह खबर मिली, उस समय वे पूजा कर रहे थे। खबर पाते ही वे उठ पड़े – पंडिताइन से मुस्‍कुराते हुए बोले – “भोजन न बनाना, लाला घासीराम की पतोहू ने बिल्‍ली मार डाली, प्रायश्चित होगा, पकवानों पर हाथ लगेगा।”

पंडित परमसुख चौबे छोटे और मोटे से आदमी थे। लंबाई चार फीट दस इंच और तोंद का घेरा अट्ठावन इंच। चेहरा गोल-मटोल, मूँछ बड़ी-बड़ी, रंग गोरा, चोटी कमर तक पहुँचती हुई।

कहा जाता है कि मथुरा में जब पंसेरी खुराकवाले पंडितों को ढूँढ़ा जाता था, तो पंडित परमसुखजी को उस लिस्‍ट में प्रथम स्‍थान दिया जाता था।

पंडित परमसुख पहुँचे और कोरम पूरा हुआ। पंचायत बैठी – सासजी, मिसरानी, किसनू की माँ, छन्‍नू की दादी और पंडित परमसुख। बाकी स्त्रियाँ बहू से सहानुभूति प्रकट कर रही थीं।

किसनू की माँ ने कहा – “पंडितजी, बिल्‍ली की हत्‍या करने से कौन नरक मिलता है?” 

पंडित परमसुख ने पत्रा देखते हुए कहा – “बिल्‍ली की हत्‍या अकेले से तो नरक का नाम नहीं बतलाया जा सकता, वह महूरत भी मालूम हो, जब बिल्‍ली की हत्‍या हुई, तब नरक का पता लग सकता है।”

“यही कोई सात बजे सुबह” – मिसरानीजी ने कहा।

पंडित परमसुख ने पत्रे के पन्‍ने उलटे, अक्षरों पर उँगलियाँ चलाईं, माथे पर हाथ लगाया और कुछ सोचा। चेहरे पर धुँधलापन आया, माथे पर बल पड़े, नाक कुछ सिकुड़ी और स्‍वर गंभीर हो गया – “हरे कृष्‍ण! हे कृष्‍ण! बड़ा बुरा हुआ, प्रातःकाल ब्रह्म-मुहूर्त में बिल्‍ली की हत्‍या! घोर कुंभीपाक नरक का विधान है! रामू की माँ, यह तो बड़ा बुरा हुआ।”

रामू की माँ की आँखों में आँसू आ गए – “तो फिर पंडितजी, अब क्‍या होगा, आप ही बतलाएँ!”

पंडित परमसुख मुस्‍कुराए – “रामू की माँ, चिंता की कौन सी बात है, हम पुरोहित फिर कौन दिन के लिए हैं? शास्‍त्रों में प्रायश्चित का विधान है, सो प्रायश्चित से सब कुछ ठीक हो जाएगा।”

रामू की माँ ने कहा – पंडितजी, इसीलिए तो आपको बुलवाया था, अब आगे बतलाओ कि क्‍या किया जाए!”

“किया क्‍या जाए, यही एक सोने की बिल्‍ली बनवाकर बहू से दान करवा दी जाय। जब तक बिल्‍ली न दे दी जाएगी, तब तक तो घर अपवित्र रहेगा। बिल्‍ली दान देने के बाद इक्‍कीस दिन का पाठ हो जाए।”

छन्‍नू की दादी बोली – “हाँ और क्‍या, पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्‍ली अभी दान दे दी जाय और पाठ फिर हो जाय।”

रामू की माँ ने कहा – “तो पंडितजी, कितने तोले की बिल्‍ली बनवाई जाए?”

पंडित परमसुख मुस्‍कुराए, अपनी तोंद पर हाथ फेरते हुए उन्‍होंने कहा – “बिल्‍ली कितने तोले की बनवाई जाए? अरे रामू की माँ, शास्‍त्रों में तो लिखा है कि बिल्‍ली के वजन-भर सोने की बिल्‍ली बनवाई जाय; लेकिन अब कलियुग आ गया है, धर्म-कर्म का नाश हो गया है, श्रद्धा नहीं रही। सो रामू की माँ, बिल्‍ली के तौल-भर की बिल्‍ली तो क्‍या बनेगी, क्‍योंकि बिल्‍ली बीस-इक्‍कीस सेर से कम की क्‍या होगी। हाँ, कम-से-कम इक्‍कीस तोले की बिल्‍ली बनवा के दान करवा दो, और आगे तो अपनी-अपनी श्रद्धा!”

रामू की माँ ने आँखें फाड़कर पंडित परमसुख को देखा – “अरे बाप रे, इक्‍कीस तोला सोना! पंडितजी यह तो बहुत है, तोला-भर की बिल्‍ली से काम न निकलेगा?”

पंडित परमसुख हँस पड़े – “रामू की माँ! एक तोला सोने की बिल्‍ली! अरे रुपया का लोभ बहू से बढ़ गया? बहू के सिर बड़ा पाप है, इसमें इतना लोभ ठीक नहीं!”

मोल-तोल शुरू हुआ और मामला ग्‍यारह तोले की बिल्‍ली पर ठीक हो गया।

इसके बाद पूजा-पाठ की बात आई। पंडित परमसुख ने कहा – “उसमें क्‍या मुश्किल है, हम लोग किस दिन के लिए हैं, रामू की माँ, मैं पाठ कर दिया करुँगा, पूजा की सामग्री आप हमारे घर भिजवा देना।”

“पूजा का सामान कितना लगेगा?”

“अरे, कम-से-कम में हम पूजा कर देंगे, दान के लिए करीब दस मन गेहूँ, एक मन चावल, एक मन दाल, मन-भर तिल, पाँच मन जौ और पाँच मन चना, चार पसेरी घी और मन-भर नमक भी लगेगा। बस, इतने से काम चल जाएगा।”

“अरे बाप रे, इतना सामान! पंडितजी इसमें तो सौ-डेढ़ सौ रुपया खर्च हो जाएगा” – रामू की माँ ने रुआँसी होकर कहा।

“फिर इससे कम में तो काम न चलेगा। बिल्‍ली की हत्‍या कितना बड़ा पाप है, रामू की माँ! खर्च को देखते वक्‍त पहले बहू के पाप को तो देख लो! यह तो प्रायश्चित है, कोई हँसी-खेल थोड़े ही है – और जैसी जिसकी मरजादा! प्रायश्चित में उसे वैसा खर्च भी करना पड़ता है। आप लोग कोई ऐसे-वैसे थोड़े हैं, अरे सौ-डेढ़ सौ रुपया आप लोगों के हाथ का मैल है।”

पंडि़त परमसुख की बात से पंच प्रभावित हुए, किसनू की माँ ने कहा – “पंडितजी ठीक तो कहते हैं, बिल्‍ली की हत्‍या कोई ऐसा-वैसा पाप तो है नहीं – बड़े पाप के लिए बड़ा खर्च भी चाहिए।”

छन्‍नू की दादी ने कहा – “और नहीं तो क्‍या, दान-पुन्‍न से ही पाप कटते हैं – दान-पुन्‍न में किफायत ठीक नहीं।”

मिसरानी ने कहा – “और फिर माँजी आप लोग बड़े आदमी ठहरे। इतना खर्च कौन आप लोगों को अखरेगा।”

रामू की माँ ने अपने चारों ओर देखा – सभी पंच पंडितजी के साथ। पंडित परमसुख मुस्‍कुरा रहे थे। उन्‍होंने कहा – “रामू की माँ! एक तरफ तो बहू के लिए कुंभीपाक नरक है और दूसरी तरफ तुम्‍हारे जिम्‍मे थोड़ा-सा खर्चा है। सो उससे मुँह न मोड़ो।”

एक ठंडी साँस लेते हुए रामू की माँ ने कहा – “अब तो जो नाच नचाओगे नाचना ही पड़ेगा।”

पंडित परमसुख जरा कुछ बिगड़कर बोले – “रामू की माँ! यह तो खुशी की बात है – अगर तुम्‍हें यह अखरता है तो न करो, मैं चला” – इतना कहकर पंडितजी ने पोथी-पत्रा बटोरा।

“अरे पंडितजी – रामू की माँ को कुछ नहीं अखरता – बेचारी को कितना दुख है -बिगड़ो न!” – मिसरानी, छन्‍नू की दादी और किसनू की माँ ने एक स्‍वर में कहा।

रामू की माँ ने पंडितजी के पैर पकड़े – और पंडितजी ने अब जमकर आसन जमाया।

“और क्‍या हो?”

“इक्‍कीस दिन के पाठ के इक्‍कीस रुपए और इक्‍कीस दिन तक दोनों बखत पाँच-पाँच ब्राह्मणों को भोजन करवाना पड़ेगा,” कुछ रुककर पंडित परमसुख ने कहा – “सो इसकी चिंता न करो, मैं अकेले दोनों समय भोजन कर लूँगा और मेरे अकेले भोजन करने से पाँच ब्राह्मण के भोजन का फल मिल जाएगा।”

यह तो पंडितजी ठीक कहते हैं, पंडितजी की तोंद तो देखो!” मिसरानी ने मुस्‍कुराते हुए पंडितजी पर व्‍यंग्‍य किया।

“अच्‍छा तो फिर प्रायश्चित का प्रबंध करवाओ, रामू की माँ ग्‍यारह तोला सोना निकालो, मैं उसकी बिल्‍ली बनवा लाऊँ – दो घंटे में मैं बनवाकर लौटूँगा, तब तक सब पूजा का प्रबंध कर रखो – और देखो पूजा के लिए…”

पंडितजी की बात खतम भी न हुई थी कि महरी हाँफती हुई कमरे में घुस आई और सब लोग चौंक उठे। रामू की माँ ने घबराकर कहा – “अरी क्‍या हुआ री?”

महरी ने लड़खड़ाते स्‍वर में कहा – “माँजी, बिल्‍ली तो उठकर भाग गई!”

 

– भगवतीचरण वर्मा

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विलासी कहानी / sharatchand story

 नमस्कार दोस्तों आज हम आपके लिए sharatchand story विलाशी ले कर आये है। sharatchand जी की ये famous story आपको काफी पसंद आएगी।

पक्का दो कोस रास्ता पैदल चलकर स्कूल में पढ़ने जाया करता हूँ। मैं अकेला नहीं हूँ, दस-बारह जने हैं। जिनके घर देहात में हैं, उनके लड़कों को अस्सी प्रतिशत इसी प्रकार विद्या-लाभ करना पड़ता है। अत: लाभ के अंकों में अन्त तक बिल्कुल शून्य न पड़ने पर भी जो पड़ता है, उसका हिसाब लगाने के लिए इन कुछेक बातों पर विचार कर लेना काफी होगा कि जिन लड़कों को सबेरे आठ बजे के भीतर ही बाहर निकल कर आने-जाने में चार कोस का रास्ता तय करना पड़ता है, चार कोस के माने आठ मील नहीं, उससे भी बहुत अधिक। बरसात के दिनों में सिर पर बादलों का पानी और पाँवों के नीचे घुटनों तक कीचड़ के बदले धूप के समुद्र में तैरते हुए स्कूल और घर आना-जाना पड़ता है, उन अभागे बालकों को माँ-सरस्वती प्रसन्न होकर वर दें कि उनके कष्टों को देखकर वे कहीं अपना मुँह दिखाने की बात भी नहीं सोच पातीं।

 



तदुपरान्त यह कृतविद्य बालकों का दल बड़ा होकर एक दिन गांव में ही बैठे या भूख की आग बुझाने के लिए कहीं अन्यत्र चला जाय, उनके चार कोस तक पैदल आने जाने की विद्या का तेज आत्म-प्रकाश करेगा-ही-करेगा। कोई-कोई को कहते सुना है, ‘अच्छा, जिन्हें भूख की आग है, उनकी बात भले ही छोड़ दी जाय, परन्तु जिन्हें वह आग नहीं है, वैसे सब भले आदमी किस (जाने किस गाँव के लड़के की डायरी से उद्धृत। उनका असली नाम जानने की किसी को आवश्यकता नहीं, निषेध भी है। चालू नाम तो रख लीजिये- न्याड़ा -जिसके केश मुड़े हों।)

सुख के लिए गाँव छोड़कर जाते हैं ? उनके रहने पर तो गाँव की ऐसी दुर्दशा नहीं होती।’

मलेरिया की बात नहीं छेड़ता। उसे रहने दो, परन्तु इन चार कोस तक पैदल चलने की आग में कितने भद्र लोग बाल-बच्चों को लेकर गाँव छोड़कर शहर चले गए हैं, उनकी कोई संख्या नहीं है। इसके बाद एक दिन बाल-बच्चों का पढ़ना-लिखना भी समाप्त हो जाता है, तब फिर शहर की सुख सुविधा में रुचि लेकर वे लोग गाँव में लौटकर नहीं आ पाते !

परन्तु रहने दो इन सब व्यर्थ बातों को। स्कूल जाता हूँ- दो कोस के बीच ऐसे ही दो-तीन गाँव पार करने पड़ते हैं। किसके बाग में आम पकने शुरू हुये हैं, किस जंगल में करौंदे काफी लगे हैं, किसके पेड़ पर कटहल पकने को हैं, किसके अमृतवान केले की गहर करने वाली ही है, किसके घर के सामने वाली झाड़ी में अनन्नास का फल रंग बदल रहा है, किसकी पोखर के किनारे वाले खजूर के पेड़ से खजूर तोड़कर खाने से पकड़े जाने की संभावना कम है, इन सब खबरों को लेने में समय चला जाता है, परन्तु जो वास्तविक विद्या है, कमस्फट्का की राजधानी का क्या नाम है एवं साइबेरिया की खान में चाँदी मिलती है या सोना मिलता है-यह सब आवश्यक तथ्य जानने का तनिक भी फुरसत नहीं मिलती।

इसीलिए इम्तहान के समय ‘एडिन क्या है’ पूछे जाने पर कहता ‘पर्शिया का बन्दर’ और हुमायूँ के पिता का नाम पूछे जाने पर लिख आया तुगलक खाँ-एवं आज चालीस का कोठा पार हो जाने पर भी देखता हूँ, उन सब विषयों में धारणा प्राय: वैसी ही बनी हुई है-तदुपरान्त प्रमोशन के दिन मुँह लटकाकर घर लौट आता और कभी दल बाँधकर मास्टर को ठीक करने की सोचता, और कभी सोचता, ऐसे वाहियात स्कूल को छोड़ देना ही ठीक है

हमारे गाँव के एक लड़के के साथ बीच-बीच में स्कूल मार्ग पर भेंट हो जाया करती थी। उसका नाम था मृत्युन्जय। मेरी अपेक्षा वह बहुत बड़ा था। तीसरी क्लास में पढ़ता था। कब वह पहले-पहल तीसरी क्लास में चढ़ा, यह बात हममें से कोई नहीं जानता था-सम्भवत:वह पुरातत्वविदों की गवेषणा का विषय था, परन्तु हम लोग उसे इस तीसरे क्लास में ही बहुत दिनों से देखते आ रहे थे। उसके चौथे दर्जे में पढ़ने का इतिहास भी कभी नहीं सुना था, दूसरे दर्जे से चढ़ने की खबर भी कभी नहीं मिली थी। मृत्युन्जय के माता-पिता, भाई-बहिन कोई नहीं थे, था केवल गाँव के एक ओर एक बहुत बड़ा आम-कटहल का बगीचा और उसके बीच एक बहुत बड़ा खण्डहर-सा मकान, और थे एक दूसरे के रिस्ते के चाचा। चाचा का काम था भतीजे को अनेकों प्रकार से बदनामी करते रहना, ‘वह गाँजा पीता है’ ऐसे ही और भी क्या-क्या ! उनका एक और काम था यह कहते फिरना, ‘इस बगीचे का आधा हिस्सा उनका है, नालिश करके दखल करने भर की देर है।’ उन्होंने एक दिन दखल भी अवश्य पा लिया, परन्तु वह जिले की अदालत में नालिश करके ही, ऊपर की अदालत के हुक्म से। परन्तु वह बात पीछे होगी।

मृत्युन्जय स्वयं ही पका कर खाता एवं आमों की फसल में आम का बगीचा किसी को उठा देने पर उसका सालभर खाने-पहिनने का काम चल जाता, और अच्छी तरह ही चल जाता। जिस दिन मुलाकात हुई, उसी दिन देखा, वह छिन्न-भिन्न मैली किताबों को बगल में दबाये रास्ते के किनारे चुप-चाप चल रहा है। उसे कभी किसी के साथ अपनी ओर से बातचीत करते नहीं देखा-अपितु अपनी ओर से बात स्वयं हमीं लोग करते। उसका प्रधान कारण था कि दूकान से खाने-पीने की चीजें खरीदकर खिलाने वाला गाँव में उस जैसा कोई नहीं था। और केवल लड़के ही नहीं ! कितने ही लड़कों के बाप कितनी ही बार गुप्त रूप से अपने लड़कों को भेजकर उसके पास ‘स्कूल की फीस खो गई है’ पुस्तक चोरी चली गई’ इत्यादि कहलवा कर रुपये मँगवा लेते, इसे कहा नहीं जा सकता। परन्तु ऋण स्वीकार करने की बात तो दूर रही, उसके लड़के ने कोई बात भी की है, यह बात भी कोई बाप भद्र-समाज में कबूल नहीं करना चाहता-गाँव भर में मृत्युन्जय का ऐसा ही सुनाम था।

बहुत दिनों से मृत्युन्जय से भेंट नही हुई। एक दिन सुनाई पड़ा, वह मराऊ रक्खा है। फिर एक दिन सुना गया, मालपाड़े के एक बुड्ढ़े ने उसका इलाज करके एवं उसकी लड़की विलासी ने सेवा करके मृत्युन्जय को यमराज केमाल मुँह में जाने से बचा लिया है।

बहुत दिनों तक मैंने उसकी बहुत-सी मिठाई का सदुपयोग किया था-मन न जाने कैसा होने लगा, एक दिन शाम के अँधेरे में छिपकर उसे देखने गया- उसके खण्डर-से मकान में दीवालों की बला नहीं है। स्वच्छन्दता से भीतर

माल- बंगाल की एक जाति जो साँप के काटे का इलाज करती है।

घुसकर देखा, घर का दरवाजा खुला है, एक बहुत तेज दीपक जल रहा है, और ठीक सामने ही तख्त के ऊपर धुले-उजले बिछौने पर मृत्युन्जय सो रहा है। उसके कंकाल जैसे शरीर को देखते ही समझ में आ गया, सचमुच ही यमराज ने प्रयत्न करने में कोई कमी नहीं रक्खी, तो भी वह अन्त तक सुविधापूर्वक उठा नहीं सका, केवल उसी लड़की के जोर से। वह सिरहाने बैठी पंखे से हवा झल रही थी। अचानक मनुष्य को देख चौंककर उठ खड़ी हुई। यह उसी बुड्ढ़े सपेरे की लड़की विलासी है। उसकी आयु अट्ठारह की है या अट्ठाईस की-सो ठीक निश्चित नहीं कर सका, परन्तु मुँह की ओर देखने भर से खूब समझ गया, आयु चाहे जो हो, मेहनत करते-करते और रात-रात भर जागते रहने से इसके शरीर में अब कुछ नहीं रहा है। ठीक जैसे फूलदानी में पानी देकर भिगो रक्खे गये बासी फूल की भाँति हाथ का थोड़ा-सा स्पर्श लगते ही, थोड़ा-सा हिलाते-डुलाते ही झड़ पड़ेगा।

मृत्युन्जय मुझे पहिचानते हुये बोला- ‘कौन न्याड़ा ?’

बोला- ‘हाँ।’

मृत्युन्जय ने कहा- ‘बैठो।’

लड़की गर्दन झुकाए खड़ी रही। मृत्युन्जय ने दो-चार बातों में जो कहा, उसका सार यह था कि उसे खाट पर पड़े डेढ़ महीना हो चला है। बीच में दस-पन्द्रह दिन वह अज्ञान-अचैतन्य अवस्था में पड़ा रहा, अब कुछ दिन हुए वह आदमियों को पहिचानने लगा है, यद्यपि अभी तक वह बिछौना छोड़कर उठ नहीं सकता, परन्तु अब कोई डर की बात नहीं है।

अपरिचिता कहानी /ravindranath tangore

हम आपके लिए  ravindranath tangore ki प्रसिद्ध कहानी अपरिचिता ले कर आये हैं। उम्मीद है कि ये story आपको पसंद आएगी।

Ravindranath tagore story

 

आज मेरी आयु केवल सत्ताईस साल की है। यह जीवन न दीर्घता के हिसाब से बड़ा है, न गुण के हिसाब से। तो भी इसका एक विशेष मूल्य है। यह उस फूल के समान है जिसके वक्ष पर भ्रमर आ बैठा हो और उसी पदक्षेप के इतिहास ने उसके जीवन के फल में गुठली का-सा रूप धारण कर लिया हो।

 

वह इतिहास आकार में छोटा है, उसे छोटा करके ही लिखूंगा। जो छोटे को साधारण समझने की भूल नहीं करेंगे वे इसका रस समझेंगे।

कॉलेज में पास करने के लिए जितनी परीक्षाएं थीं सब मैंने खत्म कर ली हैं। बचपन में मेरे सुंदर चेहरे को लेकर पंडितजी को सेमल के फूल तथा माकाल फल (बाहर से देखने में सुंदर तथा भीतर से दुर्गंधयुक्त और अखाद्य गुदे वाला एक फल) के साथ मेरी तुलना करके हंसी उड़ाने का मौका मिला था। तब मुझे इससे बड़ी लज्जा लगती थी; किंतु बड़े होने पर सोचता रहा हूं कि यदि पुनर्जन्म हो तो मेरे मुख पर सुरूप और पंडितजी के मुख पर विद्रूप इसी प्रकार प्रकट हो। एक दिन था जब मेरे पिता गरीब थे। वकालत करके उन्होंने बहुत-सा रुपया कमाया, भोग करने का उन्हें पल-भर भी समय नहीं मिला। मृत्यु के समय उन्होंने जो लंबी सांस ली थी वही उनका पहला अवकाश था।

उस समय मेरी अवस्था कम थी। मां के ही हाथों मेरा लालन-पालन हुआ। मां गरीब घर की बेटी थीं; अत: हम धनी थे यह बात न तो वे भूलतीं, और न मुझे भूलने देतीं बचपन में मैं सदा गोद में ही रहा, शायद इसीलिए मैं अंत तक पूरी तौर पर वयस्क ही नहीं हुआ। आज ही मुझे देखने पर लगेगा जैसे मैं अन्नपूर्णा की गोद में गजानन का छोटा भाई होऊं।

मेरे असली अभिभावक थे मेरे मामा। वे मुझसे मुश्किल से छ: वर्ष बड़े होंगे। किंतु, फल्गु की रेती की तरह उन्होंने हमारे सारे परिवार को अपने हृदय में सोख लिया था। उन्हें खोदे बिना इस परिवार का एक भी बूंद रस पाने का कोई उपाय नहीं। इसी कारण मुझे किसी भी वस्तु के लिए कोई चिंता नहीं करनी पड़ती।

हर कन्या के पिता स्वीकार करेंगे कि मैं सत्पात्र हूं। हुक्का तक नहीं पीता। भला आदमी होने में कोई झंझट नहीं है, अत: मैं नितांत भलामानस हूं। माता का आदेश मानकर चलने की क्षमता मुझमें है- वस्तुत: न मानने की क्षमता मुझमें नहीं है। मैं अपने को अंत:पुर के शासनानुसार चलने के योग्य ही बना सका हूं, यदि कोई कन्या स्वयंवरा हो तो इन सुलक्षणों को याद रखे।

बड़े-बड़े घरों से मेरे विवाह के प्रस्ताव आए थे। किंतु मेरे मामा का, जो धरती पर मेरे भाग्य देवता के प्रधान एजेंट थे, विवाह के संबंध में एक विशेष मत था। अमीर की कन्या उन्हें पसंद न थी। हमारे घर जो लड़की आए वह सिर झुकाए हुए आए, वे यही चाहते थे। फिर भी रुपये के प्रति उनकी नस-नस में आसक्ति समाई हुई थी। वे ऐसा समधी चाहते थे जिसके पास धन तो न हो, पर जो धन देने में त्रुटि न करे। जिसका शोषण तो कर लिया जाए, पर जिसे घर आने पर गुड़गुड़ी के बदले बंधे हुक्के में(गुड़गुड़ी हुक्का अधिक सम्मान-सूचक समझा जाता है, बंधा हुक्का मामूली हुक्का होता है।)तंबाकू देने पर जिसकी शिकायत न सुननी पड़े।

मेरा मित्र हरीश कानपुर में काम करता था। छुट्टियों में उसने कलकत्ता आकर मेरा मन चंचल कर दिया। बोला, सुनो जी, अगर लड़की की बात हो तो एक अच्छी-खासी लड़की है।

कुछ दिन पहले ही एम.ए. पास किया था। सामने जितनी दूर तक दृष्टि जाती, छुट्टी धू-धू कर रही थी; परीक्षा नहीं है, उम्मीदवारी नहीं, नौकरी नहीं; अपनी जायदाद देखने की चिंता भी नहीं, शिक्षा भी नहीं, इच्छा भी नहीं- होने में भीतर मां थीं और बाहर मामा।

इस अवकाश की मरुभूमि में मेरा हृदय उस समय विश्वव्यापी नारी-रूप की मरीचिका देख रहा था- आकाश में उसकी दृष्टि थी, वायु में उसका निश्वास, तरु-मर्मर में उसकी रहस्यमयी बातें।

ऐसे में ही हरीश आकर बोला, अगर लड़की की बात हो तो। मेरा तन मन वसंत वायु से दोलायित बकुल वन की नवपल्लव-राशि की भांति धूप-छांह का पट बुनने लगा। हरीश आदमी था रसिक, रस उंडेलकर वर्णन करने की उसमें शक्ति थी, और मेरा मन था तृर्षात्त।

मैंने हरीश से कहा, एक बार मामा से बात चलाकर देखो!

बैठक जमाने में हरीश अद्वितीय था। इससे सर्वत्र उसकी खातिर होती थी।

मामा भी उसे पाकर छोड़ना नहीं चाहते थे। बात उनकी बैठक में चली। लड़की की अपेक्षा लड़की के पिता की जानकारी ही उनके लिए महत्वपूर्ण थी। पिता की अवस्था वे जैसी चाहते थे वैसी ही थी। किसी जमाने में उनके वंश में

लक्ष्मी का मंगल घट भरा रहता था। इस समय उसे शून्य ही समझो, फिर भी तले में थोड़ा-बहुत बाकी था। अपने प्रांत में वंश-मर्यादा की रक्षा करके चलना सहज न समझकर वे पश्चिम में जाकर वास कर रहे थे। वहां गरीब गृहस्थ की ही भांति रहते थे। एक लड़की को छोड़कर उनके और कोई नहीं था। अतएव उसी के पीछे लक्ष्मी के घट को एकदम औंधा कर देने में हिचकिचाहट नहीं होगी।

यह सब तो सुंदर था। किंतु, लड़की की आयु पंद्रह की है यह सुनकर मामा का मन भारी हो गया। वंश में तो कोई दोष नहीं है? नहीं, कोई दोष नहीं- पिता अपनी कन्या के योग्य वर कहीं भी न खोज पाए। एक तो वर की हाट में मंहगाई थी, तिस पर धनुष-भंग की शर्त, अत: बाप सब्र किए बैठे हैं,-किंतु कन्या की आयु सब्र नहीं करती।

जो हो, हरीश की सरस रचना में गुण था मामा का मन नरम पड़ गया। विवाह का भूमिका-भाग निर्विघ्न पूरा हो गया। कलकत्ता के बाहर बाकी जितनी दुनिया है, सबको मामा अंडमान द्वीप के अंतर्गत ही समझते थे। जीवन में एकबार विशेष काम से वे कोन्नगर तक गए थे। मामा यदि मनु होते तो वे अपनी संहिता में हावड़ा के पुल को पार करने का एकदम निषेध कर देते। मन में इच्छा थी, खुद जाकर लड़की देख आऊं। पर प्रस्ताव करने का साहस न कर सका।

कन्या को आशीर्वाद देने (बंगालियों में विवाह पक्का करने के लिए एक रस्म होती है- जिसमें वर-पक्ष के लोग कन्या को और कन्या-पक्ष के लोग वर को आशीर्वाद देकर कोई आभूषण दे जाते हैं।) जिनको भेजा गया वे हमारे विनु दादा थे, मेरे फुफेरे भाई। उनके मत, रुचि एवं दक्षता पर मैं सोलह आने निर्भर कर सकता था। लौटकर विनु दादा ने कहा, बुरी नहीं है जी! असली सोना है।

विनु दादा की भाषा अत्यंत संयत थी। जहां हम कहते थे ‘अपूर्व’, वहां वे कहते ‘कामचलाऊ’। अतएव मैं समझा, मेरे भाग्य में पंचशर का प्रजापति से कोई विरोध नहीं है।

2

कहना व्यर्थ है, विवाह के उपलक्ष्य में कन्या पक्ष को ही कलकत्ता आना पड़ा। कन्या के पिता शंभूनाथ बाबू हरीश पर कितना विश्वास करते थे, इसका प्रमाण यह था कि विवाह के तीन दिन पहले उन्होंने मुझे पहली बार देखा और आशीर्वाद की रस्म पूरी कर गए। उनकी अवस्था चालीस के ही आस-पास होगी। बाल काले थे, मूंछों का पकना अभी प्रारंभ ही हुआ था। रूपवान थे, भीड़ में देखने पर सबसे पहले उन्हीं पर नजर पड़ने लायक उनका चेहरा था।

आशा करता हूं कि मुझे देखकर वे खुश हुए। समझना कठिन था, क्योंकि वे अल्पभाषी थे। जो एकाध बात कहते भी थे उसे मानो पूरा जोर देकर नहीं कहते थे। इस बीच मामा का मुंह अबाध गति से चल रहा था- धन में, मान में हमारा स्थान शहर में किसी से कम नहीं था, वे नाना प्रकार से इसी का प्रचार कर रहे थे। शंभूनाथ बाबू ने इस बात में बिल्कुल योग नहीं दिया- किसी भी प्रसंग में कोई ‘हां’ या ‘हूं’ तक नहीं सुनाई पड़ी। मैं होता तो निरुत्साहित हो जाता, किंतु मामा को हतोत्साहित करना कठिन था। उन्होंने शंभूनाथ बाबू का शांत स्वभाव देखकर सोचा कि आदमी बिल्कुल निर्जीव है, तनिक भी तेज नहीं। समधियों में और जो हो, तेज भाव होना पाप है, अतएव, मन-ही-मन मामा खुश हुए। शंभूनाथ बाबू जब उठे तो मामा ने संक्षेप में ऊपर से ही उनको विदा कर दिया, गाड़ी में बिठाने नहीं गए।

दहेज के संबंध में दोनों पक्षों में बात पक्की हो गई थी। मामा अपने को असाधारण चतुर समझकर गर्व करते थे। बातचीत में वे कहीं भी कोई छिद्र न छोड़ते। रुपये की संख्या तो निश्चित थी ही, ऊपर से गहना कितने भर एवं सोना किस दर का होगा, यह भी एकदम तय हो गया था। मैं स्वयं इन बातों में नहीं था; न जानता ही था कि क्या लेन-देन निश्चित हुआ है। मैं जानता था कि यह स्थूल भाग ही विवाह का एक प्रधान अंग है; एवं उस अंश का भार जिनके ऊपर है वे एक कौड़ी भी नहीं ठगाएंगे। वस्तुत: अत्यंत चतुर व्यक्ति के रूप में मामा हमारे सारे परिवार में गर्व की प्रधान वस्तु थे। जहां कहीं भी हमारा कोई संबंध हो पर्वत ही बुध्दि की लड़ाई में जीतेंगे, यह बिल्कुल पक्की बात थी। इसलिए हमारे यहां कभी न रहने पर भी एवं दूसरे पक्ष में कठिन अभाव होते हुए भी हम जीतेंगे, हमारे परिवार की जिद थी- इसमें चाहे कोई बचे या मरे।

हल्दी चढ़ाने की रस्म बड़ी धूमधाम से हुई। ढोने वाले इतने थे कि उनकी संख्या का हिसाब रखने के लिए क्लर्क रखना पड़ता। उनको विदा करने में अवर पक्ष का जो नाकों-दम होगा उसका स्मरण करके मामा के साथ स्वर मिलाकर मां खूब हंसी।

बैंड, शहनाई, फैंसी कंसर्ट आदि जहां जितने प्रकार की जोरदार आवाजें थीं, सबको एक साथ मिलाकर बर्बर कोलाहल रूपी मस्त हाथी द्वारा संगीत सरस्वती के पर्विंन को दलित-विदलित करता हुआ मैं विवाह के घर में जा पहुंचा। अंगूठी, हार, जरी, जवाहरात से मेरा शरीर ऐसा लग रहा था जैसे गहने की दुकान नीलाम पर चढ़ी हो। उनके भावी जमाता का मूल्य कितना था यह जैसे कुछ मात्रा में सर्वांग में स्पष्ट रूप से लिखकर भावी ससुर के साथ मुकाबला करने चला था।

मामा विवाह के घर पहुंचकर प्रसन्न नहीं हुए। एक तो आंगन में बरातियों कै बैठने के लायक जगह नहीं थी, तिस पर संपूर्ण आयोजन एकदम साधारण ढंग का था। ऊपर से शंभूनाथ बाबू का व्यवहार भी निहायत ठंडा था। उनकी विनय अजस्र नहीं थी। मुंह में शब्द ही न थे। बैठे गले, गंजी खोपड़ी, कृष्णवर्ण एवं स्थूल शरीर वाले उनके एक वकील मित्र यदि कमर में चादर बांधे, बराबर हाथ जोड़े, सिर हिलाते हुए, नम्रतापूर्ण स्मितहास्य और गद्गद वचनों से कंसर्ट पार्टी के करताल बजाने वाले से लेकर वरकर्ता तक प्रत्येक को बार-बार प्रचुर मात्रा में अभिषिक्त न कर देते तो शुरू में ही मामला इस पार या उस पार हो जाता।

मेरे सभा में बैठने के कुछ देर बाद ही मामा शंभूनाथ बाबू को बगल के कमरे में बुला ले गए। पता नहीं, क्या बातें हुईं। कुछ देर बाद ही शंभूनाथ बाबू ने आकर मुझसे कहा, लालाजी, जरा इधर तो आइए!’

मामला यह था- सभी का न हो, किंतु किसी-किसी मनुष्य का जीवन में कोई एक लक्ष्य रहता है। मामा का एकमात्र लक्ष्य था-वे किसी भी प्रकार किसी से ठगे नहीं जाएंगे। उन्हें डर था कि उनके समधी उन्हें गहनों में धोखा दे सकते हैं- विवाह-कार्य समाप्त हो जाने पर उस धोखे का कोई प्रतिकार न हो सकेगा। घर-किराया, सौगात, लोगों की विदाई आदि के विषय में जिस प्रकार की खींचातानी का परिचय मिला उससे मामा ने निश्चय किया था- लेने-देने के संबंध में इस आदमी की केवल जबानी बात पर निर्भर रहने से काम न चलेगा। इसी कारण घर के सुनार तक को साथ लाए थे। बगल के कमरे में जाकर देखा, मामा एक कुर्सी पर बैठे थे। एक सुनार अपनी तराजू, बाट और कसौटी आदि लिए जमीन पर।

शंभूनाथ बाबू ने मुझसे कहा, तुम्हारे मामा कहते हैं कि विवाह-कार्य शुरू होने के पहले ही वे कन्या के सारे गहने जंचवा देखेंगे, इसमें तुम्हारी क्या राय है?

मैं सिर नीचा किए चुप रहा।

मामा बोले, वह क्या कहेगा। मैं जो कहूंगा, वही होगा।

शंभूनाथ बाबू ने मेरी ओर देखकर कहा, तो फिर यही तय रहा? ये जो कहेंगे वही होगा? इस संबंध में तुम्हें कुछ नहीं कहना है?

मैंने जरा गर्दन हिलाकर इशारे से बताया, इन सब बातों में मेरा बिल्कुल भी अधिकार नहीं है।

अच्छा तो बैठो, लड़की के शरीर से सारा गहना उतारकर लाता हूं। यह कहते हुए वे उठे।

मामा बोले, अनुपम यहां क्या करेगा? वह सभा में जाकर बैठे।

शंभूनाथ बोले, नहीं, सभा में नहीं, यहीं बैठना होगा।

कुछ देर बाद उन्होंने एक अंगोछे में बंधे गहने लाकर चौकी के ऊपर बिछा दिए। सारे गहने उनकी पितामही के जमाने के थे, नए फैशन का बारीक काम न था- जैसा मोटा था वैसा ही भारी था।

सुनार ने हाथ में गहने उठाकर कहा, इन्हें क्या देखूं। इसमें कोई मिलावट नहीं है- ऐसे सोने का आजकल व्यवहार ही नहीं होता।

यह कहते हुए उसने मकर के मुंह वाला मोटा एक बाला कुछ दबाकर दिखाया, वह टेढ़ा हो जाता था।

मामा ने उसी समय नोट-बुक में गहनों की सूची बना ली- कहीं जो दिखाया गया था उसमें से कुछ कम न हो जाए। हिसाब करके देखा, गहना जिस मात्रा में देने की बात थी इनकी संख्या, दर एवं तोल उससे अधिक थी।

गहनों में एक जोड़ा इयरिंग था। शंभूनाथ ने उसको सुनार के हाथ में देकर कहा, जरा इसकी परीक्षा करके देखो!

सुनार ने कहा, यह विलायती माल है, इसमें सोने का हिस्सा मामूली ही है।

शंभू बाबू ने इयरिंग जोड़ी मामा के हाथ में देते हुए कहा, इसे आप ही रखें!

मामा ने उसे हाथ में लेकर देखा, यही इयरिंग कन्या को देकर उन्होंने आशीर्वाद की रस्म पूरी की थी।

मामा का चेहरा लाल हो उठा, दरिद्र उनको ठगना चाहेगा, किंतु वे ठगे नहीं जाएंगे इस आनंद-प्राप्ति से वंचित रह गए, एवं इसके अतिरिक्त कुछ ऊपरी प्राप्ति भी हुई। मुंह अत्यंत भारी करके बोले, अनुपम, जाओ तुम सभा में जाकर बैठो!

शंभूनाथ बाबू बोले, नहीं, अब सभा में बैठना नहीं होगा। चलिए, पहले आप लोगों को खिला दूं।

मामा बोले, यह क्या कह रहे हैं? लग्न

शंभूनाथ बाबू ने कहा, उसके लिए चिंता न करें- अभी उठिए!

आदमी निहायत भलामानस था, किंतु अंदर से कुछ ज्यादा हठी प्रतीत हुआ। मामा को उठना पड़ा। बरातियों का भी भोजन हो गया। आयोजन में आडंबर नहीं था। किंतु रसोई अच्छी बनी थी और सब-कुछ साफ-सुथरा। इससे सभी तृप्त हो गए।

बरातियों का भोजन समाप्त होने पर शंभूनाथ बाबू ने मुझसे खाने को कहा। मामा ने कहा, यह क्या कह रहे हैं? विवाह के पहले वर कैसे भोजन करेगा!

इस संबंध में वे मामा के व्यक्त किए मत की पूर्ण उपेक्षा करके मेरी ओर देखकर बोले, तुम क्या कहते हो? भोजन के लिए बैठने में कोई दोष है?

मूर्तिमती मातृ-आज्ञा-स्वरूप मामा उपस्थित थे, उनके विरुध्द चलना मेरे लिए असंभव था। मैं भोजन के लिए न बैठ सका।

तब शंभूनाथ बाबू ने मामा से कहा, आप लोगों को बहुत कष्ट दिया है। हम लोग धनी नहीं हैं। आप लोगों के योग्य व्यवस्था नहीं कर सके, क्षमा करेंगे। रात हो गई है, आप लोगों का कष्ट और नहीं बढ़ाना चाहता। तो फिर इस समय-

मामा बोले, तो, सभा में चलिए, हम तो तैयार हैं।

शंभूनाथ बोले, तब आपकी गाड़ी बुलवा दूं?

मामा ने आश्चर्य से कहा, मजाक कर रहे हैं क्या?

शंभूनाथ ने कहा, मजाक तो आप ही कर चुके हैं। मजाक के संपर्क को स्थायी करने की मेरी इच्छा नहीं है।

मामा दोनों आंखें विस्फारित किए अवाक् रह गए।

शंभूनाथ ने कहा, अपनी कन्या का गहना मैं चुरा लूंगा, जो यह बात सोचता है उसके हाथों मैं कन्या नहीं दे सकता।

मुझसे एक शब्द कहना भी उन्होंने आवश्यक नहीं समझा। कारण, प्रमाणित हो गया था, मैं कुछ भी नहीं था।

उसके बाद जो हुआ उसे कहने की इच्छा नहीं होती। झाड़-फानूस तोड़-फोड़कर चीज-वस्तु को नष्ट-भ्रष्ट करके बरातियों का दल दक्ष-यज्ञ का नाटक पूरा करके बाहर चला आया।

घर लौटने पर बैंड, शहनाई और कंसर्ट सब साथ नहीं बजे एवं अभ्रक के झाड़ों ने आकाश के तारों के ऊपर अपने कर्त्तव्य का निर्वाह करके कहां महानिर्वाण प्राप्त किया, पता नहीं चला।

3

घर के सब लोग क्रोध से आग-बबूला हो गए। कन्या के पिता को इतना घमंड कलियुग पूर्ण रूप से आ गया है!

सब बोले, देखें, लड़की का विवाह कैसे करते हैं। किंतु, लड़की का विवाह नहीं होगा, यह भय जिसके मन में न हो उसको दंड देने का क्या उपाय है?

बंगाल-भर में मैं ही एकमात्र पुरुष था जिसको स्वयं कन्या के पिता ने जनवासे से लौटा दिया था। इतने बड़े सत्पात्र के माथे पर कलंक का इतना बड़ा दाग किस दुष्ट ग्रह ने इतना प्रचार करके गाजे-बाजे से समारोह करके आंक दिया? बराती यह कहते हुए माथा पीटने लगे कि विवाह नहीं हुआ, लेकिन हमको धोखा देकर खिला दिया- संपूर्ण अन्न सहित पक्वाशय निकालकर वहां फेंक आते तो अफसोस मिटता।

‘विवाह के वचन-भंग का और मान-हानि का दावा करूंगा’ कहकर मामा घूम-घूमकर खूब शोर मचाने लगे। हितैषियों ने समझा दिया कि ऐसा करने से जो तमाशा बाकी रह गया है वह भी पूरा हो जाएगा।

कहना व्यर्थ है, मैं भी खूब क्रोधित हुआ था। ‘किसी प्रकार शंभूनाथ बुरी तरह हारकर मेरे पैरों पर आ गिरे,’ मूंछों की रेखा पर ताव देते-देते केवल यही कामना करने लगा।

किंतु, इस आक्रोश की काली धारा के समीप एक और स्रोत बह रहा था, जिसका रंग बिल्कुल भी काला नहीं था। संपूर्ण मन उस अपरिचित की ओर दौड़ गया। अभी तक उसे किसी भी प्रकार वापस नहीं मोड़ सका। दीवार की आड़ में रह गया। उसके माथे पर चंदन चर्चित था, देह पर लाल साड़ी, चेहरे पर लज्जा की ललाई, हृदय में क्या था यह कैसे कह सकता हूं! मेरे कल्पलोक की कल्पलता वसंत के समस्त फूलों का भार मुझे निवेदित कर देने के लिए झुक पड़ी थी। हवा आ रही थी, सुगंध मिल रही थी, पत्तों का शब्द सुन रहा था- केवल एक पग बढ़ाने की देर थी- इसी बीच वह पग-भर की दूरी क्षण-भर में असीम हो गई।

इतने दिन तक रोज शाम को मैंने विनु दादा के घर जाकर उनको परेशान कर डाला था। विनु दादा की वर्णन-शैली की अत्यंत सघन संक्षिप्तता के कारण उनकी प्रत्येक बात ने स्फुल्लिंग के समान मेरे मन में आग लगा दी थी। मैंने समझा था कि लड़की का रूप बड़ा अपूर्व था; किंतु न तो उसे आंखों देखा और न उसका चित्र, सब-कुछ अस्पष्ट रह गया। बाहर तो उसने पकड़ दी ही नहीं, उसे मन में भी न ला सका- इसी कारण भूत के समान दीर्घ निश्वास लेकर मन उस दिन की उस विवाह-सभा की दीवार के बाहर चक्कर काटने लगा।

हरीश से सुना, लड़की को मेरा फोटोग्राफ दिखाया गया था। पसंद अवश्य किया होगा। न करने का तो कोई कारण ही न था। मेरा मन कहता है, वह चित्र उसने किसी बक्स में छिपा रखा है। कमरे का दरवाजा बन्द करके अकेली किसी-किसी निर्जन दोपहरी में क्या वह उसे खोलकर न देखती होगी? जब झुककर देखती होगी तब चित्र के ऊपर क्या उसके मुख के दोनों ओर से खुले बाल आकर नहीं पड़ते होंगे? अकस्मात् बाहर किसी के पैर की आहट पाते ही क्या वह झट-पट अपने सुगंधित अंचल में चित्र को छिपा न लेती होगी?

दिन बीत जाते हैं। एक वर्ष बीत गया। मामा तो लज्जा के मारे विवाह संबंध की बात ही न छेड़ पाते। मां की इच्छा थी, मेरे अपमान की बात जब समाज के लोग भूल जाएंगे तब विवाह का प्रयत्न करेंगी।

दूसरी ओर मैंने सुना कि शायद उस लड़की को अच्छा वर मिल गया है, किंतु उसने प्रण किया है कि विवाह नहीं करेगी। सुनकर मन आनंद के आवेश से भर गया। मैं कल्पना में देखने लगा, वह अच्छी तरह खाती नहीं; संध्या हो जाती है, वह बाल बांधना भूल जाती है। उसके पिता उसके मुंह की ओर देखते हैं और सोचते हैं, ‘मेरी लड़की दिनोंदिन ऐसी क्यों होती जा रही है?’ अकस्मात् किसी दिन उसके कमरे में आकर देखते हैं, लड़की के नेत्र आंसुओं से भरे हैं। पूछते हैं, बेटी, तुझे क्या हो गया है, मुझे बता? लड़की झटपट आंसू पोंछकर कहती है, ‘कहां, कुछ भी तो नहीं हुआ, पिताजी!’ बाप की इकलौती लड़की है न- बड़ी लाड़ली लड़की है। अनावृष्टि के दिनों में फूल की कली के समान जब लड़की एकदम मुर्झा गई तो पिता के प्राण और अधिक सहन न कर सके। मान त्यागकर वे दौड़कर हमारे दरवाजे पर आए। उसके बाद? उसके बाद मन में जो काले रंग की धारा बह रही थी वह मानो काले सांप के समान रूप धरकर फुफकार उठी। उसने कहा, अच्छा है, फिर एक बार विवाह का साज सजाया जाए, रोशनी जले, देश-विदेश के लोगों को निमंत्रण दिया जाए, उसके बाद तुम वर के मौर को पैरों से कुचलकर दल-बल लेकर सभा से उठकर चले आओ! किंतु जो धारा अश्रु-जल के समान शुभ्र थी, वह राजहंस का रूप धारण करके बोली, जिस प्रकार मैं एक दिन दमयंती के पुष्पवन में गई थी मुझे उसी प्रकार एक बार उड़ जाने दो-मैं विरहिणी के कानों में एक बार सुख-संदेह दे आऊं। इसके बाद? उसके बाद दु:ख की रात बीत गई, नव वर्षा का जल बरसा, म्लान फूल ने मुंह उठाया- इस बार उस दीवार के बाहर सारी दुनिया के और सब लोग रह गए, केवल एक व्यक्ति के भीतर प्रवेश किया। फिर मेरी कहानी खत्म हो गई।

4

लेकिन कहानी ऐसे खत्म नहीं हुई। जहां पहुंचकर वह अनंत हो गई है वहां का थोड़ा-सा विवरण बताकर अपना यह लेख समाप्त करूंगा।

मां को लेकर तीर्थ करने जा रहा था। भार मेरे ही ऊपर था, क्योंकि मामा इस बार भी हावड़ा पुल के पार नहीं हुए। रेलगाड़ी में सो रहा था। झोंके खाते-खाते दिमाग में नाना प्रकार के बिखरे स्वप्नों का झुनझुना बज रहा था। अकस्मात् किसी एक स्टेशन पर जाग पड़ा, वह भी प्रकाश-अंधकार-मिश्रित एक स्वप्न था। केवल आकाश के तारागण चिरपरिचित थे- और सब अपरिचित अस्पष्ट था; स्टेशन की कई सीधी खड़ी बत्तियां प्रकाश द्वारा यह धरती कितनी अपरिचित है एवं जो चारों ओर है वह कितना अधिक दूर है, यही दिखा रही थीं। गाड़ी में मां सो रही थीं; बत्ती के नीचे हरा पर्दा टंगा था, ट्रंक, बक्स, सामान सब एक-दूसरे के ऊपर तितर-बितर पड़े थे। वह मानो स्वप्नलोक का उलटा-पुलटा सामान हो, जो संध्या की हरी बत्ती के टिमटिमाते प्रकाश में होने और न होने के बीच न जाने किस ढंग से पड़ा था।

इस बीच उस विचित्र जगत की अद्भुत रात में कोई बोल उठा, जल्दी आ जाओ, इस डिब्बे में जगह है।

लगा, जैसे गीत सुना हो। बंगाली लड़की के मुख से बंगला बोली कितनी मधुर लगती है इसका पूरा-पूरा अनुमान ऐसे अनुपयुक्त स्थान पर अचानक सुनकर ही किया जा सकता है। किंतु, इस स्वर को निरी एक लड़की का स्वर कहकर श्रेणी-भुक्त कर देने से काम नहीं चलेगा। यह किसी अन्य व्यक्ति का स्वर था, सुनते ही मन कह उठता है, ‘ऐसा तो पहले कभी नहीं सुना।’

गले का स्वर मेरे लिए सदा ही बड़ा सत्य रहा है। रूप भी कम बड़ी वस्तु नहीं है, किंतु मनुष्य में जो अंतरतम और अनिर्वचनीय है, मुझे लगता है, जैसे कंठ-स्वर उसी की आकृति हो। चटपट जंगला खोलकर मैंने मुंह बाहर निकाला, कुछ भी न दिखा। प्लेटफार्म पर अंधेरे में खड़े गार्ड ने अपनी एक आंख वाली लालटेन हिलाई, गाड़ी चल दी; मैं जंगले के पास बैठा रहा। मेरी आंखों के सामने कोई मूर्ति न थी, किंतु हृदय में मैं एक हृदय का रूप देखने लगा। वह जैसे इस तारामयी रात्रि के समान हो, जो आवृत कर लेती है, किंतु उसे पकड़ा नहीं जा सकता। जो स्वर! अपरिचित कंठ के स्वर! क्षण-भर में ही तुम मेरे चिरपरिचित के आसन पर आकर बैठ गए हो। तुम कैसे अद्भुत हो- चंचल काल के क्षुब्ध हृदय के ऊपर के फूल के समान खिले हों, किंतु उसकी लहरों के आंदोलन से कोई पंखुड़ी तक नहीं हिलती, अपरिमेय कोमलता में जरा भी दाग नहीं पड़ता।

गाड़ी लोहे के मृदंग पर ताल देती हुई चली। मैं मन-ही-मन गाना सुनता जा रहा था। उसकी एक ही टेक थी- ‘डिब्बे में जगह है।’ है क्या, जगह है क्या जगह मिले कैसे, कोई किसी को नहीं पहचानता। साथ ही यह न पहचानना- मात्र कोहरा है, माया है, उसके छिन्न होते ही फिर परिचय का अंत नहीं होता। ओ सुधामय स्वर! जिस हृदय के तुम अद्भुत रूप हो, वह क्या मेरा चिर-परिचित नहीं है? जगह है, है, जल्दी बुलाया था, जल्दी ही आया हूं, क्षण-भर भी देर नहीं की है।

रात में ठीक से नींद नहीं आई। प्राय: हर स्टेशन पर एक बार मुंह निकालकर देखता, भय होने लगा कि जिसको देख नहीं पाया वह कहीं रात में ही न उतर जाए।

दूसरे दिन सुबह एक बड़े स्टेशन पर गाड़ी बदलनी थी हमारे टिकिट फर्स्ट क्लास के थे- आशा थी, भीड़ नहीं होगी। उतरकर देखा, प्लेटफार्म पर साहबों के अर्दलियों का दल सामान लिए गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहा है। फौज के कोई एक बड़े जनरल साहब भ्रमण के लिए निकले थे। दो-तीन मिनिट के बाद ही गाड़ी आ गई। समझा, फर्स्ट क्लास की आशा छोड़नी पड़ेगी। मां को लेकर किस डब्बे में चढ लूं, इस बारे में बड़ी चिंता में पड़ गया। पूरी गाड़ी में भीड़ थी। दरवाजे-दरवाजे झांकता हुआ घूमने लगा। इसी बीच सैकंड क्लास के डिब्बे से एक लड़की ने मेरी मां को लक्ष्य करके कहा, आप हमारे डिब्बे में आइए न, यहां जगह है।

मैं तो चौंक पड़ा। वही अद्भुत मधुर स्वर और वही गीत की टेक ‘जगह है’ क्षण-भर की भी देर न करके मां को लेकर डिब्बे में चढ़ गया। सामान चढ़ाने का समय प्राय: नहीं था। मेरे-जैसा असमर्थ दुनिया में कोई न होगा। उस लड़की ने ही कुलियों के हाथ से झटपट चलती गाड़ी में हमारे बिस्तरादि खींच लिए। फोटो खींचने का मेरा एक कैमरा स्टेशन पर ही छूट गया- ध्यान ही न रहा।

उसके बाद- क्या लिखूं, नहीं जानता। मेरे मन में एक अखंड आनंद की तस्वीर है- उसे कहां से शुरू करूं, कहां समाप्त करूं? बैठे-बैठे एक वाक्य के बाद दूसरे वाक्य की योजना करने की इच्छा नहीं होती।

इस बार उसी स्वर को आंखों से देखा। इस समय भी वह स्वर ही जान पड़ा। मां के मुंह की ओर ताका; देखा कि उनकी आंखों के पलक नहीं गिर रहे थे। लड़की की अवस्था सोलह या सत्रह की होगी, किंतु नवयौवन ने उसके देह, मन पर कहीं भी जैसे जरा भी भार न डाला हो। उसकी गति सहज, दीप्ति निर्मल, सौंदर्य की शुचिता अपूर्व थी, उसमें कहीं कोई जड़ता न थी।

मैं देख रहा हूं, विस्तार से कुछ भी कहना मेरे लिए असंभव है। यही नहीं, वह किस रंग की साड़ी किस प्रकार पहने हुए थी, यह भी ठीक से नहीं कह सकता। यह बिल्कुल सत्य है कि उसकी वेश-भूषा में ऐसा कुछ न था जो उसे छोड़कर विशेष रूप से आंखों को आकर्षित करे। वह अपने चारों ओर की चीजों से बढ़कर थी- रजनीगंधा की शुभ्र मंजरी के समान सरल वृंत के ऊपर स्थित, जिस वृक्ष पर खिली थी उसका एकदम अतिक्रमण कर गई थी। साथ में दो-तीन छोटी-छोटी लड़कियां थीं, उनके साथ उसकी हंसी और बातचीत का अंत न था। मैं हाथ में एक पुस्तक लिए उस ओर कान लगाए था। जो कुछ कान में पड़ रहा था वह सब तो बच्चों के साथ बचपने की बातें थीं। उसका विशेषत्व यह था कि उसमें अवस्था का अंतर बिल्कुल भी नहीं था- छोटों के साथ वह अनायास और आनंदपूर्वक छोटी हो गई थी। साथ में बच्चों की कहानियों की सचित्र पुस्तकें थीं- उसी की कोई कहानी सुनाने के लिए लड़कियों ने उसे घेर लिया था, यह कहानी अवश्य ही उन्होंने बीस-पच्चीस बार सुनी होगी। लड़कियों का इतना आग्रह क्यों था यह मैं समझ गया। उस सुधा-कंठ की सोने की छड़ी से सारी कहानी सोना हो जाती थी। लड़की का संपूर्ण तन-मन पूरी तरह प्राणों से भरा था, उसकी सारी चाल-ढाल-स्पर्श में प्राण उमड़ रहा था। अत: लड़कियां जब उसके मुंह से कहानी सुनतीं तब कहानी नहीं, उसी को सुनतीं; उनके हृदय पर प्राणों का झरना झर पड़ता। उसके उस उद्भासित प्राण ने मेरी उस दिन की सारी सूर्य-किरणों को सजीव कर दिया; मुझे लगा, मुझे जिस प्रकृति ने अपने आकाश से वेष्टित कर रखा है वह उस तरुणी के ही अक्लांत, अम्लान प्राणों का विश्व-व्यापी विस्तार है। दूसरे स्टेशन पर पहुंचते ही उसने खोमचे वाले को बुलाकर काफी-सी दाल-मोठ खरीदी, और लड़कियों के साथ मिलकर बिल्कुल बच्चों के समान कलहास्य करते हुए निस्संकोच भाव से खाने लगी। मेरी प्रकृति तो जाल से घिरी हुई थी- क्यों मैं अत्यंत सहज भाव से, उस हंसमुख लड़की से एक मुट्ठी दाल-मोठ न मांग सका? हाथ बढ़ाकर अपना लोभ क्यों नहीं स्वीकार किया।

मां अच्छा और बुरा लगने के बीच दुचिती हो रही थीं। डिब्बे में मैं हूं मर्द, तो भी इसे कोई संकोच नहीं, खासकर वह इस लोभ की भांति खा रही है। यह बात उनको पसंद नहीं आ रही थी; और उसे बेहया कहने का भी उन्हें भ्रम न हुआ। उन्हें लगा, इस लड़की की अवस्था हो गई है, किंतु शिक्षा नहीं मिली। मां एकाएक किसी से बातचीत नहीं कर पातीं। लोगों के साथ दूर-दूर रहने का ही उनको अभ्यास था। इस लड़की का परिचय प्राप्त करने की उनको बड़ी इच्छा थी, किंतु स्वाभाविक बाधा नहीं मिटा पा रही थीं।

इसी समय गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर आकर रुक गई। उन जनरल साहब के साथियों का एक दल इस स्टेशन से चढ़ने का प्रयत्न कर रहा था। गाड़ी में कहीं जगह न थी। कई बार वे हमारे डिब्बे के सामने से निकले। मां तो भय के मारे जड़ हो गई, मैं भी मन में शांति का अनुभव नहीं कर रहा था।

गाड़ी छूटने के थोड़ी देर पहले एक देशी रेल-कर्मचारी ने डिब्बों की दो बैंचों के सिरों पर नाम लिखे हुए दो टिकिट लटकाकर मुझसे कहा इस, डिब्बे की ये दो बैंचें पहले से ही दो साहबों ने रिजर्व करा रखी हैं, आप लोगों को दूसरे डिब्बे में जाना होगा।

मैं तो झटपट घबराकर खड़ा हो गया। लड़की हिंदी में बोली, नहीं, हम डिब्बा नहीं छोड़ेंगे।

उस आदमी ने जिद करते हुए कहा, बिना छोड़े कोई चारा नहीं।

किंतु, लड़की के उतरने की इच्छा का कोई लक्षण न देखकर वह उतरकर अंग्रेज स्टेशन-मास्टर को बुला लाया। उसने आकर मुझसे कहा, मुझे खेद है, किंतु-

सुनकर मैंने ‘कुली-कुली’ की पुकार लगाई। लड़की ने उठकर दोनों आंखों से आग बरसाते हुए कहा, नहीं, आप नहीं जा सकते, जैसे हैं बैठे रहिए!

यह कहकर उसने दरवाजे के पास खड़े होकर स्टेशन-मास्टर से अंग्रेजी में कहा, यह डिब्बा पहले से रिजर्व है, यह बात झूठ है।

यह कहकर उसने नाम लिखे टिकटों को खोलकर प्लेटफार्म पर फेंक दिया।

इस बीच में वर्दी पहने साहब अर्दली के साथ दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया था। डिब्बे में अपना सामान चढ़ाने के लिए पहले उसने अर्दली को इशारा किया था। उसके पश्चात् लड़की के मुंह की ओर देखकर, उसकी बात सुनकर, मुखमुद्रा देखकर स्टेशन-मास्टर को थोड़ा छुपा और उसको ओट में ले जाकर पता नहीं क्या कहा। देखा गया, गाड़ी छूटने का समय बीत चुकने पर भी और एक डिब्बा जोड़ा गया, तब कहीं ट्रेन छूटी। लड़की ने अपना दलबल लेकर फिर दुबारा दाल-मोठ खाना शुरू कर दिया, और मैं शर्म के मारे जंगले के बाहर मुंह निकालकर प्रकृति की शोभा देखने लगा।

गाड़ी कानपुर में आकर रुकी। लड़की सामान बांधकर तैयार थी- स्टेशन पर एक अबंगाली नौकर उनको उतारने का प्रयत्न करने लगा।

तब फिर मां से न रहा गया। पूछा, तुम्हारा नाम क्या है, बेटी?

लड़की बोली, मेरा नाम कल्याणी है।

सुनकर मां और मैं दोनों ही चौंक पड़े।

तुम्हारे पिता-

वे यहां डॉक्टर हैं उनका नाम शंभूनाथ सेन है।

उसके बाद ही वे उतर गईं।

उपसंहार

मामा के निषेध को अमान्य करके माता की आज्ञा ठुकराकर मैं अब कानपुर आ गया हूं। कल्याणी के पिता और कल्याणी से भेंट हुई है। हाथ जोड़े हैं, सिर झुकाया है, शंभूनाथ बाबू का हृदय पिघला है। कल्याणी कहती है, मैं विवाह नहीं करूंगी।

मैंने पूछा, क्यों?

उसने कहा, मातृ-आज्ञा।

जब हो गया! इस ओर भी मातुल हैं क्या?

बाद में समझा, मातृ-भूमि है। वह संबंध टूट जाने के बाद से कल्याणी ने लड़कियों को शिक्षा देने का व्रत ग्रहण कर लिया है।

किंतु, मैं आशा न छोड़ सका। वह स्वर मेरे हृदय में आज भी गूंज रहा है- वह मानो कोई उस पार की वंशी हो- मेरी दुनिया के बाहर से आई थी, मुझे सारे जगत के बाहर बुला रही थी। और, वह जो रात के अंधकार में मेरे कान में पड़ा था, ‘जगह है,’ वह मेरे चिर-जीवन के संगीत की टेक बन गई। उस समय मेरी आयु थी तेईस, अब हो गई है सत्ताईस। अभी तक आशा नहीं छोड़ी है, किंतु मातुल को छोड़ दिया है। इकलौता लड़का होने के कारण मां मुझे नहीं छोड़ सकीं।

तुम सोच रहे होगे, मैं विवाह की आशा करता हूं। नहीं, कभी नहीं। मुझे याद है, बस उस रात के अपरिचित कंठ के मधुर स्वर की आशा- जगह है। अवश्य है। नहीं तो खड़ा होऊंगा? इसी से वर्ष के बाद वर्ष बीतते जाते हैं- मैं यहीं हूं। भेंट होती है, वही स्वर सुनता हूं, जब अवसर मिलता है उसका काम कर देता हूं- और मन कहता है- यही तो जगह मिली है, ओ री अपरिचिता! तुम्हारा परिचय पूरा नहीं हुआ, पूरा होगा भी नहीं, किंतु मेरा भाग्य अच्छा है, मुझे जगह मिल चुकी है।

 

फणीश्वरनाथ रेणु की कहानी एक आदिम रात्रि की महक/ Fanishwernath renu story

आज हम आपके लिए Fanishwernath renu story आदिम चरित्र लेकर आये हैं। उम्मीद है ये story आपको पसंद आएगी।

 

न …करमा को नींद नहीं आएगी। नए पक्के मकान में उसे कभी नींद नहीं आती। चूना और वार्निश की गंध के मारे उसकी कनपटी के पास हमेशा चौअन्नी-भर दर्द चिनचिनाता रहता है। पुरानी लाइन के पुराने ‘इस्टिसन’ सब हजार पुराने हों, वहाँ नींद तो आती है।…ले, नाक के अंदर फिर सुड़सुड़ी जगी ससुरी…!

करमा छींकने लगा। नए मकान में उसकी छींक गूँज उठी। ‘करमा, नींद नहीं आती?’ ‘बाबू’ ने कैंप-खाट पर करवट लेते हुए पूछा। गमछे से नथुने को साफ करते हुए करमा ने कहा – ‘यहाँ नींद कभी नहीं आएगी, मैं जानता था, बाबू!’ ‘मुझे भी नींद नहीं आएगी,’ बाबू ने सिगरेट सुलगाते हुए कहा – ‘नई जगह में पहली रात मुझे नींद नहीं आती।’ करमा पूछना चाहता था कि नए ‘पोख्ता’ मकान में बाबू को भी चूने की गंध लगती है क्या? कनपटी के पास दर्द रहता है हमेशा क्या?…बाबू कोई गीत गुनगुनाने लगे। एक कुत्ता गश्त लगाता हुआ सिगनल-केबिन की ओर से आया और बरामदे के पास आ कर रुक गया। करमा चुपचाप कुत्ते की नीयत को ताड़ने लगा। कुत्ते ने बाबू की खटिया की ओर थुथना ऊँचा करके हवा में सूँघा। आगे बढ़ा। करमा समझ गया – जरूर जूता-खोर कुत्ता है, साला!… नहीं, सिर्फ सूँघ रहा था। कुत्ता अब करमा की ओर मुड़ा। हवा सूँघने लगा। फिर मुसाफिरखाने की ओर दुलकी चाल से चला गया। बाबू ने पूछा – ‘तुम्हारा नाम करमा है या करमचंद या करमू?’ …सात दिन तक साथ रहने के बाद, आज आधी रात के पहर में बाबू ने दिल खोल कर एक सवाल के जैसा सवाल किया है। ‘बाबू, नाम तो मेरा करमा ही है। वैसे लोगों के हजार मुँह हैं, हजार नाम कहते हैं।…निताय बाबू कोरमा कहते थे, घोस बाबू करीमा कह कर बुलाते थे, सिंघ जी ने ब दिन कामा ही कहा और असगर बाबू तो हमेशा करम-करम कहते थे। खुश रहने पर दिल्लगी करते थे – हाय मेरे करम!…नाम में क्या है, बाबू? जो मन में आए कहिए। हजार नाम…!’ ‘तुम्हारा घर संथाल परगना में है, या राँची-हजारीबाग की ओर?’ करमा इस सवाल पर अचकचाया, जरा! ऐसे सवालों के जवाब देते समय वह रमते जोगी की मुद्रा बना लेता है। ‘घर? जहाँ धड़, वहाँ घर। माँ-बाप-भगवान जी!’…लेकिन, बाबू को ऐसा जवाब तो नहीं दे सकता! …बाबू भी खूब हैं। नाम का ‘अरथ’ निकाल कर अनुमान लगा लिया – घर संथाल परगना या राँची-हजारीबाग की ओर होगा, किसी गाँव में? करमा-पर्व के दिन जन्म हुआ होगा, इसीलिए नाम करमा पड़ा। माथा, कपाल, होंठ और देह की गठन देख कर भी…। …बाबू तो बहुत ‘गुनी’ मालुम होते हैं। अपने बारे में करमा को कुछ मालुम नहीं। और बाबू नाम और कपाल देख कर सब कुछ बता रहे हैं। इतने दिन के बाद एक बाबू मिले हैं, गोपाल बाबू जैसे! करमा ने कहा – ‘बाबू, गोपाल बाबू भी यही कहते थे! यह ‘करमा’ नाम तो गोपाल बाबू का ही दिया हुआ है!’ करमा ने गोपाल बाबू का किस्सा शुरु किया – ‘…गोपाल बाबू कहते थे, आसाम से लौटती हुई कुली-गाड़ी में एक ‘डोको’ के अंदर तू पड़ा था, बिना ‘बिलटी-रसीद’ के ही…लावारिस माल।’ …चलो, बाबू को नींद आ गई। नाक बोलने लगी। गोपाल बाबू का किस्सा अधूरा ही रह गया। …कुतवा फिर गश्त लगाता हुआ आया। यह कातिक का महीना है न! ससुरा पस्त हो कर आया है। हाँफ रहा है।…ले, तू भी यहीं सोएगा? ऊँह! साले की देह की गंध यहाँ तक आती है – धेत! धेत! बाबू ने जग कर पूछा, ‘हूँ-ऊ-ऊ! तब क्या हुआ तुम्हारे गोपाल बाबू का?’ कुत्ता बरामदे के नीचे चला गया। उलट कर देखने लगा। गुर्राया। फिर, दो-तीन बार दबी हुई आवाज में ‘बुफ-बुफ’ कर जनाने मुसाफिरखाने के अंदर चला गया, जहाँ पैटमान जी सोता है। ‘बाबू, सो गए क्या?’ …चलो, बाबू को फिर नींद आ गई ! बाबू की नाक ठीक ‘बबुआनी आवाज’ में ही ‘डाकती’ है!…पैटमान जी तो, लगता है, लकड़ी चीर रहे हैं! – गोपाल बाबू की नाक बीन-जैसी बजती थी – सुर में!!…असगर बाबू का खर्राटा…सिंघ जी फुफकारते थे और साहू बाबू नींद में बोलते थे – ‘ए, डाउन दो, गाड़ी छोड़ा…!’ …तार की घंटी! स्टेशन का घंटा! गार्ड साहब की सीटी! इंजिन का बिगुल! जहाज का भोंपो! – सैकडों सीटियाँ…बिगुल…भोंपा…भों-ओं-ओं-ओं…! – हजार बार, लाख बार कोशिश करके भी अपने को रेल की पटरी से अलग नहीं कर सका, करमा। वह छटपटाया। चिल्लाया, मगर जरा भी टस-से-मस नहीं हुई उसकी देह। वह चिपका रहा। धड़धड़ाता हुआ इंजिन गरदन और पैरों को काटता हुआ चला गया। …लाइन के एक ओर उसका सिर लुढ़का हुआ पड़ा था, दूसरी ओर दोनों पैर छिटके हुए! उसने जल्दी से अपने कटे हुए पैरों को बटोरा – अरे, यह तो एंटोनी ‘गाट’ साहब के बरसाती जूते का जोड़ा है! गम-बूट!…उसका सिर क्या हुआ?..धेत,धेत! ससुरा नाक-कान बचा रहा…! ‘करमा!’ – धेत-धेत! ‘उठ करमा, चाय बना?’ करमा धड़फड़ा कर उठ बैठा।…ले, बिहान हो गया। मालगाड़ी को ‘थुरु-पास’ करके, पैटमान जी हाथ में बेंत की कमानी घुमाता हुआ आ रहा है। …साला! ऐसा भी सपना होता है, भला? बारह साल में, पहली बार ऐसा अजूबा सपना देखा करमा ने। बारह साल में एक दिन के लिए भी रेलवे-लाइन से दूर नहीं गया, करमा। इस तरह ‘एकसिडंटवाला सपना’ कभी नहीं देखा उसने! करमा रेल-कंपनी का नौकर नहीं। वह चाहता तो पोटर, खलासी पैटमान या पानी पाँडे़ की नौकरी मिल सकती थी। खूब आसानी से रेलवे-नौकरी में ‘घुस’ सकता था। मगर मन को कौन समझाए! मन माना नहीं। रेल-कंपनी का नीला कुर्ता और इंजिन-छाप बटन का शौक उसे कभी नहीं हुआ! रेल-कंपनी क्या, किसी की नौकरी करमा ने कभी नहीं की। नामधाम पूछने के बाद लोग पेशे के बारे में पूछते हैं। करमा जवाब देता है – ‘बाबू के ‘साथ’ रहते हैं।’…एक पैसा भी मुसहरा न लेनेवालों को ‘नौकर’ तो नहीं कह सकते! …गोपाल बाबू के साथ, लगातार पाँच वर्ष! इसके बाद कितने बाबुओं के साथ रहा, यह गिन कर कर बतलाना होगा! लेकिन, एक बात है – ‘रिलिफिया बाबू’ को छोड़ कर किसी ‘सालटन बाबू’ के साथ वह कभी नहीं रहा। …सालटन बाबू माने किसी ‘टिसन’ में ‘परमानंटी’ नौकरी करनेवाला – फैमिली के साथ रहनेवाला! …जा रे गोपाल बाबू! वैसा बाबू अब कहाँ मिले? करमा का माय-बाप, भाय-बहिन, कुल-परिवार जो बूझिए – सब एक गोपाल बाबू!…बिना ‘बिलटी-रसीद’ का लावारिस माल था, करमा। रेलवे अस्पताल से छुड़ा कर अपने साथ रखा गोपाल बाबू ने।जहाँ जाते, करमा साथ जाता। जो खाते, करमा भी खाता। …लेकिन आदमी की मति को क्या कहिए! रिलिफिया काम छोड़ कर सालटानी काम में गए। फिर, एक दिन शादी कर बैठे। …बौमा …गोपाल बाबू की ‘फैमली’ – राम-हो-राम! वह औरत थी? साच्छात चुड़ैल! …दिन-भर गोपाल बाबू ठीक रहते। साँझ पड़ते ही उनकी जान चिड़िया की तरह ‘लुकाती’ फिरती।…आधी रात को कभी-कभी ‘इसपेसल’ पास करने के लिए बाबू निकलते। लगता, अमरीकन रेलवे-इंजिन के ‘बायलर’ में कोयला झोंक कर निकले हैं। …करमा ‘क्वाटर’ के बरामदे पर सोता था। तीन महीने तक रात में नींद नहीं आई, कभी। …बौमा ‘फों-फों’ करती – बाबू मिनमिना कुछ बोलते। फिर शुरु होता रोना-कराहना, गाली-गलौज, मारपीट। बाबू भाग कर बाहर निकलते और वह औरत झपट कर माथे का केश पकड़ लेती। …तब करमा ने एक उपाय निकाला। ऐसे समय में वह उठ कर दरवाजा खटखटा कर कहता – ‘बाबू, ‘इसपेशल’ का ‘कल’ बोलता है…।’ बाबू की जान कितने दिनों तक बचाता करमा? …बौमा एक दिन चिल्लाई – ‘ए छोकरा हरामजदा के दूर करो। यह चोर है, चो-ओ-ओ-र!’ …इसके बाद से ही किसी ‘टिसन’ के फैमिली क्वाटर को देखते ही करमा के मन में एक पतली आवाज गूँजने लगती है – चो-ओ-ओ-र! हरामजदा! फैमिली क्वाटर ही क्यों – जनाना मुसाफिरखाना, जनाना दर्जा, जनाना… जनाना नाम से ही करमा को उबकाई आने लगती है। …एक ही साल में गोपाल बाबू को ‘हाड़-गोड़’ सहित चबा कर खा गई, वह जनाना! फूल-जैसे सुकुमार गोपाल बाबू! जिंदगी में पहली बार फूट-फूट कर रोया था, करमा। …रमता-जोगी, बहता-पानी और रिलिफिया बाबू! हेड-क्वाटर में चौबीस घंटे हुए कि ‘परवाना’ कटा – फलाने टिशन का मास्टर बीमार है, सिक-रिपोट आया है। तुरंत ‘जोआएन’ करो।…रिलिफिया बाबू का बोरिया-बिस्तर हमेशा ‘रेडी’ रहना चाहिए। कम-से-कम एक सप्ताह रिलिफिया बाबू। …लकड़ी के एक बक्से में सारी गुहस्थी बंद करके – आज यहाँ, कल वहाँ।…पानीपाड़ा से भातगाँव, कुरैहा से रौताड़ा। पीर, हेड-क्वाटर, कटिहार! …गोपाल बाबू ने ही घोस बाबू के साथ लगा दिया था – ‘खूब भालो बाबू। अच्छी तरह रखेगा। लेकिन, घोस बाबू के साथ एक महीना से ज्यादा नहीं रह सका, करमा। घोस बाबू की बेवजह गाली देने की आदत! गाली भी बहुत खराब-खराब! माँ-बहन की गाली।…इसके अलावा घोस बाबू में कोई ऐब नहीं था। अपने ‘समांग’ की तरह रखते थे। …घोस बाबू आज भी मिलते हैं तो गाली से ही बात शुरु करते हैं – ‘की रे…करमा? किसका साथ में हैं आजकल मादर्च…?’ घोस बाबू को माँ-बहन की गाली देनेवाला कोई नहीं। नहीं तो समझते कि माँ-बहन की गाली सुन कर आदमी का खून किस तरह खौलने लगता है। किसी भले आदमी को ऐसी खराब गाली बकते नहीं सुना है करमा ने, आज तक। …राम बाबू की सब आदत ठीक थी। लेकिन – भा-आ-री ‘इस्की आदमी।’ जिस टिसन में जाते, पैटमान-पोटर-सूपर को एकांत में बुला कर घुसर-फुसर बतियाते। फिर रात में कभी मालगोदाम की ओर तो कभी जनाना मुसाफिरखाना में, तो कभी जनाना-पैखाना में…छिः-छिः…जहाँ जाते छुछुआते रहते – ‘क्या जी, असल-माल-वाल का कोई जोगाड़ जंतर नहीं लगेगा?’…आखिर वही हुआ जो करमा ने कहा था – ‘माल’ ही उनका ‘काल’ हुआ। पिछले साल, जोगबनी-लाइन में एक नेपाली ने खुकरी से दो टुकड़ा काट कर रख दिया। और उड़ाओ माल! …जैसी अपनी इज्जत वैसी पराई ! …सिंघ जी भारी ‘पुजेगरी’! सिया सहित राम-लछमन की मूर्ति हमेशा उनकी झोली में रहती थी। रोज चार बजे भोर से ही नहा कर पूजा की घंटी हिलाते रहते। इधर ‘कल’ की घंटी बजती। …जिस घर में ठाकुर जी की झोली रहती, उसमें बिना नहाए कोई पैर भी नहीं दे सकता। …कोई अपनी देह को उस तरह बाँध कर हमेशा कैसे रह सकता है? कौन दिन में दस बार नहाए और हजार बार पैर धोए! सो भी, जाड़े के मौसम में! …जहाँ कुछ छुओ कि हूँहूँहूँ-हाँहाँहाँ-अरेरेरे-छू दिया न? …ऐसे छुतहा आदमी को रेल-कंपनी में आने की क्या जरुरत? …सिंघ जी का साथ नहीं निभ सका। …साहू बाबू दरियादिल आदमी थे। मगर मदक्की ऐसे कि दिन-दोपहर को पचास-दारु एक बोतल पी कर मालगाड़ी को ‘थुरुपास’ दे दिया और गाड़ी लड़ गई। करमा को याद है, ‘एकसिडंट’ की खबर सुन कर साहू बाबू ने फिर एक बोतल चढ़ा लिया। …आखिर डॉक्टर ने दिमाग खराब होने का ‘साटिफिटिक’ दे दिया। …लेकिन, उस ‘एकसिडंट’ के समय भी किसी रात को करमा ने ऐसा सपना नहीं देखा! …न …भोर-भार ऐसी कुलच्छन-भरी बात बाबू को सुना कर करमा ने अच्छा नहीं किया। रेलवे की नौकरी में अभी तुरत ‘घुसवै’ किए हैं। …न…बाबू के मिजाज का टेर-पता अब तक करमा को नहीं मिला है। करीब एक सप्ताह तक साथ में रहने के बाद, कल रात में पहली बार दिल खोल कर दो सवाल-जवाब किया बाबू ने। इसीलिए, सुबह को करमा ने दिल खोल कर अपने सपने की बात शुरु की थी। चाय की प्याली सामने रखने के बाद उसने हँस कर कहा – ‘हँह बाबू, रात में हम एक अ-जू-ऊ-ऊ-बा सपना देखा। धड़धड़ाता इंजिन… लाइन पर चिपकी हमारी देह टस-से-मस- नहीं… सिर इधर और पैर लाइन के उधर… एंटोनी गाट साहब के बरसाती जूते का जोड़ा… गमबोट…!’ ‘धेत! क्या बेसिर-पैर की बात करते हो, सुबह-सुबह? गाँजा-वाँजा पीता है क्या?’ …करमा ने बाबू को सपने की बात सुना कर अच्छा नहीं किया। करमा उठ कर ताखे पर रखे हुए आईने में अपना मुँह देखने लगा। उसने ‘अ-जू-ऊ-ऊ-बा’ कह कर देखा। छिः उसके होंठ तीतर की चोच की तरह…। ‘का करमचन? का बन रहा है?’ …पानी पाँड़े भला आदमी है। पुरानी जान-पहचान है इससे, करमा की। कई टिसन में संगत हुआ हैं। लेकिन, यह पैटमान ‘लटपटिया’ आदमी मालूम होता है। हर बात में पुच-पुच कर हँसनेवाला। ‘करमचन, बाबू कौन जाती के हैं?’ ‘क्यों? बंगाली हैं।’ ‘भैया, बंगाली में भी साढ़े-बारह बरन के लोग होते है।’ पानी पाँड़े जाते-जाते कह गया, ‘थोड़ी तरकारी बचा कर रखना, करमचन!’ …घर कहाँ? कौन जाति? मनिहारी घाट के मस्ताना बाबा का सिखाया हुआ जवाब, सभी जगह नहीं चलता – हरि के भजे सो हरी के होई! मगर, हरि की भी जाति थी! …ले, यह घटही-गाड़ी का इंजन कैसे भेज दिया इस लाइन में आज? संथाली-बाँसी जैसी पतली सीटी-सी-ई-ई!! …ले, फक्का! एक भी पसिंजर नहीं उतरा, इस गाड़ी से भी। काहे को इतना खर्चा करके रेल-कंपनी ने यहाँ टिसन बनाया, करमा के बुद्धि में नहीं आता। फायदा? बस, नाम ही आदमपुरा है – आमदनी नदारद। सात दिन में दो टिकट कटे हैं और सिर्फ पाँच पासिंजर उतरे हैं, तिसमें दो बिना टिकट के। …इतने दिन के बाद पंद्रह बोरा बैंगन उस दिन बुक हुआ। पंद्रह बैंगन दे कर ही काम बना लिया, उस बूढ़े ने।…उस बैंगनवाले की बोली-बानी अजीब थी। करमा से खुल कर गप करना चाहता था बूढ़ा। घर कहाँ है? कौन जाति? घर में कौन-कौन हैं? …करमा ने सभी सवालों का एक ही जवाब दिया था – ऊपर की ओर हाथ दिखला कर! बूढ़ा हँस पड़ा था। …अजीब हँसी! …घटही-गाड़ी! सी-ई-ई-ई!! करमा मनिहारीघाट टिसन में भी रहा है, तीन महीने तक एक बार, एक महीना दूसरी बार। …मनिहारीघाट टिसन की बात निराली है। कहाँ मनिहारीघाट और कहाँ आदमपुरा का यह पिद्दी टिसन! …नई जगह में, नए टिसन में पहुँच कर आसपास के गाँवों में एकाध चक्कर घुमे-फिरे बिना करमा को न जाने ‘कैसा-कैसा’ – लगता है। लगता है, अंध-कूप में पड़ा हुआ है। …वह ‘डिसटन-सिंगल’ के उस पार दूर-दूर तक खेत फैले हैं। …वह काला जंगल …ताड़ का वह अकेला पेड़ …आज बाबू को खिला-पिला कर करमा निकलेगा। इस तरह बैठे रहने से उसके पेट का भात नहीं पचेगा। …यदि गाँव-घर और खेत मैदान में नहीं घूमता-फिरता, तो वह पेड़ पर चढ़ना कैसे सीखता? तैरना कहाँ सीखता? …लखपतिया टिसन का नाम कितना ‘जब्बड़’ है! मगर टिसन पर एक ‘सत्तू-फरही’ की भी दुकान नहीं। आसपास में, पाँच कोस तक कोई गाँव नहीं। मगर, टिसन से पूरब जो दो पोखरे हैं, उन्हें कैसे भूल सकता है करमा? आईना की तरह झलमलाता हुआ पानी। …बैसाख महीने की दोपहरी में, घंटो गले-भर पानी में नहाने का सुख! मुँह से कह कर बताया नहीं जा सकता! …मुदा, कदमपुरा – सचमुच कदमपुरा है। टिसन से शुरु करके गाँव तक हजारों कदम के पेड़ हैं। …कदम की चटनी खाए एक युग हो गया! …वारिसगंज टिसन, बीच कस्बा में है। बड़े-बड़े मालगोदाम, हजारों गाँठ-पाट, धान-चावल के बोरे, कोयला-सीमेंट-चूना की ढेरी! हमेशा हजारों लोगों की भीड़! करमा को किसी का चेहरा याद नहीं। …लेकिन टिसन से सटे उत्तर की ओर मैदान में तंबू डाल कर रहनेवाले गदहावाले मगहिया डोमों की याद हमेशा आती है। …घाघरीवाली औरतें, हाथ में बड़े-बड़े कड़े, कान में झुमके …नंगे बच्चे, कान में गोल-गोल कुंडलवाले मर्द! …उनके मुर्गे! उनके कुत्ते! …बथनाह टिसन के चारों ओर हजार घर बन गए हैं। कोई परतीत करेगा कि पाँच साल पहले बथनाह टिसन पर दिन-दोपहर को टिटही बोलती थी। …कितनी जगहों, कितने लोगों की याद आती है! …सोनबरसा के आम …कालूचक की मछलियाँ …भटोतर की दही …कुसियारगाँव का ऊख! …मगर सबसे ज्यादा आती है मनिहारीघाट टिसन की याद। एक तरफ धरती, दूसरी ओर पानी। इधर रेलगाड़ी, उधर जहाज। इस पार खेत-गाँव-मैदान, उस पार साहेबगंज-कजरोटिया का नीला पहाड़। नीला पानी – सादा बालू! …तीन एक, चार-चार महीने तक तीसों दिन गंगा में नहाया है, करमा। चार ‘जनम तक’ पाप का कोई असर तो नहीं होना चाहिए! इतना बढ़िया नाम शायद ही किसी टिसन का होगा – मनीहार। …बलिहारी! मछुवे जब नाव से मछलियाँ उतारते तो चमक के मारे करमा की आँखे चौंधिया जातीं। …रात में, उधर जहाज चला जाता – धू-धू करता हुआ। इधर गाड़ी छकछकाती हुई कटिहार की ओर भागती। अजू साह की दुकान की ‘झाँपी’ बंद हो जाती। तब घाट पर मस्तानबाबा की मंडली जुटती। …मस्तानबाबा कुली-कुल के थे। मनिहारीघाट पर ही कुली का काम करते थे। एक बार मन ऐसा उदास हो गया कि दाढ़ी और जटा बढ़ा कर बाबा जी हो गए। खंजड़ी बजा कर निरगुन गाने लगे। बाबा कहते – ‘घाट-घाट का पानी पी कर देखा – सब फीका। एक गंगाजल मीठा…।’ बाबा एक चिलम गाँजा पी कर पाँच किस्सा सुना देते। सब बेद-पुरान का किस्सा! करमा ने ग्यान की दो-चार बोली मनिहारीघाट पर ही सीखीं। मस्तानबाबा के सत्संग में। लेकिन, गाँजा में उसने कभी दम नहीं लगाया। …आज बाबू ने झुँझला कर जब कहा, ‘गाँजा-वाँजा पीते हो क्या’ – तो करमा को मस्तानबाबा की याद आई। बाबा कहते – हर जगह की अपनी खुशबू-बदबू होती है! …इस आदमपुरा की गंध के मारे करमा को खाना-पीना नहीं रुचता। …मस्तानबाबा को बाद दे कर मनिहारीघाट की याद कभी नहीं आती। करमा ने ताखे पर रखे आईने में फिर अपना मुखड़ा देखा। उसने आँखे अधमुँदी करके दाँत निकाल कर हँसते हुए मस्तानबाबा के चेहरे की नकल उतारने की चेष्टा की – ‘मस्त रहो! …सदा आँख-कान खोल कर रहो। …धरती बोलती है। गाछ-बिरिच्छ भी अपने लोगों को पहचानते हैं। …फसल को नाचते-गाते देखा है, कभी? रोते सुना है कभी अमावस्या की रात को? है…है…है – मस्त रहो…।’ …करमा को क्या पता कि बाबू पीछे खड़े हो कर सब तमाशा देख रहे हैं। बाबू ने अचरज से पूछा, ‘तुम जगे-जगे खड़े हो कर भी सपना देखता है? …कहता है कि गाँजा नहीं पीता?’ सचमुच वह खड़ा-खड़ा सपना देखने लगा था। मस्तानबाबा का चेहरा बरगद के पेड़ की तरह बड़ा होता गया। उसकी मस्त हँसी आकाश में गूँजने लगी! गाँजे का धुआँ उड़ने लगा। गंगा की लहरे आईं। दूर, जहाज का भोंपा सुनाई पड़ा – भों-ओं-ओं! बाबू ने कहा, ‘खाना परोसो। देखूँ, क्या बनाया है? तुमको लेकर भारी मुश्किल है…।’ मुँह का पहला कौर निगल कर बाबू करमा का मुँह ताकने लगे, ‘लेकिन, खाना तिओ बहोत बढ़िया बनाया है!’ खाते-खाते बाबू का मन-मिजाज एकदम बदल गया। फिर रात की तरह दिल खोल कर गप करने लगे, ‘खाना बनाना किसने सिखलाया तुमको? गोपाल बाबू की घरवाली ने?’ …गोपाल बाबू की घरवाली? माने बौमा? वह बोला, ‘बौमा का मिजाज तो इतना खट्टा था कि बोली सुन कर कड़ाही का ताजा दूध फट जाए। वह किसी को क्या सिखावेगी? फूहड़ औरत?’ ‘और यह बात बनाना किसने सिखलाया तुमको?’ करमा को मस्तान बाबा की ‘बानी’ याद आई, ‘बाबू,सिखलाएगा कौन? …सहर सिखाए कोतवाली!’ ‘तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा!’ बाबू का मन-मिजाज इसी तरह ठीक रहा तो एक दिन करमा मस्तानबाबा का पूरा किस्सा सुनाएगा। ‘बाबू, आज हमको जरा छुट्टी चाहिए।’ ‘छुट्टी! क्यों? कहाँ जाएगा?’ करमा ने एक ओर हाथ उठाते हुए कहा, ‘जरा उधर घूमने-फिरने…।’ पैटमान जी ने पुकार कर कहा, ‘करमा! बाबू को बोलो, ‘कल’ बोलता है।’ …तुम्हारी बीबी को खूब आराम होगा! …करमा की बीबी! वारीसगंज टिसन …मगहिया डोमो के तंबू …उठती उमेरवाली छौंड़ी …नाक में नथिया …नाक और नथिया में जमे हुए काले मैले …पीले दाँतो में मिस्सी!! करमा अपने हाथ का बना हुआ हलवा-पूरी उस छौंड़ी को नहीं खिला सका। एक दिन कागज की पुड़िया में ले गया। लेकिन वह पसीने से भीग गया। उसकी हिम्मत ही नहीं हुई। …यदि यह छौंड़िया चिल्लाने लगे कि तुम हमको चुरा-छिपा कर हलवा काहे खिलाता है? …ओ, मइयो-यो-यो-यो-यो-यो…!! …बाबू हजार कहें, करमा का मन नहीं मानता कि उसका घर संथाल-परगना या राँची की ओर कहीं होगा। मनिहारीघाट में दो-दो बार रह आया है, वह। उस पार के साहेबगंज-कजरौटिया के पहाड़ ने उसको अपनी ओर नहीं खींचा कभी! और वारिसगंज, कदमपुरा, कालूचक, लखपतिया का नाम सुनते ही उसके अंदर कुछ झनझना उठता है। जाने-पहचाने, अचीन्हे, कितने लोगों के चेहरों की भीड़ लग जाती है! कितनी बातें सुख-दुख की! खेत-खलिहान, पेड़-पौधे, नदी-पोखरे, चिरई-चुरमुन-सभी एक साथ टानते हैं, करमा को! …सात दिन से वह काला जंगल और ताड़ का पेड़ उसको इशारे से बुला रहे है। जंगल के ऊपर आसमान में तैरती हुई चील आ कर करमा को क्यों पुकार जाती है? क्यों? रेलवे-हाता पार करने के बाद भी जब कुत्ता नहीं लौटा तो करमा ने झिड़की दी, ‘तू कहाँ जाएगा ससुर? जहाँ जाएगा झाँव-झाँव करके कुत्ते दौड़ेंगे। …जा! भाग! भाग!!’ कुत्ता रुक कर करमा को देखने लगा। धनखेतों से गुजरनेवाली पगडंडी पकड़ कर करमा चल रहा है। धान की बालियाँ अभी फूट कर निकली नहीं हैं। …करमा को हेडक्वाटर के चौधरी बाबू की गर्भवती घरवाली की याद आई। सुना है, डॉक्टैरनी ने अंदर का फोटो ले कर देखा है – जुड़वाँ बच्चा है पेट में! …इधर, ‘हथिया-नच्छत्तर अच्छा ‘झरा’ था। खेतों में अभी भी पानी लगा हुआ है। …मछली? …पानी में माँगुर मछलियों को देख कर करमा की देह अपने-आप बँध गई। वह साँस रोक कर चुपचाप खड़ा रहा। फिर धीरे-धीरे खेत की मेंड़ पर चला गया। मछलियाँ छलमलाईं। आईने की तरह थिर पानी अचानक नाचने लगा। …करमा कया करे? …उधर की मेंड़ से सटा कर एक ‘छेंका’ दे कर पानी को उलीच दिया जाए तो…? …हैहै-हैहै! साले! बन का गीदड़, जाएगा किधर? और छ्लमलाओ! …अरे, काँटा करमा को क्या मारता है? करमा नया शिकारी नहीं। आठ माँगुर और एक गहरी मछली! सभी काली मछलियाँ! कटिहार हाट में इसी का दाम बेखटके तीन रुपयो ले लेता। …कर्मा ने गमछे में मछलियों को बाँध लिया। ऐसा ‘संतोख’ उसको कभी नहीं हुआ, इसके पहले। बहुत-बहुत मछली का शिकार किया उसने! एक बूढ़ा भैंसवार मिला जो अपनी भैंस को खोज रहा था, ‘ए भाय! उधर किसी भैंस पर नजर पड़ी है?’ भैंसवार ने करमा से एक बीड़ी माँगी। उसको अचरज हुआ – कैसा आदमी है, न बीड़ी पीता है, न तंबाकू खाता है। उसने नाराज हो कर जिरह शुरु किया, ‘इधर कहाँ जाना है? गाँव में तुम्हारा कौन है? मछली कहाँ ले जा रहे हो?’ …ताड़ का पेड़ तो पीछे की ओर घसकता जाता है! करमा ने देखा, गाँव आ गया। गाँव में कोई तमाशावाला आया है। बच्चे दौड़ रहे हैं। हाँ, भालू वाला ही है। डमरु की बोली सुन कर करमा ने समझ लिया था। …गाँव की पहली गंध! गंध का पहला झोंका! …गाँव का पहला आदमी। यह बूढ़ा गोबी को पानी से पटा रहा है। बाल सादा हो गए हैं, मगर पानी भरते समय बाँह में जवानी ऐंठती है! …अरे, यह तो वही बूढ़ा है जो उस दिन बैंगन बुक कराने गया था और करमा से घुल-मिल कर गप करना चाहता था। करमा से खोद-खोद कर पूछता था – माय-बाप है नहीं या माय-बाप को छोड़ भाग आए हो? …ले, उसने भी करमा को पहचान लिया! ‘क्या है, भाई! इधर किधर?’ ‘ऐसे ही। घूमने-फिरने! …आपका घर इसी गाँव में है?’ बूढ़ा हँसा। घनी मूँछें खिल गई। …बूढ़ा ठीक सत्तो बाबू टीटी के बाप की तरह हँसता है। एक लाल साड़ीवाली लड़की हुक्के पर चिलम चढ़ा कर फूँकती हुई आई। चिलम को फूँकते समय उसके दोनों गाल गोल हो गए थे। करमा को देख कर वह ठिठकी। फिर गोभी के खेत के बाड़े को पार करने लगी। बूढ़े ने कहा, ‘चल बेटी, दरवाजे पर ही हम लोग आ रहे हैं।’ बूढ़ा हाथ-पैर धो कर खेत से बाहर आया, ‘चलो!’ लड़की ने पूछा, ‘बाबा, यह कौन आदमी है?’ ‘भालू नचानेवाला आदमी।’ ‘धेत्त!’ करमा लजाया। …क्या उसका चेहरा-मोहरा भालू नचानेवाले-जैसा है? बूढ़े ने पूछा, ‘तुम रिलिफिया बाबू के नौकर हो न?’ ‘नहीं, नौकर नहीं।…ऐसे ही साथ में रहता हूँ।’ ‘ऐसे ही? साथ में? तलब कितना मिलता है?’ ‘साथ में रहने पर तलब कितना मिलेगा?’ …बूढ़ा हुक्का पीना भूल गया। बोला, ‘बस? बेतलब का ताबेदार?’ बूढ़े ने आँगन की ओर मुँह करके कहा, ‘सरसतिया! जरा माय को भेज दो, यहाँ। एक कमाल का आदमी…।’ बूढ़ी टट्टी की आड़ में खड़ी थी। तुरत आई। बूढ़े ने कहा, ‘जरा देखो, इस किल्लाठोंक-जवान को। पेट भात पर खटता है। …क्यों जी, कपड़ा भी मिलता है?…इसी को कहते हैं – पेट-माधोराम मर्द!’ …आँगन में एक पतली खिलखिलाहट! …भालू नचानेवाला कहीं पड़ोस में ही तमाशा दिखा रहा है। डमरु ने इस ताल पर भालू हाथ हिला-हिला कर ‘थब्बड़-थब्बड़’ नाच रहा होगा – थुथना ऊँचा करके! …अच्छा जी भोलेराम! …सैकड़ों खिलखिलाहट!! ‘तुम्हारा नाम क्या है जी? …करमचन? वाह, नाम तो खूब सगुनिया है। लेकिन काम? काम चूल्हचन?’ करमा ने लजाते हुए बात को मोड़ दिया, ‘आपके खेत का बैंगन बहोत बढ़िया है। एकदम घी-जैसा…।’ बूढ़ा मुसकराने लगा। और बूढ़ी की हँसी करमा की देह में जान डाल देती है। वह बोली, ‘बेचारे को दम तो लेने दो। तभी से रगेट रहे हो।’ ‘मछली है? बाबू के लिए ले जाओगे?’ ‘नहीं। ऐसे ही… रास्ते में शिकार…।’ ‘सरसतिया की माय! मेहमान को चूड़ा भून कर मछली की भाजी के साथ खिलाओ! …एक दिन दूसरे के हाथ की बनाई मछली खा लो जी!’ जलपान करते समय करमा ने सुना – कोई पूछ रही थी, ‘ए, सरसतिया की माय! कहाँ का मेहमान है?’ ‘कटिहार का।’ ‘कौन है?’ ‘कुटुम ही है।’ ‘कटिहार में तुम्हारा कुटुम कब से रहने लगा?’ ‘हाल से ही।’ …फिर एक खिलखिलाहट! कई खिलखिलाहट!! …चिलम फूँकते समय सरसतिया के गाल मोसंबी की तरह गोल हो जाते हैं। बूढ़ी ने दुलार-भरे स्वर में पूछा, ‘अच्छा ए बबुआ! तार के अंदर से आदमी की बोली कैसे जाती है? हमको जरा खुलासा करके समझा दो।’ चलते समय बूढ़ी ने धीरे-से कहा, ‘बूढ़े की बात का बुरा न मानना। जब से जवान बेटा गया, तब से इसी तरह उखड़ी-उखड़ी बात करता है। …कलेजे का घाव…।’ ‘एक दिन फिर आना।’ ‘अपना ही घर समझना!’ लौटते समय करमा को लगा, तीन जोड़ी आँखें उसकी पीठ पर लगी हुई हैं। आँखें नहीं – डिसटन-सिंगल, होम-सिंगल और पैट सिंगल की लाल गोल-गोल रोशनी! जिस खेत में करमा ने मछली का शिकार किया था उसकी मेंड़ पर एक ढोढ़िया-साँप बैठा था। फों-फों करता भागा। …हद है! कुत्ता अभी तक बैठा उसकी राह देख रहा था! खुशी के मारे नाचने लगा करमा को देख कर! रेलवे-हाता में आ कर करमा को लगा, बूढ़े ने उसको बना कर ठग लिया। तीन रुपए की मोटी-मोटी माँगुर मछलियाँ एक चुटकी चूड़ा खिला कर, चार खट्टी-मीठी बात सुना कर…। …करमा ने मछली की बात अपने पेट में रख ली। लेकिन बाबू तो पहले से ही सबकुछ जान लेनेवाला – ‘अगरजानी’ है। दो हाथ दूर से ही बोले, ‘करमा, तुम्हारी देह से कच्ची मछली की बास आती है। मछली ले आए हो?’ …करमा क्या जवाब दे अब? जिंदगी में पहली बार किसी बाबू के साथ उसने विश्वासघात किया है। …मछली देख कर बाबू जरुर नाचने लगते! पंद्रह दिन देखते देखते ही बीत गया। अभी, रात की गाड़ी से टिसन के सालटन-मास्टर बाबू आए हैं – बाल बच्चों के साथ। पंद्रह दिन से चुप फैमिली-क्वाटर में कुहराम मचा है। भोर की गाड़ी से ही करमा अपने बाबू के साथ हेड-क्वाटर लौट जाएगा।…इसके बाद मनिहारीघाट? …न …आज रात भी करमा को नींद नहीं आएगी। नहीं, अब वार्निश-चुने की गंध नहीं लगती। …बाबू तो मजे से सो रहे हैं। बाबू, सचमुच में गोपाल बाबू जैसे हैं। न किसी की जगह से तिल-भर मोह, न रत्ती-भर माया। …करमा क्या करे? ऐसा तो कभी नहीं हुआ। …’एक दिन फिर आना। अपना ही घर समझना। …कुटुम है… पेट-माधोराम मर्द!’ …अचानक करमा को एक अजीब-सी गंध लगी। वह उठा। किधर से यह गंध आ रही है? उसने धीरे-से प्लेकटफार्म पार किया। चुपचाप सूँघता हुआ आगे बढ़ता गया। …रेलवे-लाइन पर पैर पड़ते ही सभी सिंगल – होम, डिसटट और पैट- जोर-जोर से बिगुल फूँकने लगे। …फैमिली-क्वाटर से एक औरत चिल्लाने लगी – ‘चो-ओ-ओ-र!’ वह भागा। एक इंजिन उसके पीछे-पीछे दौड़ा आ रहा है। …मगहिया डोम की छौंड़ी? …तंबू में वह छिप गया। …सरसतिया खिलखिला कर हँसती है। उसके झबरे केश, बेनहाई हुई देह की गंध, करमा के प्राण में समा गई। …वह डर कर सरसतिया की गोद में …नहीं, उसकी बूढ़ी माँ की गोद में अपना मुँह छिपाता है। …रेल और जहाज के भोंपे एक साथ बजते हैं। सिंगल की लाल-लाल रोशनी…। ‘करमा, उठ! करमा, सामान बाहर निकालो!’ …करमा एक गंध के समुद्र में डूबा हुआ है। उसने उठ कर कुरता पहना। बाबू का बक्सा बाहर निकाला। पानी-पाँड़े ने ‘कहा-सुना माफ करना’ कहा। करमा डूब रहा! …गाड़ी आई। बाबू गाड़ी में बैठे। करमा ने बक्सा चढ़ा दिया। …वह ‘सरवेंट-दर्जा’ में बैठेगा। बाबू ने पूछा, ‘सबकुछ चढ़ा दिया तो? कुछ छूट तो नहीं गया?’…नहीं, कुछ छूटा नहीं है। …गाड़ी ने सीटी दी। करमा ने देखा, प्लेाटफार्म पर बैठा हुआ कुत्ता उसकी ओर देख कर कूँ-कूँ कर रहा है। …बेचैन हो गया कुत्ता! ‘बाबू?’ ‘क्या है?’ ‘मैं नहीं जाऊँगा।’ करमा चलती गाड़ी से उतर गया। धरती पर पैर रखते ही ठोकर लगी। लेकिन सँभल गया।

Chhota jadugar famous hindi story/ Jaishankar prasad story

 

 

Jaishankar prasad story कहानी  famous hindi story छोटा जादूगर आपके साथ शेयर करे रहे हैं। यह एक हृदय स्पर्शी मार्मिक कहानी है जो आपके दिल को छू लेगी।

 

 



 

कार्निवल के मैदान में बिजली जगमगा रही थी। हँसी और विनोद का कलनाद गूँज रहा था। मैं खड़ा था उस छोटे फुहारे के पास, जहाँ एक लड़का चुपचाप शराब पीनेवालों को देख रहा था। उसके गले में फटे कुरते के ऊपर से एक मोटी-सी सूत की रस्‍सी पड़ी थी और जेब में कुछ ताश के पत्‍ते थे। उसके मुँह पर गंभीर विषाद के साथ धैर्य की रेखा थी। मैं उसकी ओर न जाने क्‍यों आकर्षित हुआ। उसके अभाव में भी संपन्‍नता थी।

 

मैंने पूछा, ”क्‍यों जी, तुमने इसमें क्‍या देखा?”

 

”मैंने सब देखा है। यहाँ चूड़ी फेंकते हैं। खिलौनों पर निशाना लगाते हैं। तीर से नंबर छेदते हैं। मुझे तो खिलौनों पर निशाना लगाना अच्‍छा मालूम हुआ। जादूगर तो बिलकुल निकम्‍मा है। उससे अच्‍छा तो ताश का खेल मैं ही दिखा सकता हूँ।” उसने बड़ी प्रगल्‍भता से कहा। उसकी वाणी में कहीं रूकावट न थी।

 

मैंने पूछा, ”और उस परदे में क्‍या है? वहाँ तुम गए थे?”

 

”नहीं, वहाँ मैं नहीं जा सका। टिकट लगता है।”

 

मैंने कहा, ”तो चलो, मैं वहाँ पर तुमको लिवा चलूँ।” मैंने मन-ही-मन कहा, ‘भाई! आज के तुम्‍हीं मित्र रहे।’

 

उसने कहा, ”वहाँ जाकर क्‍या कीजिएगा? चलिए, निशाना लगाया जाए।”

 

मैंने उससे सहमत होकर कहा, ”तो फिर चलो, पहले शरबत पी लिया जाए।” उसने स्‍वीकार-सूचक सिर हिला दिया।

 

मनुष्‍यों की भीड़ से जाड़े की संध्‍या भी वहाँ गरम हो रही थी। हम दोनों शरबत पीकर निशाना लगाने चले। राह में ही उससे पूछा, ”तुम्‍हारे घर में और कौन हैं?”

 

”माँ और बाबूजी।”

 

”उन्‍होंने तुमको यहाँ आने के लिए मना नहीं किया?”

 

”बाबूजी जेल में हैं।”

 

”क्‍यों?”

 

”देश के लिए।” वह गर्व से बोला।

 

”और तुम्‍हारी माँ?”

 

”वह बीमार है।”

 

”और तुम तमाशा देख रहे हो?”

 

उसके मुँह पर तिरस्‍कार की हँसी फूट पड़ी। उसने कहा, ”तमाशा देखने नहीं, दिखाने निकला हूँ। कुछ पैसे ले जाऊँगा, तो माँ को पथ्‍य दूँगा। मुझे शरबत न पिलाकर आपने मेरा खेल देखकर मुझे कुछ दे दिया होता, तो मुझे अधिक प्रसन्‍नता होती!”

 

मैं आश्‍चर्य से उस तेरह-चौदह वर्ष के लड़के को देखने लगा।

 

”हाँ, मैं सच कहता हूँ बाबूजी! माँजी बीमार हैं, इसीलिए मैं नहीं गया।”

 

”कहाँ?”

 

”जेल में! जब कुछ लोग खेल-तमाशा देखते ही हैं, तो मैं क्‍यों न दिखाकर माँ की दवा करूँ और अपना पेट भरूँ।”

 

मैंने दीर्घ नि:श्‍वास लिया। चारों ओर बिजली के लट्टू नाच रहे थे। मन व्‍यग्र हो उठा। मैंने उससे कहा, ”अच्‍छा चलो, निशाना लगाया जाए।”

 

हम दोनों उस जगह पर पहुँचे जहाँ खिलौने को गेंद से गिराया जाता था। मैंने बारह टिकट खरीदकर उस लड़के को दिए।

 

वह निकला पक्‍का निशानेबाज। उसकी कोई गेंद खाली नहीं गई। देखनेवाले दंग रह गए। उसने बारह खिलौनों को बटोर लिया, लेकिन उठाता कैसे? कुछ मेरी रूमाल में बँधे, कुछ जेब में रख लिये गए।

 

लड़के ने कहा, ”बाबूजी, आपको तमाशा दिखाऊँगा। बाहर आइए, मैं चलता हूँ।” वह नौ-दो ग्‍यारह हो गया। मैंने मन-ही-मन कहा, ‘इतनी जल्‍दी आँख बदल गई!”

 

में घूमकर पान की दुकान पर आ गया। पान खाकर बड़ी देर तक इधर-उधर टहलता-देखता रहा। झूले के पास लोगों का ऊपर-नीचे आना देखने लगा। अकस्‍मात् किसी ने ऊपर के हिंडोले से पुकारा, ”बाबूजी!”

 

मैंने पूछा, ”कौन?”

 

”मैं हूँ छोटा जादूगर।”

 

 

 

कलकत्‍ते के सुरम्‍य बोटैनिकल-उद्यान में लाल कमलिनी से भरी हुई एक छोटी-सी झील के किनारे घने वृक्षों की छाया में अपनी मंडली के साथ बैठा हुआ मैं जलपान कर रहा था। बातें हो रही थीं। इतने में वही छोटा जादूगर दिखाई पड़ा। हाथ में चारखाने का खादी का झोला, साफ जाँघिया और आधी बाँहों का कुरता। सिर पर मेरी रूमाल सूत की रस्‍सी से बँधी हुई थी। मस्‍तानी चाल में झूमता हुआ आकर वह कहने लगा –

 

”बाबूजी, नमस्‍ते! आज कहिए तो खेल दिखाऊँ?”

 

”नहीं जी, अभी हम लोग जलपान कर रहे हैं।”

 

”फिर इसके बाद क्‍या गाना-बजाना होगा, बाबूजी?”

 

”नहीं जी, तुमको….” क्रोध से मैं कुछ और कहने जा रहा था। श्रीमतीजी ने कहा, ”दिखलाओ जी, तुम तो अच्‍छे आए। भला, कुछ मन तो बहले।” मैं चुप हो गया, क्‍योंकि श्रीमतीजी की वाणी में वह माँ की-सी मिठास थी, जिसके सामने किसी भी लड़के को रोका नहीं जा सकता। उसने खेल आरंभ किया।

 

उस दिन कार्निवल के सब खिलौने उसके खेल में अपना अभिनय करने लगे। भालू मनाने लगा। बिल्‍ली रूठने लगी। बंदर घुड़कने लगा। गुड़िया का ब्‍याह हुआ। गुड्डा वर काना निकला। लड़के की वाचालता से ही अभिनय हो रहा था। सब हँसते लोट-पोट हो गए।

 

मैं सोच रहा था। बालक को आवश्‍यकता ने कितना शीघ्र चतुर बना दिया। यही तो संसार है।

 

ताश के सब पत्‍ते लाल हो गए। फिर सब काले हो गए। गले की सूत की डोरी टुकड़े-टुकड़े होकर जुड़ गई। लट्टू अपने से नाच रहे थे। मैंने कहा, ”अब हो चुका। अपना खेल बटोर लो, हम लोग भी अब जाएँगे।”

 

श्रीमतीजी ने धीरे से उसे एक रूपया दे दिया। वह उछल उठा।

 

मैंने कहा, ”लड़के!”

 

”छोटा जादूगर कहिए। यही मेरा नाम है। इसी से मेरी जीविका है।”

 

मैं कुछ बोलना ही चाहता था कि श्रीमतीजी ने कहा, ”अच्‍छा, तुम इस रुपए से क्‍या करोगे?”

 

”पहले भरपेट पकौड़ी खाऊँगा। फिर एक सूती कंबल लूँगा।”

 

मेरा क्रोध अब लौट आया। मैं अपने पर बहुत क्रुद्ध होकर सोचने लगा, ‘ओह! कितना स्‍वार्थी हूँ मैं। उसके एक रुपया पाने पर मैं ईर्ष्‍या करने लगा था न!”

 

वह नमस्‍कार करके चला गया। हम लोग लता-कुंज देखने के लिए चले।

 

उस छोटे से बनावटी जंगल में संध्‍या साँय-साँय करने लगी थी। अस्‍ताचलगामी सूर्य की अंतिम किरण वृक्षों की पत्तियों से विदाई ले रही थी। एक शांत वातावरण था। हम लोग धीरे-धीरे मोटर से हावड़ा की ओर आ रहे थे।

 

रह-रहकर छोटा जादूगर स्‍मरण हो आता था। तभी सचमुच वह एक झोंपड़ी के पास कंबल कंधे पर डाले मिल गया। मैंने मोटर रोककर उससे पूछा, ”तुम यहाँ कहाँ?”

 

”मेरी माँ यहीं है न! अब उसे अस्‍पताल वालों ने निकाल दिया है।” मैं उतर गया। उस झोंपड़ी में देखा तो एक स्‍त्री चिथड़ों से लदी हुई काँप रही थी।

 

छोटे जादूगर ने कंबल ऊपर से डालकर उसके शरीर से चिमटते हुए कहा, ”माँ!”

 

मेरी आँखों से आँसू निकल पड़े।

 

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बड़े दिन की छुट्टी बीत चली थी। मुझे अपने ऑफिस में समय से पहुँचना था। कलकत्‍ते से मन ऊब गया था। फिर भी चलते-चलते एक बार उस उद्यान को देखने की इच्‍छा हुई। साथ-ही-साथ जादूगर भी दिखाई पड़ जाता तो और भी…. मैं उस दिन अकेले ही चल पड़ा। जल्‍द लौट आना था।

 

दस बज चुके थे। मैंने देखा कि उस निर्मल धूप में सड़क के किनारे एक कपड़े पर छोटे जादूगर का रंगमंच सजा था। मैं मोटर रोककर उतर पड़ा। वहाँ बिल्‍ली रूठ रही थी। भालू मनाने चला था। ब्‍याह की तैयारी थी, यह सब होते हुए भी जादूगर की वाणी में वह प्रसन्‍नता की तरी नहीं थी। जब वह औरों को हँसाने की चेष्‍टा कर रहा था, तब जैसे स्‍वयं काँप जाता था। मानो उसके रोएँ रो रहे थे। मैं आश्‍चर्य से देख रहा था। खेल हो जाने पर पैसा बटोरकर उसने भीड़ में मुझे देखा। वह जैसे क्षण भर के लिए स्‍फूर्तिमान हो गया। मैंने उसकी पीठ थपथपाते हुए पूछा, ”आज तुम्‍हारा खेल जमा क्‍यों नहीं?”

 

”माँ ने कहा है कि आज तुरंत चले आना। मेरी अंतिम घड़ी समीप है।” अविचल भाव से उसने कहा।

 

”तब भी तुम खेल दिखलाने चले आए!” मैंने कुछ क्रोध से कहा। मनुष्‍य के सुख-दु:ख का माप अपना ही साधन तो है। उसके अनुपात से वह तुलना करता है।

 

उसके मुँह पर वहीं परिचित तिरस्‍कार की रेखा फूट पड़ी।

 

उसने कहा, ”क्‍यों न आता?”

 

और कुछ अधिक कहने में जैसे वह अपमान का अनुभव कर रहा था।

 

क्षण भर में मुझे अपनी भूल मालूम हो गई। उसके झोले को गाड़ी में फेंककर उसे भी बैठाते हुए मैंने कहा, ”जल्‍दी चलो।” मोटरवाला मेरे बताए हुए पथ पर चल पड़ा।

 

कुछ ही मिनटों में मैं झोंपड़े के पास पहुँचा। जादूगर दौड़कर झोंपड़े में माँ-माँ पुकारते हुए घुसा। मैं भी पीछे था, किंतु स्‍त्री के मुँह से, ‘बे…’ निकलकर रह गया। उसके दुर्बल हाथ उठकर गिर गए। जादूगर उससे लिपटा रो रहा था। मैं स्‍तब्‍ध था। उस उज्‍ज्‍वल धूप में समग्र संसार जैसे जादू-सा मेरे चारों ओर नृत्‍य करने लगा।

 

  कहानीकार – जय शंकर प्रसाद

 

ईदगाह हिंदी कहानी/ Edgaah hindi story

 हिंदी कहानियों के श्रेष्ठ संग्रह में आज की कहानी Edgaah hindi story ईदगाह मुंशी प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियों में से एक है। इस कहानी में मुंशी प्रेमचंद ने एक बुढ़ी गरीब दादी का अपने पोते और पोते का अपनी दादी केEdgaah प्रति मार्मिक प्रेम का बहुत ही अच्छा वर्णन किया है।
 
 
रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, यानी संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जायगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गयी। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते। इन्हें गृहस्थी की चिंताओं से क्या प्रयोजन! सेवैयों के लिए दूध ओर शक्कर घर में है या नहीं, इनकी बला से, ये तो सेवेयाँ खायेंगे। वह क्या जानें कि अब्बाजान क्यों बदहवास चौधरी कायमअली के घर दौड़े जा रहे हैं। उन्हें क्या खबर कि चौधरी आँखें बदल लें, तो यह सारी ईद मुहर्रम हो जाय। उनकी अपनी जेबों में तो कुबेर का धन भरा हुआ है। बार-बार जेब से अपना खजाना निकालकर गिनते हैं और खुश होकर फिर रख लेते हैं। महमूद गिनता है, एक-दो, दस,-बारह, उसके पास बारह पैसे हैं। मोहसिन के पास एक, दो, तीन, आठ, नौ, पंद्रह पैसे हैं। इन्हीं अनगिनती पैसों में अनगिनती चीजें लायेंगें- खिलौने, मिठाइयाँ, बिगुल, गेंद और जाने क्या-क्या। और सबसे ज्यादा प्रसन्न है हामिद। वह चार-पाँच साल का गरीब- सूरत, दुबला-पतला लड़का, जिसका बाप गत वर्ष हैजे की भेंट हो गया और माँ न जाने क्यों पीली होती-होती एक दिन मर गयी। किसी को पता क्या बीमारी है। कहती तो कौन सुनने वाला था? दिल पर जो कुछ बीतती थी, वह दिल में ही सहती थी ओर जब न सहा गया तो संसार से विदा हो गयी। अब हामिद अपनी बूढ़ी दादी अमीना की गोद में सोता है और उतना ही प्रसन्न है। उसके अब्बाजान रूपये कमाने गए हैं। बहुत-सी थैलियाँ लेकर आयेंगे। अम्मीजान अल्लाह मियाँ के घर से उसके लिए बड़ी अच्छी-अच्छी चीजें लाने गयी हैं, इसलिए हामिद प्रसन्न है। आशा तो बड़ी चीज है, और फिर बच्चों की आशा! उनकी कल्पना तो राई का पर्वत बना लेती है। हामिद के पाँव में जूते नहीं हैं, सिर पर एक पुरानी-धुरानी टोपी है, जिसका गोटा काला पड़ गया है, फिर भी वह प्रसन्न है। जब उसके अब्बाजान थैलियाँ और अम्मीजान नियामतें लेकर आयेंगी, तो वह दिल से अरमान निकाल लेगा। तब देखेगा, मोहसिन, नूरे और सम्मी कहाँ से उतने पैसे निकालेंगे। अभागिन अमीना अपनी कोठरी में बैठी रो रही है। आज ईद का दिन, उसके घर में दाना नहीं! आज आबिद होता, तो क्या इसी तरह ईद आती ओर चली जाती! इस अंधकार और निराशा में वह डूबी जा रही है। किसने बुलाया था इस निगोड़ी ईद को? इस घर में उसका काम नहीं, लेकिन हामिद! उसे किसी के मरने-जीने से क्या मतलब? उसके अन्दर प्रकाश है, बाहर आशा। विपत्ति अपना सारा दल-बल लेकर आये, हामिद की आनंद-भरी चितवन उसका विध्वंस कर देगी।
 
हामिद भीतर जाकर दादी से कहता है- तुम डरना नहीं अम्माँ, मैं सबसे पहले आऊँगा। बिल्कुल न डरना।
 
अमीना का दिल कचोट रहा है। गाँव के बच्चे अपने-अपने बाप के साथ जा रहे हैं। हामिद का बाप अमीना के सिवा और कौन है! उसे कैसे अकेले मेले जाने दे? उस भीड़-भाड़ से बच्चा कहीं खो जाय तो क्या हो? नहीं, अमीना उसे यों न जाने देगी। नन्ही-सी जान! तीन कोस चलेगा कैसे? पैर में छाले पड़ जायेंगे। जूते भी तो नहीं हैं। वह थोड़ी-थोड़ी दूर पर उसे गोद में ले लेती, लेकिन यहाँ सेवैयाँ कौन पकायेगा? पैसे होते तो लौटते-लौटते सब सामग्री जमा करके चटपट बना लेती। यहाँ तो घंटों चीजें जमा करते लगेंगे। माँगे का ही तो भरोसा ठहरा। उस दिन फहीमन के कपड़े सिले थे। आठ आने पैसे मिले थे। उस अठन्नी को ईमान की तरह बचाती चली आती थी इसी ईद के लिए लेकिन कल ग्वालन सिर पर सवार हो गयी तो क्या करती? हामिद के लिए कुछ नहीं है, तो दो पैसे का दूध तो चाहिए ही। अब तो कुल दो आने पैसे बच रहे हैं। तीन पैसे हामिद की जेब में, पाँच अमीना के बटवे में। यही तो बिसात है और ईद का त्यौहार, अल्लाह ही बेड़ा पार लगावे। धोबन और नाइन ओर मेहतरानी और चुड़िहारिन सभी तो आयेंगी। सभी को सेवैयाँ चाहिए और थोड़ा किसी को आँखों नहीं लगता। किस-किस सें मुँह चुरायेगी? और मुँह क्यों चुराये? साल भर का त्यौहार है। ज़िंदगी ख़ैरियत से रहे, उनकी तकदीर भी तो उसी के साथ है। बच्चे को खुदा सलामत रखे, यें दिन भी कट जायँगे।
 
गाँव से मेला चला। और बच्चों के साथ हामिद भी जा रहा था। कभी सबके सब दौड़कर आगे निकल जाते। फिर किसी पेड़ के नीचे खड़े होकर साथ वालों का इंतज़ार करते। यह लोग क्यों इतना धीरे-धीरे चल रहे हैं? हामिद के पैरो में तो जैसे पर लग गए हैं। वह कभी थक सकता है? शहर का दामन आ गया। सड़क के दोनों ओर अमीरों के बगीचे हैं। पक्की चारदीवारी बनी हुई है। पेड़ो में आम और लीचियाँ लगी हुई हैं। कभी-कभी कोई लड़का कंकड़ी उठाकर आम पर निशान लगाता है। माली अंदर से गाली देता हुआ निकलता है। लड़के वहाँ से एक फर्लांग पर हैं। खूब हँस रहे हैं। माली को कैसा उल्लू बनाया है।
 
बड़ी-बड़ी इमारतें आने लगीं। यह अदालत है, यह कालेज है, यह क्लब- घर है। इतने बड़े कालेज में कितने लड़के पढ़ते होंगे? सब लड़के नहीं हैं जी! बड़े-बड़े आदमी हैं, सच! उनकी बड़ी-बड़ी मूँछे हैं। इतने बड़े हो गए, अभी तक पढ़ने जाते हैं। न जाने कब तक पढ़ेंगे और क्या करेंगे इतना पढ़कर! हामिद के मदरसे में दो-तीन बड़े-बड़े लड़के हैं, बिल्कुल तीन कौड़ी के। रोज मार खाते हैं, काम से जी चुराने वाले। इस जगह भी उसी तरह के लोग होंगे ओर क्या। क्लब-घर में जादू होता है। सुना है, यहाँ मुर्दो की खोपड़ियाँ दौड़ती हैं। और बड़े-बड़े तमाशे होते हैं, पर किसी को अंदर नहीं जाने देते। और वहाँ शाम को साहब लोग खेलते हैं। बड़े-बड़े आदमी खेलते हैं, मूँछो दाढ़ी वाले। और मेमें भी खेलती हैं, सच! हमारी अम्माँ को यह दे दो, क्या नाम है, बैट, तो उसे पकड़ ही न सकें। घुमाते ही लुढ़क जायँ।
 
महमूद ने कहा- हमारी अम्मीजान का तो हाथ काँपने लगे, अल्ला कसम।
 
मोहसिन बोला- चलो, मनों आटा पीस डालती हैं। ज़रा-सा बैट पकड़ लेंगी, तो हाथ काँपने लगेंगे! सैकड़ों घड़े पानी रोज निकालती हैं। पाँच घड़े तो तेरी भैंस पी जाती है। किसी मेम को एक घड़ा पानी भरना पड़े, तो आँखों तले अँधेरा आ जाय।
 
महमूद- लेकिन दौड़ती तो नहीं, उछल-कूद तो नहीं सकतीं।
 
मोहसिन- हाँ, उछल-कूद तो नहीं सकतीं; लेकिन उस दिन मेरी गाय खुल गयी थी और चौधरी के खेत में जा पड़ी थी, अम्माँ इतना तेज दौड़ीं कि मैं उन्हें न पा सका, सच।
 
आगे चले। हलवाइयों की दुकानें शुरू हुईं। आज खूब सजी हुई थीं। इतनी मिठाइयाँ कौन खाता है? देखो न, एक-एक दूकान पर मनों होंगी। सुना है, रात को जिन्नात आकर खरीद ले जाते हैं। अब्बा कहते थे कि आधी रात को एक आदमी हर दुकान पर जाता है और जितना माल बचा होता है, वह तुलवा लेता है और सचमुच के रूपये देता है, बिल्कुल ऐसे ही रूपये।
 
हामिद को यकीन न आया- ऐसे रूपये जिन्नात को कहाँ से मिल जायेंगे?
 
मोहसिन ने कहा- जिन्नात को रूपये की क्या कमी? जिस खजाने में चाहैं चले जायँ। लोहे के दरवाजे तक उन्हें नहीं रोक सकते जनाब, आप हैं किस फेर में! हीरे-जवाहरात तक उनके पास रहते हैं। जिससे खुश हो गये, उसे टोकरों जवाहरात दे दिये। अभी यहीं बैठे हैं, पाँच मिनट में कलकत्ता पहुँच जायँ।
 
हामिद ने फिर पूछा- जिन्नात बहुत बड़े-बड़े होते हैं?
 
मोहसिन- एक-एक सिर आसमान के बराबर होता है जी! जमीन पर खड़ा हो जाय तो उसका सिर आसमान से जा लगे, मगर चाहे तो एक लोटे में घुस जाय।
 
हामिद- लोग उन्हें कैसे खुश करते होंगे? कोई मुझे यह मंतर बता दे तो एक जिन्न को खुश कर लूँ।
 
मोहसिन- अब यह तो मै नहीं जानता, लेकिन चौधरी साहब के काबू में बहुत-से जिन्नात हैं। कोई चीज चोरी जाय चौधरी साहब उसका पता लगा देंगे ओर चोर का नाम बता देंगे। जुमराती का बछवा उस दिन खो गया था। तीन दिन हैरान हुए, कहीं न मिला तब झख मारकर चौधरी के पास गये। चौधरी ने तुरन्त बता दिया, मवेशीखाने में है और वहीं मिला। जिन्नात आकर उन्हें सारे जहान की खबर दे जाते हैं।
 
अब उसकी समझ में आ गया कि चौधरी के पास क्यों इतना धन है और क्यों उनका इतना सम्मान है।
 
आगे चले। यह पुलिस लाइन है। यहीं सब कानिसटिबिल कवायद करते हैं। रैटन! फाय फो! रात को बेचारे घूम-घूमकर पहरा देते हैं, नहीं चोरियाँ हो जायँ। मोहसिन ने प्रतिवाद किया-यह कानिसटिबिल पहरा देते हैं? तभी तुम बहुत जानते हो अजी हजरत, यह चोरी करते हैं। शहर के जितने चोर-डाकू हैं, सब इनसे मिले रहते हैं।रात को ये लोग चोरों से तो कहते हैं, चोरी करो और आप दूसरे मुहल्ले में जाकर ‘जागते रहो! जागते रहो!’ पुकारते हैं। तभी इन लोगों के पास इतने रूपये आते हैं। मेरे मामू एक थाने में कानिसटिबिल हैं। बीस रूपया महीना पाते हैं, लेकिन पचास रूपये घर भेजते हैं। अल्ला कसम! मैंने एक बार पूछा था कि मामू, आप इतने रूपये कहाँ से पाते हैं? हँसकर कहने लगे- बेटा, अल्लाह देता है। फिर आप ही बोले-हम लोग चाहें तो एक दिन में लाखों मार लायें। हम तो इतना ही लेते हैं, जिसमें अपनी बदनामी न हो और नौकरी न चली जाय।
 
हामिद ने पूछा- यह लोग चोरी करवाते हैं, तो कोई इन्हें पकड़ता नहीं?
 
मोहसिन उसकी नादानी पर दया दिखाकर बोला- अरे, पागल! इन्हें कौन पकड़ेगा! पकड़ने वाले तो यह लोग खुद हैं, लेकिन अल्लाह, इन्हें सजा भी खूब देता है। हराम का माल हराम में जाता है। थोड़े ही दिन हुए, मामू के घर में आग लग गयी। सारी लेई-पूँजी जल गयी। एक बरतन तक न बचा। कई दिन पेड़ के नीचे सोये, अल्ला कसम, पेड़ के नीचे! फिर न जाने कहाँ से एक सौ कर्ज लाये तो बरतन-भांडे आये।
 
हामिद-एक सौ तो पचास से ज्यादा होते हैं?
 
‘कहाँ पचास, कहाँ एक सौ। पचास एक थैली-भर होता है। सौ तो दो थैलियों में भी न आऍं?
 
अब बस्ती घनी होने लगी। ईदगाह जानेवालों की टोलियाँ नजर आने लगी। एक से एक भड़कीले वस्त्र पहने हुए। कोई इक्के-ताँगे पर सवार, कोई मोटर पर, सभी इत्र में बसे, सभी के दिलों में उमंग। ग्रामीणों का यह छोटा-सा दल अपनी विपन्नता से बेखबर, सन्तोष ओर धैर्य में मगन चला जा रहा था। बच्चों के लिए नगर की सभी चीजें अनोखी थीं। जिस चीज की ओर ताकते, ताकते ही रह जाते और पीछे से बार-बार हार्न की आवाज होने पर भी न चेतते। हामिद तो मोटर के नीचे जाते-जाते बचा।
 
सहसा ईदगाह नजर आयी। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया है। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गयी हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नये आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया ओर पिछली पंक्ति में खड़े हो गये। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं, और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जायँ, और यही क्रम चलता रहा। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोये हुए है।
 
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नमाज खत्म हो गयी है। लोग आपस में गले मिल रहे हैं। तब मिठाई और खिलौने की दूकान पर धावा होता है। ग्रामीणों का यह दल इस विषय में बालकों से कम उत्साही नहीं है। यह देखो, हिंडोला है एक पैसा देकर चढ़ जाओ। कभी आसमान पर जाते हुए मालूम होगें, कभी जमीन पर गिरते हुए। यह चर्खी है, लकड़ी के हाथी, घोड़े, ऊँट, छड़ों में लटके हुए हैं। एक पैसा देकर बैठ जाओ और पच्चीस चक्करों का मजा लो। महमूद और मोहसिन ओर नूरे ओर सम्मी इन घोड़ों ओर ऊँटों पर बैठते हैं। हामिद दूर खड़ा है। तीन ही पैसे तो उसके पास हैं। अपने कोष का एक तिहाई जरा-सा चक्कर खाने के लिए नहीं दे सकता।
 
सब चर्खियों से उतरते हैं। अब खिलौने लेंगे। इधर दूकानों की कतार लगी हुई है। तरह-तरह के खिलौने हैं-सिपाही और गुजरिया, राजा और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किये चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए है। मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेलना ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वमता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में कानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किये चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं। हामिद के पास कुल तीन पैसे हैं, इतने महँगे खिलौने वह कैसे ले? खिलौना कहीं हाथ से छूट पड़े तो चूर-चूर हो जाय। जरा पानी पड़े तो सारा रंग घुल जाय। ऐसे खिलौने लेकर वह क्या करेगा; किस काम के!
 
मोहसिन कहता है- मेरा भिश्ती रोज पानी दे जायगा साँझ-सबेरे।
 
महमूद- और मेरा सिपाही घर का पहरा देगा कोई चोर आयेगा, तो फौरन बंदूक से फैर कर देगा।
 
नूरे- और मेरा वकील खूब मुकदमा लड़ेगा।
 
सम्मी- और मेरी धोबिन रोज कपड़े धोयेगी।
 
हामिद खिलौनों की निंदा करता है- मिट्टी ही के तो हैं, गिरें तो चकनाचूर हो जायँ, लेकिन ललचाई हुई आँखों से खिलौनों को देख रहा है और चाहता है कि जरा देर के लिए उन्हें हाथ में ले सकता। उसके हाथ अनायास ही लपकते हैं, लेकिन लड़के इतने त्यागी नहीं होते हैं, विशेषकर जब अभी नया शौक है। हामिद ललचाता रह जाता है।
 
खिलौने के बाद मिठाइयाँ आती हैं। किसी ने रेवड़ियाँ ली हैं, किसी ने गुलाबजामुन किसी ने सोहन हलवा। मजे से खा रहे हैं। हामिद बिरादरी से पृथक है। अभागे के पास तीन पैसे हैं। क्यों नहीं कुछ लेकर खाता? ललचायी आँखों से सबकी ओर देखता है।
 
मोहसिन कहता है- हामिद रेवड़ी ले जा, कितनी खुशबूदार है!
 
हामिद को संदेह हुआ, ये केवल क्रूर विनोद है, मोहसिन इतना उदार नहीं है, लेकिन यह जानकर भी वह उसके पास जाता है। मोहसिन दोने से एक रेवड़ी निकालकर हामिद की ओर बढ़ाता है। हामिद हाथ फैलाता है। मोहसिन रेवड़ी अपने मुँह में रख लेता है। महमूद, नूरे और सम्मी खूब तालियाँ बजा-बजाकर हँसते हैं। हामिद खिसिया जाता है।
 
मोहसिन- अच्छा, अबकी जरूर देंगे हामिद, अल्लाह कसम, ले जाव।
 
हामिद- रखे रहो। क्या मेरे पास पैसे नहीं हैं?
 
सम्मी- तीन ही पैसे तो हैं। तीन पैसे में क्या-क्या लोगे?
 
महमूद- हमसे गुलाबजामुन ले जाव हामिद। मोहमिन बदमाश है।
 
हामिद- मिठाई कौन बड़ी नेमत है। किताब में इसकी कितनी बुराइयाँ लिखी हैं।
 
मोहसिन- लेकिन दिल में कह रहे होंगे कि मिले तो खा लें। अपने पैसे क्यों नहीं निकालते?
 
महमूद- हम समझते हैं, इसकी चालाकी। जब हमारे सारे पैसे खर्च हो जायेंगे, तो हमें ललचा-ललचाकर खायगा।
 
मिठाइयों के बाद कुछ दूकानें लोहे की चीजों की, कुछ गिलट और कुछ नकली गहनों की। लड़कों के लिए यहाँ कोई आकर्षण न था। वे सब आगे बढ़ जाते हैं, हामिद लोहे की दुकान पर रूक जाता है। कई चिमटे रखे हुए थे। उसे खयाल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होंगी! फिर उनकी उंगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जायगी। खिलौने से क्या फायदा? व्यर्थ में पैसे खराब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। यह तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जायेंगे या छोटे बच्चे जो मेले में नहीं आये हैं जिद कर के ले लेंगे और तोड़ डालेंगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्माँ बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाजार आयें और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं? रोज हाथ जला लेती हैं।
 
हामिद के साथी आगे बढ़ गये हैं। सबील पर सब-के-सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते है, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खायें मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जायगी। तब घर से पैसे चुरायेंगे और मार खायेंगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी? अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी-मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआयें देगा? बड़ों की दुआयें सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मेरे पास पैसे नहीं हैं।तभी तो मोहसिन और महमूद यों मिजाज दिखाते हैं। मैं भी इनसे मिजाज दिखाऊँगा। खेलें खिलौने और खायें मिठाइयाँ। मै नहीं खेलता खिलौने, किसी का मिजाज क्यों सहूँ? मैं गरीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाता। आखिर अब्बाजान कभीं न कभी आयेंगे। अम्मा भी आयेंगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे? एक-एक को टोकरियों खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब खूब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से। उसने दुकानदार से पूछा- यह चिमटा कितने का है?
 
दुकानदार ने उसकी ओर देखा और कोई आदमी साथ न देखकर कहा- तुम्हारे काम का नहीं है जी!
 
‘बिकाऊ है कि नहीं?’
 
‘बिकाऊ क्यों नहीं है? और यहाँ क्यों लाद लाये हैं?’
 
तो बताते क्यों नहीं, कै पैसे का है?’
 
‘छ: पैसे लगेंगे।’
 
हामिद का दिल बैठ गया।
 
‘ठीक-ठीक पाँच पैसे लगेंगे, लेना हो लो, नहीं चलते बनो।’
 
हामिद ने कलेजा मजबूत करके कहा- तीन पैसे लोगे?
 
यह कहता हुआ वह आगे बढ़ गया कि दुकानदार की घुड़कियाँ न सुने। लेकिन दुकानदार ने घुड़कियाँ नहीं दी। बुलाकर चिमटा दे दिया। हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
 
मोहसिन ने हँसकर कहा- यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा?
 
हामिद ने चिमटे को जमीन पर पटककर कहा- जरा अपना भिश्ती जमीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जायँ बच्चू की।
 
महमूद बोला-तो यह चिमटा कोई खिलौना है?
 
हामिद- खिलौना क्यों नही है! अभी कंधे पर रखा, बंदूक हो गयी। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाय। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगायें, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नही कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
 
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला- मेरी खँजरी से बदलोगे? दो आने की है।
 
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा- मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाय तो खत्म हो जाय। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
 
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया, अब पैसे किसके पास धरे हैं? फिर मेले से दूर निकल आये हैं, नौ कब के बज ग्ये, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
 
अब बालकों के दो दल हो गये हैं। मोहसिन, मह्मूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाय तो मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जायँ, मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक छोड़कर भागें, वकील साहब की नानी मर जाय, चोगे में मुँह छिपाकर जमीन पर लेट जायँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रूस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जायगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
 
मोहसिन ने एड़ी-चोटी का जोर लगाकर कहा- अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता?
 
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा- भिश्ती को एक डाँट बतायेगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वाडर पर छिड़कने लगेगा।
 
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई- अगर बच्चा पकड़ जायँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।
 
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा- हमें पकड़ने कौन आयेगा?
 
नूरे ने अकड़कर कहा- यह सिपाही बंदूकवाला।
 
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा- यह बेचारे हम बहादुर रूस्तमे-हिंद को पकड़ेंगे! अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाय। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!
 
मोहसिन को एक नयी चोट सूझ गयी- तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज आग में जलेगा।
 
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जायगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया- आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जायेंगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रूस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
 
महमूद ने एक जोर लगाया- वकील साहब कुरसी-मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहेगा।
 
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है?
 
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की- मेरा चिमटा बावरचीखाने में नही रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका कानून उनके पेट में डाल देगा।
 
बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी; लेकिन कानून को पेट में डालने वाली बात छा गयी। ऐसी छा गयी कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गये मानो कोई धेलचा कनकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। कानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अंदर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रूस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।
 
विजेता को हारनेवालों से जो सत्कार मिलना स्वाभविक है, वह हामिद को भी मिला। औरों ने तीन-तीन, चार-चार आने पैसे खर्च किए, पर कोई काम की चीज न ले सके। हामिद ने तीन पैसे में रंग जमा लिया। सच ही तो है, खिलौनों का क्या भरोसा? टूट-फूट जायँगे। हामिद का चिमटा तो बना रहेगा बरसों?
 
संधि की शर्तें तय होने लगीं। मोहसिन ने कहा- जरा अपना चिमटा दो, हम भी देखें। तुम हमारा भिश्ती लेकर देखो।
 
महमूद और नूरे ने भी अपने-अपने खिलौने पेश किये।
 
हामिद को इन शर्तों को मानने में कोई आपत्ति न थी। चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आये। कितने खूबसूरत खिलौने हैं।
 
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे- मैं तुम्हे चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबरी करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का खूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।
 
मोहसिन- लेकिन इन खिलौनों के लिए कोई हमें दुआ तो न देगा?
 
महमूद- दुआ को लिये फिरते हो। उल्टे मार न पड़े। अम्माँ जरूर कहेंगी कि मेले में यही मिट्टी के खिलौने मिले?
 
हामिद को स्वीकार करना पड़ा कि खिलौनों को देखकर किसी की माँ इतनी खुश न होंगी, जितनी दादी चिमटे को देखकर होंगी। तीन पैसों ही में तो उसे सब कुछ करना था ओर उन पैसों के इस उपयोग पर पछतावे की बिल्कुल जरूरत न थी। फिर अब तो चिमटा रूस्तमें-हिन्द है ओर सभी खिलौनों का बादशाह।
 
रास्ते में महमूद को भूख लगी। उसके बाप ने केले खाने को दिये। महमूद ने केवल हामिद को साझी बनाया। उसके अन्य मित्र मुँह ताकते रह गये। यह उस चिमटे का प्रसाद था।
 
3
 
ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गयी। मेलेवाले आ गये। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दानों खुब रोये। उनकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ीं और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाये।
 
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज्यादा गौरवमय हुआ। वकील जमीन पर या ताक पर तो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गयी। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। अदालतों में खस की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हैं। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! कानून की गर्मी दिमाग पर चढ़ जायगी कि नहीं? बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे। मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गयी।
 
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चलें। वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आयी, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाये गये, जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठायी और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी ही होनी चाहिये। महमूद को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक लिये जमीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।
 
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डाक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।
 
अब मियाँ हामिद का हाल सुनिए। अमीना उसकी आवाज सुनते ही दौड़ी और उसे गोद में उठाकर प्यार करने लगी। सहसा उसके हाथ में चिमटा देखकर वह चौंकी।
 
‘यह चिमटा कहाँ था?’
 
‘मैंने मोल लिया है।
 
‘कै पैसे में?’
 
‘तीन पैसे दिये।’
 
अमीना ने छाती पीट ली। यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया। लाया क्या, चिमटा! ‘सारे मेले में तुझे और कोई चीज न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया।
 
हामिद ने अपराधी भाव से कहा-तुम्हारी उँगलियाँ तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैने इसे लिया।
 
बुढ़िया का क्रोध तुरन्त स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है। यह मूक स्नेह था, खूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ। बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहाँ भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही। अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया।
 
और अब एक बड़ी विचित्र बात हुई। हामिद के इस चिमटे से भी विचित्र। बच्चे हामिद ने बूढ़े हामिद का पार्ट खेला था। बुढ़िया अमीना बालिका अमीना बन गयी। वह रोने लगी। दामन फैलाकर हामिद को दुआएं देती जाती थी और आँसू की बड़ी-बड़ी बूँदें गिराती जाती थी। हामिद इसका रहस्य क्या समझता।
 
 
 

हिंदी कहानी – उसने कहा था/ usne kha tha

usne kha tha हिदी स्टोरी  चन्द्रधर शर्मा गुलेरी की एक श्रेष्ठ  कहानी है ।
 
 
यह एक love story ( प्यार की कहानी) है जिसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी जी ने लिखी है।
 
हिंदी कहानी
 

 

 
बड़े-बड़े शहरों के इक्के-गाड़ीवालों की जबान के कोड़ों से जिनकी पीठ छिल गई है, और कान पक गए हैं, उनसे हमारी प्रार्थना है कि अमृतसर के बंबूकार्टवालों की बोली का मरहम लगावें। जब बड़े-बड़े शहरों की चौड़ी सड़कों पर घोड़े की पीठ चाबुक से धुनते हुए, इक्केवाले कभी घोड़े की नानी से अपना निकट-संबंध स्थिर करते हैं, कभी राह चलते पैदलों की आँखों के न होने पर तरस खाते हैं, कभी उनके पैरों की अँगुलियों के पोरों को चींथ कर अपने-ही को सताया हुआ बताते हैं, और संसार-भर की ग्लानि, निराशा और क्षोभ के अवतार बने, नाक की सीध चले जाते हैं, तब अमृतसर में उनकी बिरादरीवाले तंग चक्करदार गलियों में, हर-एक लड्ढीवाले के लिए ठहर कर सब्र का समुद्र उमड़ा कर बचो खालसा जी। हटो भाई जी। ठहरना भाई। आने दो लाला जी। हटो बाछा, कहते हुए सफेद फेंटों, खच्चरों और बत्तकों, गन्ने और खोमचे और भारेवालों के जंगल में से राह खेते हैं। क्या मजाल है कि जी और साहब बिना सुने किसी को हटना पड़े। यह बात नहीं कि उनकी जीभ चलती नहीं; पर मीठी छुरी की तरह महीन मार करती हुई। यदि कोई बुढ़िया बार-बार चितौनी देने पर भी लीक से नहीं हटती, तो उनकी बचनावली के ये नमूने हैं – हट जा जीणे जोगिए; हट जा करमाँवालिए; हट जा पुत्तां प्यारिए; बच जा लंबी वालिए। समष्टि में इनके अर्थ हैं, कि तू जीने योग्य है, तू भाग्योंवाली है, पुत्रों को प्यारी है, लंबी उमर तेरे सामने है, तू क्यों मेरे पहिए के नीचे आना चाहती है? बच जा।
 
ऐसे बंबूकार्टवालों के बीच में होकर एक लड़का और एक लड़की चौक की एक दुकान पर आ मिले। उसके बालों और इसके ढीले सुथने से जान पड़ता था कि दोनों सिख हैं। वह अपने मामा के केश धोने के लिए दही लेने आया था, और यह रसोई के लिए बड़ियाँ। दुकानदार एक परदेसी से गुथ रहा था, जो सेर-भर गीले पापड़ों की गड्डी को गिने बिना हटता न था।
 
    ‘तेरे घर कहाँ हैं?’
    ‘मगरे में; और तेरे?’
    ‘माँझे में; यहाँ कहाँ रहती है?’
    ‘अतरसिंह की बैठक में; वे मेरे मामा होते हैं।’
    ‘मैं भी मामा के यहाँ आया हूँ, उनका घर गुरु बजार में हैं।’
 
इतने में दुकानदार निबटा, और इनका सौदा देने लगा। सौदा ले कर दोनों साथ-साथ चले। कुछ दूर जा कर लड़के ने मुसकरा कर पूछा, – ‘तेरी कुड़माई हो गई?’ इस पर लड़की कुछ आँखें चढ़ा कर धत् कह कर दौड़ गई, और लड़का मुँह देखता रह गया।
 
दूसरे-तीसरे दिन सब्जीवाले के यहाँ, दूधवाले के यहाँ अकस्मात दोनों मिल जाते। महीना-भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फिर पूछा, तेरी कुड़माई हो गई? और उत्तर में वही ‘धत्’ मिला। एक दिन जब फिर लड़के ने वैसे ही हँसी में चिढ़ाने के लिए पूछा तो लड़की, लड़के की संभावना के विरुद्ध बोली – ‘हाँ हो गई।’
 
‘कब?’
 
‘कल, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू।’ लड़की भाग गई। लड़के ने घर की राह ली। रास्ते में एक लड़के को मोरी में ढकेल दिया, एक छावड़ीवाले की दिन-भर की कमाई खोई, एक कुत्ते पर पत्थर मारा और एक गोभीवाले के ठेले में दूध उँड़ेल दिया। सामने नहा कर आती हुई किसी वैष्णवी से टकरा कर अंधे की उपाधि पाई। तब कहीं घर पहुँचा।
 
 
 
2
 
‘राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है। दिन-रात खंदकों में बैठे हड्डियाँ अकड़ गईं। लुधियाना से दस गुना जाड़ा और मेंह और बरफ ऊपर से। पिंडलियों तक कीचड़ में धँसे हुए हैं। जमीन कहीं दिखती नहीं; – घंटे-दो-घंटे में कान के परदे फाड़नेवाले धमाके के साथ सारी खंदक हिल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दिन में पचीस जलजले होते हैं। जो कहीं खंदक से बाहर साफा या कुहनी निकल गई, तो चटाक से गोली लगती है। न मालूम बेईमान मिट्टी में लेटे हुए हैं या घास की पत्तियों में छिपे रहते हैं।’
 
‘लहनासिंह, और तीन दिन हैं। चार तो खंदक में बिता ही दिए। परसों रिलीफ आ जाएगी और फिर सात दिन की छुट्टी। अपने हाथों झटका करेंगे और पेट-भर खा कर सो रहेंगे। उसी फिरंगी मेम के बाग में – मखमल का-सा हरा घास है। फल और दूध की वर्षा कर देती है। लाख कहते हैं, दाम नहीं लेती। कहती है, तुम राजा हो, मेरे मुल्क को बचाने आए हो।’
 
‘चार दिन तक एक पलक नींद नहीं मिली। बिना फेरे घोड़ा बिगड़ता है और बिना लड़े सिपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर मार्च का हुक्म मिल जाय। फिर सात जरमनों को अकेला मार कर न लौटूँ, तो मुझे दरबार साहब की देहली पर मत्था टेकना नसीब न हो। पाजी कहीं के, कलों के घोड़े – संगीन देखते ही मुँह फाड़ देते हैं, और पैर पकड़ने लगते हैं। यों अँधेरे में तीस-तीस मन का गोला फेंकते हैं। उस दिन धावा किया था – चार मील तक एक जर्मन नहीं छोडा था। पीछे जनरल ने हट जाने का कमान दिया, नहीं तो – ‘
 
‘नहीं तो सीधे बर्लिन पहुँच जाते! क्यों?’ सूबेदार हजारासिंह ने मुसकरा कर कहा -‘लड़ाई के मामले जमादार या नायक के चलाए नहीं चलते। बड़े अफसर दूर की सोचते हैं। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो क्या होगा?’
 
‘सूबेदार जी, सच है,’ लहनसिंह बोला – ‘पर करें क्या? हड्डियों-हड्डियों में तो जाड़ा धँस गया है। सूर्य निकलता नहीं, और खाईं में दोनों तरफ से चंबे की बावलियों के से सोते झर रहे हैं। एक धावा हो जाय, तो गरमी आ जाय।’
 
‘उदमी, उठ, सिगड़ी में कोले डाल। वजीरा, तुम चार जने बालटियाँ ले कर खाईं का पानी बाहर फेंको। महासिंह, शाम हो गई है, खाईं के दरवाजे का पहरा बदल ले।’ – यह कहते हुए सूबेदार सारी खंदक में चक्कर लगाने लगे।
 
वजीरासिंह पलटन का विदूषक था। बाल्टी में गँदला पानी भर कर खाईं के बाहर फेंकता हुआ बोला – ‘मैं पाधा बन गया हूँ। करो जर्मनी के बादशाह का तर्पण!’ इस पर सब खिलखिला पड़े और उदासी के बादल फट गए।
 
लहनासिंह ने दूसरी बाल्टी भर कर उसके हाथ में दे कर कहा – ‘अपनी बाड़ी के खरबूजों में पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब-भर में नहीं मिलेगा।’
 
‘हाँ, देश क्या है, स्वर्ग है। मैं तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग लूँगा और फलों के बूटे लगाऊँगा।’
 
‘लाड़ी होराँ को भी यहाँ बुला लोगे? या वही दूध पिलानेवाली फरंगी मेम – ‘
 
‘चुप कर। यहाँवालों को शरम नहीं।’
 
‘देश-देश की चाल है। आज तक मैं उसे समझा न सका कि सिख तंबाखू नहीं पीते। वह सिगरेट देने में हठ करती है, ओठों में लगाना चाहती है,और मैं पीछे हटता हूँ तो समझती है कि राजा बुरा मान गया, अब मेरे मुल्क के लिए लड़ेगा नहीं।’
 
‘अच्छा, अब बोधासिंह कैसा है?’
 
‘अच्छा है।’
 
‘जैसे मैं जानता ही न होऊँ! रात-भर तुम अपने कंबल उसे उढ़ाते हो और आप सिगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो। अपने सूखे लकड़ी के तख्तों पर उसे सुलाते हो, आप कीचड़ में पड़े रहते हो। कहीं तुम न माँदे पड़ जाना। जाड़ा क्या है, मौत है, और निमोनिया से मरनेवालों को मुरब्बे नहीं मिला करते।’
 
‘मेरा डर मत करो। मैं तो बुलेल की खड्ड के किनारे मरूँगा। भाई कीरतसिंह की गोदी पर मेरा सिर होगा और मेरे हाथ के लगाए हुए आँगन के आम के पेड़ की छाया होगी।’
 
वजीरासिंह ने त्योरी चढ़ा कर कहा – ‘क्या मरने-मारने की बात लगाई है? मरें जर्मनी और तुरक! हाँ भाइयों, कैसे –
 
    दिल्ली शहर तें पिशोर नुं जांदिए,
    कर लेणा लौंगां दा बपार मड़िए;
    कर लेणा नाड़ेदा सौदा अड़िए –
    (ओय) लाणा चटाका कदुए नुँ।
    कद्दू बणया वे मजेदार गोरिए,
    हुण लाणा चटाका कदुए नुँ।।
 
कौन जानता था कि दाढ़ियोंवाले, घरबारी सिख ऐसा लुच्चों का गीत गाएँगे, पर सारी खंदक इस गीत से गूँज उठी और सिपाही फिर ताजे हो गए, मानों चार दिन से सोते और मौज ही करते रहे हों।
 
 
 
3
 
दो पहर रात गई है। अँधेरा है। सन्नाटा छाया हुआ है। बोधासिंह खाली बिसकुटों के तीन टिनों पर अपने दोनों कंबल बिछा कर और लहनासिंह के दो कंबल और एक बरानकोट ओढ़ कर सो रहा है। लहनासिंह पहरे पर खड़ा हुआ है। एक आँख खाईं के मुँह पर है और एक बोधासिंह के दुबले शरीर पर। बोधासिंह कराहा।
 
‘क्यों बोधा भाई, क्या है?’
 
‘पानी पिला दो।’
 
लहनासिंह ने कटोरा उसके मुँह से लगा कर पूछा – ‘कहो कैसे हो?’ पानी पी कर बोधा बोला – ‘कँपनी छुट रही है। रोम-रोम में तार दौड़ रहे हैं। दाँत बज रहे हैं।’
 
‘अच्छा, मेरी जरसी पहन लो!’
 
‘और तुम?’
 
‘मेरे पास सिगड़ी है और मुझे गर्मी लगती है। पसीना आ रहा है।’
 
‘ना, मैं नहीं पहनता। चार दिन से तुम मेरे लिए – ‘
 
‘हाँ, याद आई। मेरे पास दूसरी गरम जरसी है। आज सबेरे ही आई है। विलायत से बुन-बुन कर भेज रही हैं मेमें, गुरु उनका भला करें।’ यों कह कर लहना अपना कोट उतार कर जरसी उतारने लगा।
 
‘सच कहते हो?’
 
‘और नहीं झूठ?’ यों कह कर नाँहीं करते बोधा को उसने जबरदस्ती जरसी पहना दी और आप खाकी कोट और जीन का कुरता भर पहन-कर पहरे पर आ खड़ा हुआ। मेम की जरसी की कथा केवल कथा थी।
 
आधा घंटा बीता। इतने में खाईं के मुँह से आवाज आई – ‘सूबेदार हजारासिंह।’
 
‘कौन लपटन साहब? हुक्म हुजूर!’ – कह कर सूबेदार तन कर फौजी सलाम करके सामने हुआ।
 
‘देखो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर की दूरी पर पूरब के कोने में एक जर्मन खाईं है। उसमें पचास से ज्यादा जर्मन नहीं हैं। इन पेड़ों के नीचे-नीचे दो खेत काट कर रास्ता है। तीन-चार घुमाव हैं। जहाँ मोड़ है वहाँ पंद्रह जवान खड़े कर आया हूँ। तुम यहाँ दस आदमी छोड़ कर सब को साथ ले उनसे जा मिलो। खंदक छीन कर वहीं, जब तक दूसरा हुक्म न मिले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।’
 
‘जो हुक्म।’
 
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी कंबल उतार कर चलने लगा। तब लहनासिंह ने उसे रोका। लहनासिंह आगे हुआ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उँगली से बोधा की ओर इशारा किया। लहनासिंह समझ कर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रहें, इस पर बड़ी हुज्जत हुई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझा कर सूबेदार ने मार्च किया। लपटन साहब लहना की सिगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाने लगे। दस मिनट बाद उन्होंने लहना की ओर हाथ बढ़ा कर कहा – ‘लो तुम भी पियो।’
 
आँख मारते-मारते लहनासिंह सब समझ गया। मुँह का भाव छिपा कर बोला – ‘लाओ साहब।’ हाथ आगे करते ही उसने सिगड़ी के उजाले में साहब का मुँह देखा। बाल देखे। तब उसका माथा ठनका। लपटन साहब के पट्टियों वाले बाल एक दिन में ही कहाँ उड़ गए और उनकी जगह कैदियों से कटे बाल कहाँ से आ गए?’ शायद साहब शराब पिए हुए हैं और उन्हें बाल कटवाने का मौका मिल गया है? लहनासिंह ने जाँचना चाहा। लपटन साहब पाँच वर्ष से उसकी रेजिमेंट में थे।
 
‘क्यों साहब, हम लोग हिंदुस्तान कब जाएँगे?’
 
‘लड़ाई खत्म होने पर। क्यों, क्या यह देश पसंद नहीं ?’
 
‘नहीं साहब, शिकार के वे मजे यहाँ कहाँ? याद है, पारसाल नकली लड़ाई के पीछे हम आप जगाधरी जिले में शिकार करने गए थे –
 
‘हाँ, हाँ – ‘
 
‘वहीं जब आप खोते पर सवार थे और और आपका खानसामा अब्दुल्ला रास्ते के एक मंदिर में जल चढ़ाने को रह गया था? बेशक पाजी कहीं का – सामने से वह नील गाय निकली कि ऐसी बड़ी मैंने कभी न देखी थीं। और आपकी एक गोली कंधे में लगी और पुट्ठे में निकली। ऐसे अफसर के साथ शिकार खेलने में मजा है। क्यों साहब, शिमले से तैयार होकर उस नील गाय का सिर आ गया था न? आपने कहा था कि रेजमेंट की मैस में लगाएँगे।’
 
‘हाँ पर मैंने वह विलायत भेज दिया – ‘
 
‘ऐसे बड़े-बड़े सींग! दो-दो फुट के तो होंगे?’
 
‘हाँ, लहनासिंह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सिगरेट नहीं पिया?’
 
‘पीता हूँ साहब, दियासलाई ले आता हूँ’ – कह कर लहनासिंह खंदक में घुसा। अब उसे संदेह नहीं रहा था। उसने झटपट निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।
 
अँधेरे में किसी सोनेवाले से वह टकराया।
 
‘कौन? वजीरासिंह?’
 
‘हाँ, क्यों लहना? क्या कयामत आ गई? जरा तो आँख लगने दी होती?’
 
 
 
4
 
‘होश में आओ। कयामत आई है और लपटन साहब की वर्दी पहन कर आई है।’
 
‘क्या?’
 
‘लपटन साहब या तो मारे गए है या कैद हो गए हैं। उनकी वर्दी पहन कर यह कोई जर्मन आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नहीं देखा। मैंने देखा और बातें की है। सौहरा साफ उर्दू बोलता है, पर किताबी उर्दू। और मुझे पीने को सिगरेट दिया है?’
 
‘तो अब!’
 
‘अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होराँ, कीचड़ में चक्कर काटते फिरेंगे और यहाँ खाईं पर धावा होगा। उठो, एक काम करो। पल्टन के पैरों के निशान देखते-देखते दौड़ जाओ। अभी बहुत दूर न गए होंगे।
 
सूबेदार से कहो एकदम लौट आएँ। खंदक की बात झूठ है। चले जाओ, खंदक के पीछे से निकल जाओ। पत्ता तक न खड़के। देर मत करो।’
 
‘हुकुम तो यह है कि यहीं – ‘
 
‘ऐसी तैसी हुकुम की! मेरा हुकुम – जमादार लहनासिंह जो इस वक्त यहाँ सब से बड़ा अफसर है, उसका हुकुम है। मैं लपटन साहब की खबर लेता हूँ।’
 
‘पर यहाँ तो तुम आठ है।’
 
‘आठ नहीं, दस लाख। एक-एक अकालिया सिख सवा लाख के बराबर होता है। चले जाओ।’
 
लौट कर खाईं के मुहाने पर लहनासिंह दीवार से चिपक गया। उसने देखा कि लपटन साहब ने जेब से बेल के बराबर तीन गोले निकाले। तीनों को जगह-जगह खंदक की दीवारों में घुसेड़ दिया और तीनों में एक तार सा बाँध दिया। तार के आगे सूत की एक गुत्थी थी, जिसे सिगड़ी के पास रखा। बाहर की तरफ जा कर एक दियासलाई जला कर गुत्थी पर रखने –
 
इतने में बिजली की तरह दोनों हाथों से उल्टी बंदूक को उठा कर लहनासिंह ने साहब की कुहनी पर तान कर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दियासलाई गिर पड़ी। लहनासिंह ने एक कुंदा साहब की गर्दन पर मारा और साहब ‘ऑख! मीन गौट्ट’ कहते हुए चित्त हो गए। लहनासिंह ने तीनों गोले बीन कर खंदक के बाहर फेंके और साहब को घसीट कर सिगड़ी के पास लिटाया। जेबों की तलाशी ली। तीन-चार लिफाफे और एक डायरी निकाल कर उन्हें अपनी जेब के हवाले किया।
 
साहब की मूर्छा हटी। लहनासिंह हँस कर बोला – ‘क्यों लपटन साहब? मिजाज कैसा है? आज मैंने बहुत बातें सीखीं। यह सीखा कि सिख सिगरेट पीते हैं। यह सीखा कि जगाधरी के जिले में नीलगाएँ होती हैं और उनके दो फुट चार इंच के सींग होते हैं। यह सीखा कि मुसलमान खानसामा मूर्तियों पर जल चढ़ाते हैं और लपटन साहब खोते पर चढ़ते हैं। पर यह तो कहो, ऐसी साफ उर्दू कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बिना डेम के पाँच लफ्ज भी नहीं बोला करते थे।’
 
लहना ने पतलून के जेबों की तलाशी नहीं ली थी। साहब ने मानो जाड़े से बचने के लिए, दोनों हाथ जेबों में डाले।
 
लहनासिंह कहता गया – ‘चालाक तो बड़े हो पर माँझे का लहना इतने बरस लपटन साहब के साथ रहा है। उसे चकमा देने के लिए चार आँखें चाहिए। तीन महीने हुए एक तुरकी मौलवी मेरे गाँव आया था। औरतों को बच्चे होने के ताबीज बाँटता था और बच्चों को दवाई देता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बिछा कर हुक्का पीता रहता था और कहता था कि जर्मनीवाले बड़े पंडित हैं। वेद पढ़-पढ़ कर उसमें से विमान चलाने की विद्या जान गए हैं। गौ को नहीं मारते। हिंदुस्तान में आ जाएँगे तो गोहत्या बंद कर देंगे। मंडी के बनियों को बहकाता कि डाकखाने से रुपया निकाल लो। सरकार का राज्य जानेवाला है। डाक-बाबू पोल्हूराम भी डर गया था। मैंने मुल्लाजी की दाढ़ी मूड़ दी थी। और गाँव से बाहर निकाल कर कहा था कि जो मेरे गाँव में अब पैर रक्खा तो – ‘
 
साहब की जेब में से पिस्तौल चली और लहना की जाँघ में गोली लगी। इधर लहना की हैनरी मार्टिन के दो फायरों ने साहब की कपाल-क्रिया कर दी। धड़ाका सुन कर सब दौड़ आए।
 
बोधा चिल्लया – ‘क्या है?’
 
लहनासिंह ने उसे यह कह कर सुला दिया कि एक हड़का हुआ कुत्ता आया था, मार दिया और, औरों से सब हाल कह दिया। सब बंदूकें ले कर तैयार हो गए। लहना ने साफा फाड़ कर घाव के दोनों तरफ पट्टियाँ कस कर बाँधी। घाव मांस में ही था। पट्टियों के कसने से लहू निकलना बंद हो गया।
 
इतने में सत्तर जर्मन चिल्ला कर खाईं में घुस पड़े। सिखों की बंदूकों की बाढ़ ने पहले धावे को रोका। दूसरे को रोका। पर यहाँ थे आठ (लहनासिंह तक-तक कर मार रहा था – वह खड़ा था, और, और लेटे हुए थे) और वे सत्तर। अपने मुर्दा भाइयों के शरीर पर चढ़ कर जर्मन आगे घुसे आते थे। थोडे से मिनटों में वे – अचानक आवाज आई, ‘वाह गुरुजी की फतह? वाह गुरुजी का खालसा!! और धड़ाधड़ बंदूकों के फायर जर्मनों की पीठ पर पड़ने लगे। ऐन मौके पर जर्मन दो चक्की के पाटों के बीच में आ गए। पीछे से सूबेदार हजारासिंह के जवान आग बरसाते थे और सामने लहनासिंह के साथियों के संगीन चल रहे थे। पास आने पर पीछेवालों ने भी संगीन पिरोना शुरू कर दिया।
 
एक किलकारी और – अकाल सिक्खाँ दी फौज आई! वाह गुरुजी दी फतह! वाह गुरुजी दा खालसा! सत श्री अकालपुरुख!!! और लड़ाई खतम हो गई। तिरेसठ जर्मन या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सिखों में पंद्रह के प्राण गए। सूबेदार के दाहिने कंधे में से गोली आरपार निकल गई। लहनासिंह की पसली में एक गोली लगी। उसने घाव को खंदक की गीली मट्टी से पूर लिया और बाकी का साफा कस कर कमरबंद की तरह लपेट लिया। किसी को खबर न हुई कि लहना को दूसरा घाव – भारी घाव लगा है।
 
लड़ाई के समय चाँद निकल आया था, ऐसा चाँद, जिसके प्रकाश से संस्कृत-कवियों का दिया हुआ क्षयी नाम सार्थक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी वाणभट्ट की भाषा में ‘दंतवीणोपदेशाचार्य’ कहलाती। वजीरासिंह कह रहा था कि कैसे मन-मन भर फ्रांस की भूमि मेरे बूटों से चिपक रही थी, जब मैं दौडा-दौडा सूबेदार के पीछे गया था। सूबेदार लहनासिंह से सारा हाल सुन और कागजात पा कर वे उसकी तुरत-बुद्धि को सराह रहे थे और कह रहे थे कि तू न होता तो आज सब मारे जाते।
 
इस लड़ाई की आवाज तीन मील दाहिनी ओर की खाईंवालों ने सुन ली थी। उन्होंने पीछे टेलीफोन कर दिया था। वहाँ से झटपट दो डाक्टर और दो बीमार ढोने की गाड़ियाँ चलीं, जो कोई डेढ़ घंटे के अंदर-अंदर आ पहुँची। फील्ड अस्पताल नजदीक था। सुबह होते-होते वहाँ पहुँच जाएँगे, इसलिए मामूली पट्टी बाँध कर एक गाड़ी में घायल लिटाए गए और दूसरी में लाशें रक्खी गईं। सूबेदार ने लहनासिंह की जाँघ में पट्टी बँधवानी चाही। पर उसने यह कह कर टाल दिया कि थोड़ा घाव है सबेरे देखा जाएगा। बोधासिंह ज्वर में बर्रा रहा था। वह गाड़ी में लिटाया गया। लहना को छोड़ कर सूबेदार जाते नहीं थे। यह देख लहना ने कहा – ‘तुम्हें बोधा की कसम है, और सूबेदारनीजी की सौगंध है जो इस गाड़ी में न चले जाओ।’
 
‘और तुम?’
 
‘मेरे लिए वहाँ पहुँच कर गाड़ी भेज देना, और जर्मन मुरदों के लिए भी तो गाड़ियाँ आती होंगी। मेरा हाल बुरा नहीं है। देखते नहीं, मैं खड़ा हूँ? वजीरासिंह मेरे पास है ही।’
 
‘अच्छा, पर – ‘
 
‘बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला। आप भी चढ़ जाओ। सुनिए तो, सूबेदारनी होराँ को चिट्ठी लिखो, तो मेरा मत्था टेकना लिख देना। और जब घर जाओ तो कह देना कि मुझसे जो उसने कहा था वह मैंने कर दिया।’
 
गाड़ियाँ चल पड़ी थीं। सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़ कर कहा – ‘तैने मेरे और बोधा के प्राण बचाए हैं। लिखना कैसा? साथ ही घर चलेंगे। अपनी सूबेदारनी को तू ही कह देना। उसने क्या कहा था?’
 
‘अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मैंने जो कहा, वह लिख देना, और कह भी देना।’
 
गाड़ी के जाते लहना लेट गया। ‘वजीरा पानी पिला दे, और मेरा कमरबंद खोल दे। तर हो रहा है।’
 
 
 
5
 
मृत्यु के कुछ समय पहले स्मृति बहुत साफ हो जाती है। जन्म-भर की घटनाएँ एक-एक करके सामने आती हैं। सारे दृश्यों के रंग साफ होते हैं। समय की धुंध बिल्कुल उन पर से हट जाती है।
 
*** *** ***
 
लहनासिंह बारह वर्ष का है। अमृतसर में मामा के यहाँ आया हुआ है। दहीवाले के यहाँ, सब्जीवाले के यहाँ, हर कहीं, उसे एक आठ वर्ष की लड़की मिल जाती है। जब वह पूछता है, तेरी कुड़माई हो गई? तब धत् कह कर वह भाग जाती है। एक दिन उसने वैसे ही पूछा, तो उसने कहा – ‘हाँ, कल हो गई, देखते नहीं यह रेशम के फूलोंवाला सालू? सुनते ही लहनासिंह को दुख हुआ। क्रोध हुआ। क्यों हुआ?
 
‘वजीरासिंह, पानी पिला दे।’
 
***    ***      ***
 
पचीस वर्ष बीत गए। अब लहनासिंह नं 77 रैफल्स में जमादार हो गया है। उस आठ वर्ष की कन्या का ध्यान ही न रहा। न-मालूम वह कभी मिली थी, या नहीं। सात दिन की छुट्टी ले कर जमीन के मुकदमें की पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रेजिमेंट के अफसर की चिट्ठी मिली कि फौज लाम पर जाती है, फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारासिंह की चिट्ठी मिली कि मैं और बोधासिंह भी लाम पर जाते हैं। लौटते हुए हमारे घर होते जाना। साथ ही चलेंगे। सूबेदार का गाँव रास्ते में पड़ता था और सूबेदार उसे बहुत चाहता था। लहनासिंह सूबेदार के यहाँ पहुँचा।
 
जब चलने लगे, तब सूबेदार बेढे में से निकल कर आया। बोला – ‘लहना, सूबेदारनी तुमको जानती हैं, बुलाती हैं। जा मिल आ।’ लहनासिंह भीतर पहुँचा। सूबेदारनी मुझे जानती हैं? कब से? रेजिमेंट के क्वार्टरों में तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नहीं। दरवाजे पर जा कर मत्था टेकना कहा। असीस सुनी। लहनासिंह चुप।
 
‘मुझे पहचाना?’
 
‘नहीं।’
 
‘तेरी कुड़माई हो गई – धत् – कल हो गई – देखते नहीं, रेशमी बूटोंवाला सालू -अमृतसर में –
 
भावों की टकराहट से मूर्छा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह निकला।
 
‘वजीरा, पानी पिला’ – ‘उसने कहा था।’
 
***    ***      ***
 
स्वप्न चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है – ‘मैंने तेरे को आते ही पहचान लिया। एक काम कहती हूँ। मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहादुरी का खिताब दिया है, लायलपुर में जमीन दी है, आज नमक-हलाली का मौका आया है। पर सरकार ने हम तीमियों की एक घँघरिया पल्टन क्यों न बना दी, जो मैं भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है। फौज में भर्ती हुए उसे एक ही बरस हुआ। उसके पीछे चार और हुए, पर एक भी नहीं जिया। सूबेदारनी रोने लगी। अब दोनों जाते हैं। मेरे भाग! तुम्हें याद है, एक दिन ताँगेवाले का घोड़ा दहीवाले की दुकान के पास बिगड़ गया था। तुमने उस दिन मेरे प्राण बचाए थे, आप घोड़े की लातों में चले गए थे, और मुझे उठा कर दुकान के तख्ते पर खड़ा कर दिया था। ऐसे ही इन दोनों को बचाना। यह मेरी भिक्षा है। तुम्हारे आगे आँचल पसारती हूँ।
 
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी में चली गई। लहना भी आँसू पोंछता हुआ बाहर आया।
 
‘वजीरासिंह, पानी पिला’ – ‘उसने कहा था।’
 
***    ***      ***
 
लहना का सिर अपनी गोद में लिटाए वजीरासिंह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी पिला देता है। आध घंटे तक लहना चुप रहा, फिर बोला – ‘कौन! कीरतसिंह?’
 
वजीरा ने कुछ समझ कर कहा – ‘हाँ।’
 
‘भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने पट्ट पर मेरा सिर रख ले।’ वजीरा ने वैसे ही किया।
 
‘हाँ, अब ठीक है। पानी पिला दे। बस, अब के हाड़ में यह आम खूब फलेगा। चचा-भतीजा दोनों यहीं बैठ कर आम खाना। जितना बड़ा तेरा भतीजा है, उतना ही यह आम है। जिस महीने उसका जन्म हुआ था, उसी महीने में मैंने इसे लगाया था।’ वजीरासिंह के आँसू टप-टप टपक रहे थे।
 
***    ***      ***
 
कुछ दिन पीछे लोगों ने अखबारों में पढ़ा –
 
फ्रांस और बेल्जियम – 68 वीं सूची – मैदान में घावों से मरा – नं 77 सिख राइफल्स जमादार लहनासिंह ।
 
                               – चंद्रधर शर्मा गुलेरी 
 
 

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यहाँ वहाँ हर कहीं hindi story


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उस दिन शाम को पाँच बजे ही संजीव ऑफिस से वापस आ गया था। लिफ्ट से ऊपर जाकर उसने अपार्टमेंट की घंटी बजाई तो रोज की तरह दरवाजा नहीं खुला। वह बाहर खड़ा इंतजार करता रहा। फिर दूसरी और तीसरी बार भी बजाई तो दरवाजा वैसे ही बंद रहा। तब उसे लगा कि उसके पापा कहीं चले गए हैं। यदि वे भीतर होते तो फौरन दरवाजा खोलते। लेकिन उन्हें मालूम भी तो नहीं था कि इस समय वह आ जाएगा, वर्ना वे बाहर नहीं जाते।

उसने अपने पिता रवींद्र बाबू को कॉल किया, “हलो पापा, कहाँ हैं आप?” रवींद्र बाबू नुक्कड़ वाली स्नैक्स की दुकान में खड़े समोसे खा रहे थे। उन्होंने सोचा कि संजीव ऑफिस से फोन कर रहा है। इसलिए इत्मीनान से बोले, “संजीव? कहो किसलिए फोन किया?”

यदि वे जानते कि संजीव बाहर खड़ा है तो इस तरह शांति से बात न करते। उनकी आवाज में घबराहट घुली होती… घर पहुँचने के लिए बेताब हो जाते।

संजीव ने कहा, “आप कहाँ हैं?”

“मैं इस गली की स्नैक्स वाली दुकान में समोसे खा रहा हूँ। मैं तुम दोनों के लिए भी लेता आऊँगा।” उनकी आवाज में वही शांति बरकरार थी।

संजीव ने कहा, “अच्छा, लेते आइएगा। पर अभी आइए। मैं घर के बाहर खड़ा हूँ।”

यह सुनते ही वे बेचैन हो गए। बोले, “ओ! आ गए क्या? अच्छा, मैं आ रहा हूँ तुरंत।”

उनकी आवाज में एक खुशी घुल गई थी। संजीव ऑफिस से आ गया है यह सुनकर उन्हें बड़ा अच्छा लगा था। बच्चों का घर लौटना उन्हें अपरिमित खुशी दे जाता था, क्योंकि उनके आसपास पसरा हुआ सन्नाटा दूर हो जाता था। जल्दी-जल्दी मुँह चलाकर वे मुँह में भरे समोसे को निगलने लगे। समोसे खाते हुए दुकानदार से बोले, “अच्छा, चार समोसे और पैक कर दो।”

यह कहकर वे एक हाथ से पेपर प्लेट थामे हुए दूसरे हाथ से अपनी जेब में बटुआ टटोलने लगे। पर बटुआ तो लेकर चले ही नहीं थे तो मिलता कैसे? टटोलते-टटोलते यह महसूस हुआ। तब तक हाथों में कुछ खुदरे नोट आ गए थे। उन्हें उँगलियों में थामकर दुकानदार की ओर बढ़ाते हुए बोले, “लो भाई, पैसे ले लो। मैं बटुआ तो घर पर ही भूल गया।”

दुकानदार ने नोट थामते हुए कहा, “कोई बात नहीं थी। पैसे फिर मिल जाते।” रवींद्र बाबू लगभग हर रोज इसी स्नैक्स की दुकान पर आते और कुछ-कुछ खाते। इसी से दुकानदार उन्हें पहचानता था। शाम के चार बजते कि खाने से अधिक बाहर निकलने की इच्छा जोर मारती। बाहर आकर लोगों को चलते-फिरते, आते-जाते देखते तो उन्हें लगता कि उनकी नसों में भी खून दौड़ रहा हैं। तब अपने हिस्से के अकेलेपन में निष्क्रिय हुआ दिमाग पूरी तरह सक्रिय हो उठता, तरह-तरह के ख्याल दिल की धड़कनों के साथ गुँथ जाते और वे पूरी जिजीविषा से भर उठते।

रवींद्र बाबू ने पेपर प्लेट डस्टबिन के हवाले किया। पेपर नैपकिन से हाथ पोंछते हुए समोसों का पैकेट उठाया और चल दिए। चार कदम चले होंगे तो मुँह में बसे स्वाद ने याद दिलाया कि वे पानी पीना तो भूल ही गए। सोचा कि चलो, कोई बात नहीं, घर जाकर ही पी लेंगे। अभी बेचारा संजीव घर के बाहर खड़ा होगा थका-माँदा। यह स्थिति बड़ी खराब होती है कि घर पहुँचो और घर में ताला बंद। पास में चाभी नहीं।

संजीव ने एक चाभी सुरुचि को दे रखी थी और दूसरी वह खुद रखता था। सुरुचि ऑफिस से उसके पहले ही घर पहुँच जाती थी। अतः चाभी उसके पास रहनी चाहिए थी कि उसे इंतजार न करना पड़े। अभी पापा के आने पर उसने अपने वाली चाभी पापा को दे दी।

रवींद्र बाबू वहाँ पहुँचे तो देखा कि संजीव बैग लिए खड़ा है। उन्होंने अपनी जेब टटोलकर चाभी निकाली। संजीव ने चाभी उनके हाथ से ले ली, क्योंकि वह जानता था कि उन्हें चाभी की होल में घुमाने में समय लगेगा। उन्हें डबल लॉक वाले डोर खोलने की आदत नहीं थी। दरवाजा खोलकर संजीव ने अपना बैग सोफे पर डाला और बैठ गया। रवींद्र बाबू ममता-भरी आँखों से उसे देखते हुए सोच रहे थे कि बेचारे बच्चे बारह-बारह घंटे बहुराष्ट्रीय कंपनियों में खटते हैं, तब जाकर एक मोटी पगार घर में आती है। इन्हीं रुपयों से सब कुछ होता है, नहीं तो शहर में एक कोठरी भी न हो पाए।

उन्होंने पूछा, “चाय पियोगे? बना दूँ?”

संजीव ने कहा, “नहीं, कॉफी पीकर आया हूँ ऑफिस से। और आपसे मैं चाय बनवाकर पियूँगा?” फिर थोड़ी देर बाद बोला, “सुरुचि अब आती ही होगी, वह तो बनाएगी ही।”

करीब घंटे-भर बाद सुरुचि आई। वह भी संजीव की तरह ही थकी हुई थी। आते ही अपने कमरे से लगे वाश-रूम में हाथ-मुँह धोने वाली चली गई। फिर चाय बनाकर एक-एक कप संजीव और रवींद्र बाबू के सामने रख दी और अपना कप हाथ में लेकर टीवी धीमी आवाज में खोलकर बैठ गई। संजीव लैपटॉप पर व्यस्त हो गया।

रवींद्र बाबू ने टोका, “अब तुम्हें ऑफिस में कम काम था कि यहाँ आकर भी लैपटॉप में सिर खपाने लगे?”

संजीव ने कहा, “पापा! आप नहीं समझिएगा। इससे कितनी सारे बातें हल हो जाती हैं। सारा काम ही हो जाता है इससे।”

यह सुनकर रवींद्र बाबू कुछ प्रशंसा और अचरज-भरी दृष्टि से उसे देखने लगे। सुरुचि को शायद टीवी के प्रोग्राम अच्छे नहीं लग रहे थे। वह अपने कमरे में उठकर चली गई।

यही दृश्य हर शाम का हुआ करता था और सवेरे का बिल्कुल इससे उल्टा। नौ बजते-बजते संजीव और सुरुचि दोनों ही ऑफिस के लिए निकल जाते थे। तब घर में वे ही अकेले बच जाते। पिंजरे में बंद मैना की तरह छटपटाने लगते। कभी पेपर पढ़ते, कभी कोई पत्रिका उलटते तो कभी टीवी ऑन करते। इन सबसे जब ऊबते तो सो जाते। यहाँ किसी से उनकी जान-पहचान न थी, न अपना कोई दोस्त ही था कि उसके यहाँ बैठकर कुछ वक्त गुजार लेते।

उन्हें अपने बेटे के पास आए हुए एक महीना हो गया था। एक नई दिनचर्या से उन्हें गुजरना पड़ रहा था। ऐसा न था कि वे कभी अपना घर-शहर छोड़कर बाहर नहीं रहे। जब तक नौकरी में रहे, कई जगहों पर गए, कितने तरह के लोगों और उनकी संस्कृतियों से मिलना-जुलना हुआ। पर तब की बात और थी। एक पूरा परिवार था – पत्नी, छोटे-छोटे बच्चे। दफ्तर से आते तो अपने को सबसे घिरा हुआ पाते। चारों ओर चहल-पहल का माहौल। अब वह बात न थी। अब उनकी पत्नी गुजर चुकी थी और साथ-साथ एक लंबा वक्त भी। सदा बदलती रहने वाली दुनिया ने इतना बदल दिया था उनकी जिंदगी को!

पहली बार जब वे इस महानगर में आए थे उन्हें अजीब लगा था कि यहाँ तो सारे दिन दरवाजा बंद रहता है। कई-कई घंटे एकांत में बताते हुए वे एक इनसान का चेहरा देखने को तरस जाते। जिस रात को वे आए उसके सवेरे आपस में कुछ बातचीत भी न हुई और बेटा-बहू दफ्तर चले गए तो वे बेचैन होने लगे कि तभी दरवाजे की घंटी बजी। वे खुश हुए कि चलो कोई आया। शायद पड़ोसी हो। पर पड़ोसी क्या दूसरे लोक में रहते थे? उनके फ्लैट भी दिन-दिन भर बंद रहते। शाम को मियाँ-बीवी थके-माँदे लौटते तो बंद घर खुलता। उन्हें यह सब नहीं मालूम था। तभी सोच बैठे कि पड़ोसी आया होगा। खुश होकर दरवाजा खोला था उन्होंने। सामने खड़ा था नेपाली रसोइया। उन्हें याद आया कि जाते-जाते सुरुचि बोल गई थी, “पापाजी, नेपाली खाना बनाने आएगा। जो मर्जी हो बनवा लीजिएगा। वह चाय-कॉफी भी बना देगा।”

नेपाली को देखकर वे मुस्कुरा उठे। बोले, “तो तुम प्रीतम हो?”

“हाँ साब।” उसने कहा था।

“ठीक है, आओ। मुझे सुरुचि ने तुम्हारे बारे में बताया था।”

“आप भैया के पापा हो न?”

“हाँ।”

“मुझे मालूम है। भाभी जी बोला था कि आप आएगा।”

वह पूरे अधिकार के साथ भीतर चला आया। उनकी ओर घूमकर बोला, “क्या खाओगे आप?”

“जो रोज बनाते हो, वही बना दो।” रवींद्र बाबू बोले।

इतना सुनते ही वह अपने काम में मशगूल हो गया। वे पास ही सोफे पर बैठे हुए सिंक से पानी निकलने की आवाज, कढ़ाई में सब्जी छौंके जाने की छनक, प्रेशर कुकर की सीटी, कढ़ाई और छलनी की आपसी ठनर-मनर सुनते रहे। मुश्किल से बीस मिनट बीते होंगे कि नेपाली ने सारा खाना तैयार करके टेबुल पर लगा दिया। उसके बाद बाहर जाते हुए बोला, “दरवाजा बंद कर लो साब।”

रवींद्र बाबू उसके काम की तेजी को देखकर अवाक हो गए थे। भला इतनी जल्दी खाना कैसे बन गया? वे जितना चकराए उतना ही उदास भी हुए उसे बाहर निकलते देखकर। वह सिटकिनी खोलकर चला गया था और वे पीछे उसकी पीठ निहारते रह गए थे। वाह! आया भी और चला भी गया। क्या बनाया होगा उसने? डायनिंग टेबल पर लगे कैसरोल्स को उन्होंने खोल-खोलकर देखा था। पूरा उत्तर भारतीय खाना था। एक भी आइटम कम नहीं। चावल, दाल, सब्जी के साथ सलाद और चटनी तक बनाकर रख दी थी उसने! रसोइया को आया देखकर उनके मन में एक छिपी आशा जगी थी कि उन दोनों के बीच थोड़ी बातचीत होगी। कुछ वह पूछेगा, कुछ ये पूछेंगे। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, धत…!

धीरे-धीरे उस महानगर में रहते हुए रवींद्र बाबू ने सीख लिया था कि कैसे समय बिताया जाए। वे अपने मित्रों को कॉल करते और देर तक मोबाइल पर बातें करते रहते। जब तक बातें होती रहतीं, उन्हें लगता कि वे एक चलती-फिरती, जीती-जागती दुनिया से जुड़े हुए हैं, वरना इस शहर के अनजाने चेहरों के समुद्र में एक भी पहचाना चेहरा उन्हें नजर नहीं आता था। तब उनकी मनःस्थिति एक भटके हुए जहाज की हो जाती। कहाँ जाएँ… क्या करें… सब कुछ अपरिचित… अटूट एकाकीपन।

अकेले रेल या बस में सफर करना उन्हें कभी बुरा नहीं लगा था, बल्कि कभी-कभी तो उन्होंने इसे एन्जॉय भी किया था। एकदम भीड़-भाड़ से मुक्त। परंतु अपना विधुर जीवन जीते हुए उन्हें लगता था कि जिंदगी का एकाकी सफर रेल या बस का सफर नहीं है जो इसका लुत्फ उठा लिया जाए। इसे जो जीता है वही समझता है। जीवन संगिनी को गुजरे एक अरसा हो गया था। पत्नी की जरूरत जितनी पहले थी, उससे कम आज नहीं थी। बल्कि उन्हें लगता था कि अभी उसका होना अधिक जरूरी था। अब उनकी जिंदगी क्या थी? एक सूखे पत्ते की तरह उड़कर वे यहाँ से वहाँ चले जाते थे – जिधर हवा ले गई, उधर ही उड़ गए। अपना कोई वजूद ही नहीं रह गया था।

वे यहाँ पर अपने परिचित बनाने की कोशिश करने लगे थे। शुरू-शुरू में सिक्योरिटी गार्ड, दुकानदार और सब्जीवालों से ही कुछ जरूरत से अधिक बातें करने लगे थे ताकि वे इन्हें पहचानें। जाते-जाते दोस्ताना नजरों से उन्हें देखते। धीरे-धीरे आस-पास के लोग इन्हें जानने लगे थे। इन्हें अच्छा लगता था जब कोई आँखों में पहचान लिए इनकी ओर देखता और इनका हाल-चाल पूछ लेता। घर में सब्जी लाने का काम इन्होंने अपने जिम्मे ले लिया था कि इसी बहाने लोगों से कुछ बात भी हो जाएगी। बातचीत करके थोड़ा प्रफुल्लित महसूस करते थे।

फिर भी पूरे दिन की लंबाई में पसरा हुआ समय नहीं कटता था। खाना बन जाता था, कपड़े धुल जाते थे। काम खत्म है। खाना लगा हुआ है, वे खाएँ या न खाएँ। निपट अकेले रहते हुए खाने की इच्छा भी दब जाती थी। कुछ-कुछ करके समय को टुकड़ों-टुकड़ों में काटने की कोशिश जी-जान से जारी रहती। फ्लैट के पूरब में आंजनेय का मंदिर था। कभी-कभी उधर निकल जाते। उत्तर की ओर बड़ा सुंदर गणेश मंदिर था। शाम को टहलते हुए किसी दिन उधर भी निकल जाते। दर्शन करके बाहर आते तो वहीं प्रांगण में बेंच पर शांति के साथ बैठकर समय बिताते। इतना करने के बाद भी समय बिताना मुश्किल था खासकर दिन का। तो उन्होंने सोचा कि ठीक है, अब वे ही बाल्कनी में रखे गमलों में पानी डाल दिया करेंगे। कुछ समय इसमें भी कटेगा।

यही सोचकर उन्होंने सुरुचि से एक दिन कहा था, “बेटा, इन गमलों को मैं ही सींच दिया करूँगा। जब तक मैं हूँ तब तक तुम बाई को मना कर दो।”

सुरुचि बोली थी, “पापा जी! आप सींचेंगे तो बाई की आदत खराब हो जाएगी। गमले सींचना उसका काम है।”

यह सुनकर रवींद्र बाबू चुप हो गए थे। ठीक ही तो कह रही थी वह। अब दो दिनों के लिए बाई की आदत क्यों खराब कर जाएँ?

उस दिन बेटा-बहू के दफ्तर जाने के बाद उन्होंने अखबार उठा लिया था। अखबार की एक-एक खबर पर नजर दौड़ाने लगे। रोज की वे ही सारी बातें। राजनीतिक उथल-पुथल, अपराध – उसमें भी बलात्कार। मन चिड़चिड़ा गया। एक भी खबर ऐसी नहीं थी कि मन खुश हो। उन्होंने अखबार एक ओर रख दिया था। पत्रिकाएँ तो पहले ही पढ़ी जा चुकी थीं। अकेले बैठकर सोचने लगे कि क्या किया जाए?

तभी कमरे के बाहर लगे गमलों की ओर उनका ध्यान गया। उनमें रोपे गए पौधों को देखकर वे सोचने लगे कि इन्हें देखकर तो पता ही नहीं चलता कि क्या मौसम है? सभी मौसमों में एक-सा ही रहते हैं। क्या जाड़ा, क्या गरमी और क्या बरसात? वे उठकर फूलों को निहारने लगे थे। तभी वे चौंके। नहीं, उनका सोचना सही नहीं था। अभी वसंत है और कुछ पौधों में सुआपंखी कोंपलें फूट रही हैं। यह देखकर अपने अकेलेपन में भी वे मुस्कुराने लगे। गौर से देखने के लिए अपना चश्मा ठीक कर वे पौधों पर झुक गए। वाह! कुदरत का करिश्मा! फूलों को सब पता है। उन्हें मालूम है कि वसंत आ रहा है। इस महानगर को मालूम हो न हो काम और जाम को फर्क पड़े या न पड़े! ये अपनी मौन आवाज में कह रहे हैं कुछ। इनकी सुनता भी कौन है? वे उन पौधों से बात करने लगे।

बोले, “तुम बोल रहे हो, मैं सुन रहा हूँ। मुझे भी मालूम है मेरे दोस्त कि वसंत आ गया है।”

अचानक उन्हें लगा जैसे कितने सारे नन्हें-मुन्नों से घिरे हुए हैं वे! उनके इर्द-गिर्द कितने सारे छोटे-छोटे बच्चे हैं। उनकी बाँहें हैं… बाँहें नहीं – पंख हैं… हरे-हरे पंख। वे सब ढूँढ़ रहे हैं आकाश, हवा और उजाला। वे अपने को तितली-जैसा हल्का महसूस करने लगे। कितनी हल्की हो गई थी उनकी साँसें? उन्होंने चारों ओर नजर घुमाई। हवा और आकाश को काटती हुई ऊँची-ऊँची बिल्डिंगें थीं, पर इस बाल्कनी में थोड़ा आकाश था, उसका खुलापन था, थोड़ा जीवन था… थोड़ी ताजगी… थोड़ी संजीवनी! हाँ, अब यही बैठेंगे वे, हवा और आकाश से बातें करते हुए। यहीं से दुनिया भी दिखती हैं, लोग भी दिखते हैं। अब रोज उनके बैठने की प्रिय जगह वही बाल्कनी हो गई थी। वे रोज ध्यान से एक-एक पौधे को देखते। पौधों में निकले अँखुए हर दिन थोड़ा बढ़े हुए लगते। एक सरसों के बराबर उगा अँकुर छोटी-छोटी पत्तियों में खुलने लगा था। देखते-ही-देखते कितनी ही धानी पत्तियाँ निकल आई थीं। पौधे झबरीले हो उठे थे।

उस दिन वे शाम को सब्जी लेकर लौटे तो मन न होते हुए भी टीवी खेाल दी। अचानक उन्हें अपने जबड़ों में दर्द महसूस हुआ। फिर यह टीसता चला गया और इतना बढ़ा कि दवा की जरूरत महसूस होने लगी। फोन करके संजीव को कहना चाहा कि लौटते हुए वह दवा लेता आए, पर उसे आने में अभी देर थी। दाँत का दर्द इस तरह बर्दाश्त से बाहर हो चला कि संजीव के आने तक वे इंतजार नहीं कर सकते थे। इस स्थिति में भी उन्हें ही दवा के लिए निकलना पड़ेगा। किसको कहते? घर में था कौन?

अतः वे दवा लाने चल दिए। दवा की दुकान नजदीक ही थी। शाम की स्याही घिरने लगी थी। सड़क पर वाहनों की आवा-जाही बनी हुई थी। किनारे चलने वाले पदयात्रियों की भी कमी नहीं थी। इसी भीड़ में रवींद्र बाबू खीझे हुए चल रहे थे। कभी-कभी उनका हाथ अपने दुखते हुए जबड़े पर चला जाता। दर्द और भीड़ ने उन्हें इस तरह जकड़ लिया था कि उन्हें लगने लगा कि न जाने किस दुनिया में वे आ गए हैं। गाड़ियों की हेडलाइट से आँखें चौंधिया जा रही थीं। वे सड़क पार करने के लिए एक ओर खड़े थे। तभी एक स्कूटर उन्हें मारती हुई निकल गई। इसके बाद की बात उन्हें नहीं मालूम।

आँखें खुलीं तो वे अस्पताल के बेड पर थे। बगल में खड़ी नर्स इंजेक्शन देने की तैयारी कर रही थी और संजीव पास में था। उन्हें होश में आया देख उसने पूछा, “कैसे हैं पापा?”

“पैरों में बहुत दर्द है और दाँत में भी। क्या हुआ है मुझे?” उन्होंने कराहते हुए कहा।

संजीव बोला, “आपको स्कूटर से धक्का लग गया था।”

“हाँ… अभी याद आ रहा है। मैं दवा लाने निकला था, क्योंकि दाँत में बहुत दर्द हो रहा था। एक स्कूटर मुझे मारते हुए निकल गई थी। …फिर पता नहीं क्या हुआ। मैं गिर गया था।”

“आप स्कूटर के धक्के से गिरकर बेहोश हो गए थे। यह तो अच्छा हुआ कि वहाँ कुछ लोगों ने आपको पहचान लिया और आकर सिक्युरिटी गार्ड से कहा। उसी ने मुझे खबर की।”

रवींद्र बाबू सुनकर चुप रहे। उन्हें अब वह दुर्घटना याद आने लगी थी।

संजीव ने कहा, “पापा! आपने दवा के लिए मुझे फोन कर दिया होता। आप स्वयं क्यों निकल गए?”

रवींद्र बाबू ने कराहते हुए कहा, “दर्द इतना था कि मैं तुम्हारे आने तक इंतजार नहीं कर सकता था।”

संजीव बोला, “खुशकिस्मती से आप बच गए पापा! आपको कुछ हो जाता तो?”

अभी रवींद्र बाबू भी यही सोच रहे थे कि वे भाग्य से बच गए। उनके पैरों की हड्डियाँ भी सही-सलामत थीं। वे डर गए यह सोचकर कि अपाहिज भी हो जा सकते थे। तब उन्हें कौन देखता?

अस्पताल से आने के बाद उन्होंने संजीव के यहाँ कुछ दिन और बिताए। अब वे सवेरे सैर के लिए उस समय जाते जब सड़क पर वाहन नहीं रहते थे। दुर्घटना के डर से बाहर न निकलते, यह भी संभव न था। इसीलिए वाहनों से बचते हुए वे फ्लैट से निकलकर स्नैक्स वाली दुकान से होते हुए अगले दोराहे तक जाते। फिर उस मुख्य सड़क को पकड़ते जिस पर बहुत कम गाड़ियाँ चलती थीं, साथ ही वह चौड़ी भी थी। वे सड़क की दोनों ओर लगे पेड़ों को पहचानते हुए जाते – यह शिरीष है, यह गुलमोहर, यह अमलताश, यह लैगनटेशिया और यह न जाने क्या? इस तरह वे एक अजीब आनंद से भर जाते। वे सोचने लगते कि यदि ये पेड़ न होते तो न जाने दुनिया कैसी लगती? धरती कैसी दिखती? शायद केशरहित स्त्री की तरह कुरुप।

एक दिन कुछ झिझकते हुए संजीव से बोले, “बेटा! अब मैं वापस जाना चाहता हूँ। काफी दिन हो गए यहाँ पर रहते हुए।”

संजीव ने कहा, “क्यों? कुछ समय और रहिए न हमारे साथ? क्या तकलीफ है आपको यहाँ पर?”

“तकलीफ तो कुछ भी नहीं, तुम लोग इतना ध्यान रखते हो मेरा! फिर भी…। बहुत दिन हो गए बाहर निकले हुए। अब जाऊँगा। ठीक है, अगले सप्ताह के लिए टिकट करा दो।”

हवाई अड्डे पर रवींद्र बाबू अपनी ट्रॉली लुढ़काते हुए निकल रहे थे तो एक परिचित चेहरा सामने की भीड़ में खड़ा इनका इंतजार कर रहा था। ड्राइवर असलम ने मुस्कुराते हुए आगे बढ़कर इनके हाथ से ट्रॉली ले ली। कार पर बैठते ही उन्होंने अपने सर को पिछली सीट से टिका दिया था। कार पूरी रफ्तार से अपनी मंजिल की ओर बढ़ी जा रही थी। उन्होंने अपनी आँखें बंद कर लीं। कार शहर से गुजरती हुई अपने गंतव्य की ओर मुड़ गई जो ढाई घंटे की दूरी पर स्थित था। सड़क के दाएँ-बाएँ धूल में नहाए पेड़-पौधे खड़े थे। महुआ की महक समेटे हुए खुली हवा आई और प्राणों में उतर गई। घर के कमरे में दाखिल होते ही सन्नाटे ने उनके लिए बाँहें फैला दीं। उन्होंने सन्नाटे को आलिंगन में भर लिया। आगोश से छूटकर सन्नाटे ने कहा, “मैंने तुम्हें बहुत मिस किया, रवींद्र!”

रवींद्र बाबू ने कहा, “मैंने भी तुम्हें बहुत मिस किया।”

                                  लेखक – अंजना वर्मा

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अपरिचित हिंदी स्टोरी

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अपरिचित / Aparichit hindi story

अपरिचित hindi story

अपरिचित मोहन राकेश जी के एक उत्तम रचना है। मोहन राकेश हिंदी साहित्य के एक जानेमाने साहित्यकार है। इनका जन्म 8 जनवरी 1925 को अमृतसर पंजाब में हुआ। मोहन राकेश जी का निधन 3 जनवरी 1972 को दिल्ली में हुआ। आपने उपन्यास , कहानी , नाटक, निबंध आदि की रचना की।आज हम मोहन राकेश जी की कहानी अपरिचित आपके साथ शेयर कर रहे हैं। यह कहानी आपके दिल को छू ले गी ऐसा हमारा विश्वास है
 

अपरिचित हिंदी स्टोरी

 

 

कोहरे की वजह से खिड़कियों के शीशे धुँधले पड़ गये थे। गाड़ी चालीस की रफ़्तार से सुनसान अँधेरे को चीरती चली जा रही थी। खिड़की से सिर सटाकर भी बाहर कुछ दिखाई नहीं देता था। फिर भी मैं देखने की कोशिश कर रहा था। कभी किसी पेड़ की हल्की-गहरी रेखा ही गुज़रती नज़र आ जाती तो कुछ देख लेने का सन्तोष होता। मन को उलझाए रखने के लिए इतना ही काफ़ी था। आँखों में ज़रा नींद नहीं थी। गाड़ी को जाने कितनी देर बाद कहीं जाकर रुकना था। जब और कुछ दिखाई न देता, तो अपना प्रतिबिम्ब तो कम से कम देखा ही जा सकता था। अपने प्रतिबिम्ब के अलावा और भी कई प्रतिबिम्ब थे। ऊपर की बर्थ पर सोये व्यक्ति का प्रतिबिम्ब अजब बेबसी के साथ हिल रहा था। सामने की बर्थ पर बैठी स्त्री का प्रतिबिम्ब बहुत उदास था। उसकी भारी पलकें पल-भर के लिए ऊपर उठतीं, फिर झुक जातीं। आकृतियों के अलावा कई बार नई-नई आवाज़ें ध्यान बँटा देतीं, जिनसे पता चलता कि गाड़ी पुल पर से जा रही है या मकानों की क़तार के पास से गुज़र रही है। बीच में सहसा इंजन की चीख़ सुनाई दे जाती,जिससे अँधेरा और एकान्त और गहरे महसूस होने लगते।
 
मैंने घड़ी में वक़्त देखा। सवा ग्यारह बजे थे। सामने बैठी स्त्री की आँखें बहुत सुनसान थीं। बीच-बीच में उनमें एक लहर-सी उठती और विलीन हो जाती। वह जैसे आँखों से देख नहीं रही थी, सोच रही थी। उसकी बच्ची, जिसे फर के कम्बलों में लपेटकर सुलाया गया था, ज़रा-ज़रा कुनमुनाने लगी। उसकी गुलाबी टोपी सिर से उतर गयी थी। उसने दो-एक बार पैर पटके, अपनी बँधी हुई मुट्ठियाँ ऊपर उठाईं और रोने लगी। स्त्री की सुनसान आँखें सहसा उमड़ आयीं। उसने बच्ची के सिर पर टोपी ठीक कर दी और उसे कम्बलों समेत उठाकर छाती से लगा लिया।
 
मगर इससे बच्ची का रोना बन्द नहीं हुआ। उसने उसे हिलाकर और दुलारकर चुप कराना चाहा, मगर वह फिर भी रोती रही। इस पर उसने कम्बल थोड़ा हटाकर बच्ची के मुँह में दूध दे दिया और उसे अच्छी तरह अपने साथ सटा लिया।
 
मैं फिर खिड़की से सिर सटाकर बाहर देखने लगा। दूर बत्तियों की एक क़तार नज़र आ रही थी। शायद कोई आबादी थी, या सिर्फ़ सडक़ ही थी। गाड़ी तेज़ रफ़्तार से चल रही थी और इंजन बहुत पास होने से कोहरे के साथ धुआँ भी खिड़की के शीशों पर जमता जा रहा था। आबादी या सडक़, जो भी वह थी, अब धीरे-धीरे पीछे रही जा रही थी। शीशे में दिखाई देते प्रतिबिम्ब पहले से गहरे हो गये थे। स्त्री की आँखें मुँद गयी थीं और ऊपर लेटे व्यक्ति की बाँह ज़ोर-ज़ोर से हिल रही थी। शीशे पर मेरी साँस के फैलने से प्रतिबिम्ब और धुँधले हो गये थे। यहाँ तक कि धीरे-धीरे सब प्रतिबिम्ब अदृश्य हो गये। मैंने तब जेब से रूमाल निकालकर शीशे को अच्छी तरह पोंछ दिया।
 
स्त्री ने आँखें खोल ली थीं और एकटक सामने देख रही थी। उसके होंठों पर हल्की-सी रेखा फैली थी जो ठीक मुस्कराहट नहीं थी। मुस्कराहट ने बहुत कम व्यक्त उस रेखा में कहीं गम्भीरता भी थी और अवसाद भी-जैसे वह अनायास उभर आयी किसी स्मृति की रेखा थी। उसके माथे पर हल्की-सी सिकुडऩ पड़ गयी थी।
 
बच्ची जल्दी ही दूध से हट गयी। उसने सिर उठाकर अपना बिना दाँत का मुँह खोल दिया और किलकारी भरती हुई माँ की छाती पर मुट्ठियों से चोट करने लगी। दूसरी तरफ़ से आती एक गाड़ी तेज़ रफ़्तार में पास से गुज़री तो वह ज़रा सहम गयी, मगर गाड़ी के निकलते ही और भी मुँह खोलकर किलकारी भरने लगी। बच्ची का चेहरा गदराया हुआ था और उसकी टोपी के नीचे से भूरे रंग के हल्के-हल्के बाल नज़र आ रहे थे। उसकी नाक ज़रा छोटी थी, पर आँखें माँ की ही तरह गहरी और फैली हुई थीं। माँ के गाल और कपड़े नोचकर उसकी आँखें मेरी तरफ घूम गयीं और वह बाँहें हवा में पटकती हुई मुझे अपनी किलकारियों का निशाना बनाने लगी।
 
स्त्री की पलकें उठीं और उसकी उदास आँखें क्षण-भर मेरी आँखों से मिली रहीं। मुझे उस क्षण-भर के लिए लगा कि मैं एक ऐसे क्षितिज को देख रहा हूँ जिसमें गहरी साँझ के सभी हल्के-गहरे रंग झिलमिला रहे हैं और जिसका दृश्यपट क्षण के हर सौवें हिस्से में बदलता जा रहा है…।
 
बच्ची मेरी तरफ़ देखकर बहुत हाथ पटक रही थी, इसलिए मैंने अपने हाथ उसकी तरफ़ बढ़ा दिये और कहा, “आ बेटे, आ…।”
 
मेरे हाथ पास आ जाने से बच्ची के हाथों का हिलना बन्द हो गया और उसके होंठ रुआँसे हो गये।
 
स्त्री ने बच्ची को अपने होंठों से छुआ और कहा, “जा बिट्‌टू, जाएगी उनके पास?”
 
लेकिन बिट्‌टू के होंठ और रुआँसे हो गये और वह माँ के साथ सट गयी।
 
“ग़ैर आदमी से डरती है,” मैंने मुस्कराकर कहा और हाथ हटा लिये।
 
स्त्री के होंठ भिंच गये और माथे की खाल में थोड़ा खिंचाव आ गया। उसकी आँखें जैसे अतीत में चली गयीं। फिर सहसा वहाँ से लौट आयी और वह बोली, “नहीं, डरती नहीं। इसे दरअसल आदत नहीं है। यह आज तक या तो मेरे हाथों में रही है या नौकरानी के…,” और वह उसके सिर पर झुक गयी। बच्ची उसके साथ सटकर आँखें झपकने लगी। महिला उसे हिलाती हुई थपकियाँ देने लगी। बच्ची ने आँखें मूँद लीं। महिला उसकी तरफ़ देखती हुई जैसे चूमने के लिए होंठ बढ़ाए उसे थपकियाँ देती रही। फिर एकाएक उसने झुककर उसे चूम लिया।
 
“बहुत अच्छी है हमारी बिट्‌टू, झट-से सो जाती है,” यह उसने जैसे अपने से कहा और मेरी तरफ़ देखा। उसकी आँखों में एक उदास-सा उत्साह भर रहा था।
 
“कितनी बड़ी है यह बच्ची?” मैंने पूछा।
 
“दस दिन बाद पूरे चार महीने की हो जाएगी,” वह बोली, “पर देखने में अभी उससे छोटी लगती है। नहीं?”
 
मैंने आँखों से उसकी बात का समर्थन किया। उसके चेहरे में एक अपनी ही सहजता थी-विश्वास और सादगी की। मैंने सोई हुई बच्ची के गाल को ज़रा-सा सहला दिया। स्त्री का चेहरा और भावपूर्ण हो गया।
 
“लगता है आपको बच्चों से बहुत प्यार है,” वह बोली, “आपके कितने बच्चे हैं?”
 
मेरी आँखें उसके चेहरे से हट गयीं। बिजली की बत्ती के पास एक कीड़ा उड़ रहा था।
 
“मेरे?” मैंने मुस्कराने की कोशिश करते हुए कहा, “अभी तो कोई नहीं है, मगर…।”
 
“मतलब ब्याह हुआ है, अभी बच्चे-अच्चे नहीं हुए,” वह मुस्कराई, “आप मर्द लोग तो बच्चों से बचे ही रहना चाहते हैं न?”
 
मैंने होंठ सिकोड़ लिये और कहा, “नहीं, यह बात नहीं…।”
 
“हमारे ये तो बच्ची को छूते भी नहीं,” वह बोली, “कभी दो मिनट के लिए भी उठाना पड़ जाए तो झल्लाने लगते हैं। अब तो ख़ैर वे इस मुसीबत से छूटकर बाहर ही चले गये हैं।” और सहसा उसकी आँखें छलछला आयीं। रुलाई की वजह से उसके होंठ बिलकुल उस बच्ची जैसे हो गये थे। फिर सहसा उसके होंठों पर मुस्कराहट लौट आयी-जैसा अक्सर सोए हुए बच्चों के साथ होता है। उसने आँखें झपककर अपने को सहेज लिया और बोली, “वे डॉक्टरेट के लिए इंग्लैंड गये हैं। मैं उन्हें बम्बई में जहाज़ पर चढ़ाकर आ रही हूँ।…वैसे छ:-आठ महीने की बात है। फिर मैं भी उनके पास चली जाऊँगी।”
 
फिर उसने ऐसी नज़र से मुझे देखा जैसे उसे शिकायत हो कि मैंने उसकी इतनी व्यक्तिगत बात उससे क्यों जान ली!
 
“आप बाद में अकेली जाएँगी?” मैंने पूछा, “इससे तो आप अभी साथ चली जातीं…।”
 
उसके होंठ सिकुड़ गये और आँखें फिर अन्तर्मुख हो गयीं। वह कई पल अपने में डूबी रही और उसी भाव से बोली, “साथ तो नहीं जा सकती थी क्योंकि अकेले उनके जाने की भी सुविधा नहीं थी। लेकिन उनको मैंने किसी तरह भेज दिया है। चाहती थी कि उनकी कोई तो चाह मुझसे पूरी हो जाए।…दीशी की बाहर जाने की बहुत इच्छा थी।…अब छ:-आठ महीने मैं अपनी तनख़ाह में से कुछ पैसा बचाऊँगी और थोड़ा-बहुत कहीं से उधार लेकर अपने जाने का इन्तज़ाम करूँगी।”
 
उसने सोच में डूबती-उतराती अपनी आँखों को सहसा सचेत कर लिया और फिर कुछ क्षण शिकायत की नज़र मुझे देखती रही। फिर बोली, “अभी बिट्‌टू भी बहुत छोटी है न? छ:-आठ महीने में यह बड़ी हो जाएगी और मैं भी तब तक थोड़ा और पढ़ लूँगी। दीशी की बहुत इच्छा है कि मैं एम.ए. कर लूँ। मगर मैं ऐसी जड़ और नाकारा हूँ कि उनकी कोई भी चाह पूरी नहीं कर पाती। इसीलिए इस बार उन्हें भेजने के लिए मैंने अपने सब गहने बेच दिए हैं। अब मेरे पास बस मेरी बिट्‌टू है, और कुछ नहीं।” और वह बच्ची के सिर पर हाथ फेरती हुई, भरी-भरी नज़र से उसे देखती रही।
 
बाहर वही सुनसान अँधेरा था, वही लगातार सुनाई देती इंजन की फक्‌-फक्‌। शीशे से आँख गड़ा लेने पर भी दूर तक वीरानगी ही वीरानगी नज़र आती थी।
 
मगर उस स्त्री की आँखों में जैसे दुनिया-भर की वत्सलता सिमट आयी थी। वह फिर कई क्षण अपने में डूबी रही। फिर उसने एक उसाँस लीं और बच्ची को अच्छी तरह कम्बलों में लपेटकर सीट पर लिटा दिया।
 
ऊपर की बर्थ पर लेटा हुआ आदमी खुर्राटे भर रहा था। एक बार करवट बदलते हुए वह नीचे गिरने को हुआ, पर सहसा हड़बड़ाकर सँभल गया। फिर कुछ ही देर में वह और ज़ोर से खुर्राटे भरने लगा।
 
“लोगों को जाने सफ़र में कैसे इतनी गहरी नींद आ जाती है!” वह स्त्री बोली, “मुझे दो-दो रातें सफ़र करना हो, तो भी मैं एक पल नहीं सो पाती। अपनी-अपनी आदत होती है!”
 
“हाँ, आदत की ही बात है,” मैंने कहा, “कुछ लोग बहुत निश्चिन्त होकर जीते हैं और कुछ होते हैं कि…।”
 
“बग़ैर चिन्ता के जी ही नहीं सकते!” और वह हँस दी। उसकी हँसी का स्वर भी बच्चों जैसा ही था। उसके दाँत बहुत छोटे-छोटे और चमकीले थे। मैंने भी उसकी हँसी में साथ दिया।
 
“मेरी बहुत ख़राब आदत है,” वह बोली, “मैं बात-बेबात के सोचती रहती हूँ। कभी-कभी तो मुझे लगता है कि मैं सोच-सोचकर पागल हो जाऊँगी। ये मुझसे कहते हैं कि मुझे लोगों से मिलना-जुलना चाहिए, खुलकर हँसना, बात करना चाहिए, मगर इनके सामने मैं ऐसे गुमसुम हो जाती हूँ कि क्या कहूँ? वैसे और लोगों से भी मैं ज़्यादा बात नहीं करती लेकिन इनके सामने तो चुप्पी ऐसी छा जाती है जैसे मुँह में ज़बान हो ही नहीं…।…अब देखिए न, इस वक़्त कैसे लतर-लतर बात कर रही हूँ!” और वह मुस्कराई। उसके चेहरे पर हल्की-सी संकोच की रेखा आ गयी।
 
“रास्ता काटने के लिए बात करना ज़रूरी हो जाता है,” मैंने कहा, “ख़ासतौर से जब नींद न आ रही हो।”
 
उसकी आँखें पल-भर फैली रहीं। फिर वह गरदन ज़रा झुकाकर बोली, “ये कहते हैं कि जिसके मुँह में ज़बान ही न हो, उसके साथ पूरी ज़िन्दगी कैसे काटी जा सकती है? ऐसे इन्सान में और एक पालतू जानवर में क्या फ़र्क़ है? मैं हज़ार चाहती हूँ कि इन्हें ख़ुश दिखाई दूँ और इनके सामने कोई न कोई बात करती रहूँ, लेकिन मेरी सारी कोशिशें बेकार चली जाती हैं। इन्हें फिर गुस्सा आ जाता है और मैं रो देती हूँ। इन्हें मेरा रोना बहुत बुरा लगता है।” कहते हुए उसकी आँखों में आँसू छलक आये, जिन्हें उसने अपनी साड़ी के पल्ले से पोंछ लिया।
 
“मैं बहुत पागल हूँ,” वह फिर बोली, “ये जितना मुझे टोकते हैं, मैं उतना ही ज़्यादा रोती हूँ। दरअसल ये मुझे समझ नहीं पाते। मुझे बात करना अच्छा नहीं लगता, फिर जाने क्यों ये मुझे बात करने के लिए मजबूर करते हैं?” और फिर माथे को हाथ से दबाए हुए बोली, “आप भी अपनी पत्नी से ज़बर्दस्ती बात करने के लिए कहते हैं?”
 
मैंने पीछे टेक लगाकर कन्धे सिकोड़ लिये और हाथ बगलों में दबाए बत्ती के पास उड़ते कीड़े को देखने लगा। फिर सिर को ज़रा-सा झटककर मैंने उसकी तरफ़ देखा। वह उत्सुक नज़र से मेरी तरफ़ देख रही थी।
 
“मैं?” मैंने मुस्कराने की चेष्टा करते हुए कहा, “मुझे यह कहने का कभी मौका ही नहीं मिल पाता। मैं बल्कि पाँच साल से यह चाह रहा हूँ कि वह ज़रा कम बात किया करे। मैं समझता हूँ कि कई बार इन्सान चुप रहकर ज़्यादा बात कह सकता है। ज़बान से कही बात में वह रस नहीं होता जो आँख की चमक से या होंठों के कम्पन से या माथे की एक लकीर से कही गयी बात में होता है। मैं जब उसे यह समझाना चाहता हूँ, तो वह मुझे विस्तारपूर्वक बात देती है कि ज़्यादा बात करना इन्सान की निश्छलता का प्रमाण है और मैं इतने सालों में अपने प्रति उसकी भावना को समझ ही नहीं सका! वह दरअसल कॉलेज में लेक्चरर है और अपनी आदत की वजह से घर में भी लेक्चर देती रहती है।”
 
“ओह!” वह थोड़ी देर दोनों हाथों में अपना मुँह छिपाए रही। फिर बोली, “ऐसा क्यों होता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। मुझे दीशी से यही शिकायत है कि वे मेरी बात नहीं समझ पाते। मैं कई बार उनके बालों में अपनी उँगलियाँ उलझाकर उनसे बात करना चाहती हूँ, कई बार उनके घुटनों पर सिर रखकर मुँदी आँखों से उनसे कितना कुछ कहना चाहती हूँ। लेकिन उन्हें यह सब अचछा नहीं लगता। वे कहते हैं कि यह सब गुडिय़ों का खेल है, उनकी पत्नी को जीता-जागता इन्सान होना चाहिए। और मैं इन्सान बनने की बहुत कोशिश करती हूँ, लेकिन नहीं बन पाती, कभी नहीं बन पाती। इन्हें मेरी कोई आदत अच्छी नहीं लगती। मेरा मन होता है कि चाँदनी रात में खेतों में घूमूँ, या नदी में पैर डालकर घंटों बैठी रहूँ, मगर ये कहते हैं कि ये सब आइडल मन की वृत्तियाँ हैं। इन्हें क्लब, संगीत-सभाएँ और डिनर-पार्टियाँ अच्छी लगती हैं। मैं इनके साथ वहाँ जाती हूँ तो मेरा दम घुटने लगता है। मुझे वहाँ ज़रा अपनापन महसूस नहीं होता। ये कहते हैं कि तू पिछले जन्म में मेंढकी थी जो तुझे क्लब में बैठने की बजाय खेतों में मेंढकों की आवाज़ें सुनना ज़्यादा अच्छा लगता है। मैं कहती हूँ कि मैं इस जन्म में भी मेंढकी हूँ। मुझे बरसात में भीगना बहुत अच्छा लगता है। और भीगकर मेरा मन कुछ न कुछ गुनगुनाने को कहने लगता है-हालाँकि मुझे गाना नहीं आता। मुझे क्लब में सिगरेट के धुएँ में घुटकर बैठे रहना नहीं अच्छा लगता। वहाँ मेरे प्राण गले को आने लगते हैं।”
 
उस थोड़े-से समय में ही मुझे उसके चेहरे का उतार-चढ़ाव काफ़ी परिचित लगने लगा था। उसकी बात सुनते हुए मेरे मन पर हल्की उदासी छाने लगी थी, हालाँकि मैं जानता था कि वह कोई भी बात मुझसे नहीं कह रही-वह अपने से बात करना चाहती है और मेरी मौजूदगी उसके लिए सिर्फ़ एक बहाना है। मेरी उदासी भी उसके लिए न होकर अपने लिए थी, क्योंकि बात उससे करते हुए भी मुख्य रूप से मैं सोच अपने विषय में रहा था। मैं पाँच साल से मंज़िल दर मंज़िल विवाहित जीवन से गुज़रता आ रहा था-रोज़ यही सोचते हुए कि शायद आनेवाला कल ज़िन्दगी के इस ढाँचे को बदल देगा। सतह पर हर चीज़ ठीक थी, कहीं कुछ ग़लत नहीं था, मगर सतह से नीचे जीवन कितनी-कितनी उलझनों और गाँठों से भरा था! मैंने विवाह के पहले दिनों में ही जान लिया था कि नलिनी मुझसे विवाह करके सुखी नहीं हो सकी, क्योंकि मैं उसकी कोई भी महत्त्वाकांक्षा पूरी करने में सहायक नहीं हो सकता। वह एक भरा-पूरा घर चाहती थी, जिसमें उसका शासन हो और ऐसा सामाजिक जीवन जिसमें उसे महत्त्व का दर्जा प्राप्त हो। वह अपने से स्वतन्त्र अपने पति के मानसिक जीवन की कल्पना नहीं करती थी। उसे मेरी भटकने की वृत्ति और साधारण का मोह मानसिक विकृतियाँ लगती थीं जिन्हें वह अपने अधिक स्वस्थ जीवन-दर्शन से दूर करना चाहती थी। उसने इस विश्वास के साथ जीवन आरम्भ किया था कि वह मेरी त्रुटियों की क्षतिपूर्ति करती हुई बहुत शीघ्र मुझे सामाजिक दृष्टि से सफल व्यक्ति बनने की दिशा में ले जाएगी। उसकी दृष्टि में यह मेरे संस्कारों का दोष था जो मैं इतना अन्तर्मुख रहता था और इधर-उधर मिल-जुलकर आगे बढऩे का प्रयत्न नहीं करता था। वह इस परिस्थिति को सुधारना चाहता थी, पर परिस्थिति सुधरने की जगह बिड़ती गयी थी। वह जो कुछ चाहती थी, वह मैं नहीं कर पाता था और जो कुछ मैं चाहता था, वह उससे नहीं होता था। इससे हममें अक्सर चख्ï-चख्ï होने लगती थी और कई बार दीवारों से सिर टकराने की नौबत आ जाती थी। मगर यह सब हो चुकने पर नलिनी बहुत जल्दी स्वस्थ हो जाती थी और उसे फिर मुझसे यह शिकायत होती थी कि मैं दो-दो दिन अपने को उन साधारण घटनाओं के प्रभाव से मुक्त क्यों नहीं कर पाता। मगर मैं दो-दो दिन क्या, कभी उन घटनाओं के प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता था, औरत को जब वह सो जाती थी, तो घंटों तकिये में मुँह छिपाए कराहता रहता था। नलिनी आपसी झगड़े को उतना अस्वाभाविक नहीं समझती थी, जितना मेरे रात-भर जागने को, और उसके लिए मुझे नर्व टॉनिक लेने की सलाह दिया करती थी। विवाह के पहले दो वर्ष इसी तरह बीते थे और उसके बाद हम अलग-अलग जगह काम करने लगे थे। हालाँकि समस्या ज्यों की त्यों बनी थी, और जब भी हम इकट्‌ठे होते, वही पुरानी ज़िन्दगी लौट आती थी, फिर भी नलिनी का यह विश्वास अभी कम नहीं हुआ था कि कभी न कभी मेरे सामाजिक संस्कारों का उदय अवश्य होगा और तब हम साथ रहकर सुखी विवाहित जीवन व्यतीत कर सकेंगे।
 
“आप कुछ सोच रहे हैं?” उस स्त्री ने अपनी बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए पूछा।
 
मैंने सहसा अपने को सहेजा और कहा, “हाँ, मैं आप ही की बात को लेकर सोच रहा था। कुछ लोग होते हैं, जिनसे दिखावटी शिष्टाचार आसानी से नहीं ओढ़ा जाता। आप भी शायद उन्हीं लोगों में से हैं।”
 
“मैं नहीं जानती,” वह बोली, “मगर इतना जानती हूँ कि मैं बहुत-से परिचित लोगों के बीच अपने को अपरिचित,बेगाना और अनमेल अनुभव करती हूँ। मुझे लगता है कि मुझमें ही कुछ कमी है। मैं इतनी बड़ी होकर भी वह कुछ नहीं जान-समझ पायी, जो लोग छुटपन में ही सीख जाते हैं। दीशी का कहना है कि मैं सामाजिक दृष्टि से बिलकुल मिसफिट हूँ।”
 
“आप भी यही समझती हैं?” मैंने पूछा।
 
“कभी समझती हूँ, कभी नहीं भी समझती,” वह बोली, “एक ख़ास तरह के समाज में मैं ज़रूर अपने को मिसफिट अनुभव करती हूँ। मगर…कुछ ऐसे लोग भी हैं जिनके बीच जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है। ब्याह से पहले मैं दो-एक बार कॉलेज की पार्टियों के साथ पहाड़ों पर घूमने के लिए गयी थी। वहाँ सब लोगों को मुझसे यही शिकायत होती थी कि मैं जहाँ बैठ जाती हूँ, वहीं की हो सकती हूँ। मुझे पहाड़ी बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। मैं उनके घर के लोगों से भी बहुत जल्दी दोस्ती कर लेती थी। एक पहाड़ी परिवार की मुझे आज तक याद है। उस परिवार के बच्चे मुझसे इतना घुल-मिल गये थे कि मैं बड़ी मुश्किल से उन्हें छोडक़र उनके यहाँ से चल पायी थी। मैं कुल दो घंटे उन लोगों के पास रही थी। दो घंटे में मैंने उन्हें नहलाया-धुलाया भी, और उनके साथ खेलती भी रही। बहुत ही अच्छे बच्चे थे वे। हाय, उनके चहरे इतने लाल थे कि क्या कहूँ! मैंने उनकी माँ से कहा कि वह अपने छोटे लडक़े किशनू को मेरे साथ भेज दे। वह हँसकर बोली कि तुम सभी को ले जाओ, यहाँ कौन इनके लिए मोती रखे हैं! यहाँ तो दो साल में इनकी हड्डियाँ निकल आएँगी, वहाँ खा-पीकर अच्छे तो रहेंगे। मुझे उसकी बात सुनकर रुलाई आने को हुई।…मैं अकेली होती, तो शायद कई दिनों के लिए उन लोगों के पास रह जाती। ऐसे लोगों में जाकर मुझे बहुत अच्छा लगता है।…अब तो आपको भी लग रहा होगा कि कितनी अजीब हूँ मैं! ये कहा करते हैं कि मुझे किसी अच्छे मनोविद्‌ से अपना विश्लेषण कराना चाहिए, नहीं तो किसी दिन मैं पागल होकर पहाड़ों पर भटकती फिरूँगी!”
 
“यह तो अपनी-अपनी बनावट की बात है,” मैंने कहा, “मुझे खुद आदिम संस्कारों के लोगों के बीच रहना बहुत अच्छा लगता है। मैं आज तक एक जगह घर बनाकर नहीं रह सका और न ही आशा है कि कभी रह सकूँगा। मुझे अपनी ज़िन्दगी की जो रात सबसे ज़्यादा याद आती है, वह रात मैंने पहाड़ी गूजरों की एक बस्ती में बिताई थी। उस रात उस बस्ती में एक ब्याह था, इसलिए सारी रात वे लोग शराब पीते और नाचते-गाते रहे। मुझे बहुत हैरानी हुई जब मुझे बताया गया कि वही गूजर दस-दस रुपये के लिए आदमी का ख़ून भी कर देते हैं!”
 
“आपको सचमुच इस तरह की ज़िन्दगी अच्छी लगती है?” उसने कुछ आश्चर्य और अविश्वास के साथ पूछा।
 
“आपको शायद ख़ुशी हो रही है कि पागल होने की उम्मीदवार आप अकेली ही नहीं हैं,” मैंने मुस्कराकर कहा। वह भी मुस्कराई। उसकी आँखें सहसा भावनापूर्ण हो उठीं। उस एक क्षण में मुझे उन आँखों में न जाने कितनी-कुछ दिखाई दिया-करुणा, क्षोभ, ममता, आर्द्रता, ग्लानि, भय, असमंजस और स्नेह! उसके होंठ कुछ कहने के लिए काँपे, लेकिन काँपकर ही रह गये। मैं भी चुपचाप उसे देखता रहा। कुछ क्षणों के लिए मुझे महसूस हुआ कि मेरा दिमाग़ बिलकुल ख़ाली है और मुझे पता नहीं कि मैं क्या कर रहा था और आगे क्या कहना चाहता था। सहसा उसकी आँखों में फिर वही सूनापन भरने लगा ओर क्षण-भर में ही वह इतना बढ़ गया कि मैंने उसकी तरफ़ से आँखें हटा लीं।
 
बत्ती के पास उड़ता कीड़ा उसके साथ सटकर झुलस गया था।
 
बच्ची नींद में मुस्करा रही थी।
 
खिड़की के शीशे पर इतनी धुँध जम गयी थी कि उसमें अपना चेहरा भी दिखाई नहीं देता था।
 
गाड़ी की रफ़्तार धीमी हो रही थी। कोई स्टेशन आ रहा था। दो-एक बत्तियाँ तेज़ी से निकल गयीं। मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया। बाहर से आती ब$र्फानी हवा के स्पर्श ने स्नायुओं को थोड़ा सचेत कर दिया। गाड़ी एक बहुत नीचे प्लेटफार्म के पास आकर खड़ी हो रही थी।
 
“यहाँ कहीं थोड़ा पानी मिल जाएगा?”
 
मैंने चौंककर देखा कि वह अपनी टोकरी में से काँच का गिलास निकालकर अनिश्चित भाव से हाथ में लिये हैं। उसके चेहरे की रेखाएँ पहले से गहरी हो गयी थीं।
 
“पानी आपको पीने के लिए चाहिए?” मैंने पूछा।
 
“हाँ। कुल्ला करूँगी और पिऊँगी भी। न जाने क्यों होंठ कुछ चिपक-से रहे हैं। बाहर इतनी ठंड है, फिर भी…।”
 
“देखता हूँ, अगर यहाँ कोई नल-वल हो, तो…।”
 
मैंने गिलास उसके हाथ से ले लिया और जल्दी से प्लेटफ़ार्म पर उतर गया। न जाने कैसा मनहूस स्टेशन था कि कहीं पर भी कोई इन्सान नज़र नहीं आ रहा था। प्लेटफ़ार्म पर पहुँचते ही हवा के झोंकों से हाथ-पैर सुन्न होने लगे। मैंने कोट के कॉलर ऊँचे कर लिये। प्लेटफ़ार्म के जंगले के बाहर से फैलकर ऊपर आये दो-एक पेड़ हवा में सरसरा रहे थे। इंजन के भाप छोडऩे से लम्बी शूँ-ऊँ की आवाज़ सुनाई दे रही थी। शायद वहाँ गाड़ी सिग्नल न मिलने की वजह से रुक गयी थी।
 
दूर कई डिब्बे पीछे एक नल दिखाई दिया, तो मैं तेज़ी से उस तरफ़ चल दिया। ईंटों के प्लेटफ़ार्म पर अपने जूते का शब्द मुझे बहुत अजीब-सा लगा। मैंने चलते-चलते गाड़ी की तरफ़ देखा। किसी खिड़की से कोई चेहरा बाहर नहीं झाँक रहा था। मैं नल के पास जाकर गिलास में पानी भरने लगा। तभी हल्की-सी सीटी देकर गाड़ी एक झटके के साथ चल पड़ी। मैं भरा हुआ पानी का गिलास लिये अपने डिब्बे की तरफ़ दौड़ा। दौड़ते हुए मुझे लगा कि मैं उस डिब्बे तक नहीं पहुँच पाऊँगा और सर्दी में उस अँधेरे और सुनसान प्लेटफ़ार्म पर ही मुझे बिना सामान के रात बितानी होगी। यह सोचकर मैं और तेज़ दौडऩे लगा। किसी तरह अपने डिब्बे के बराबर पहुँच गया। दरवाज़ा खुला था और वह दरवाज़े के पास खड़ी थी। उसने हाथ बढ़ाकर गिलास मुझसे ले लिया। फुटबोर्ड पर चढ़ते हुए एक बार मेरा पैर ज़रा-सा फिसला, मगर अगले ही क्षण मैं स्थिर होकर खड़ा हो गया। इंजन तेज़ होने की कोशिश में हल्के-हल्के झटके दे रहा था और ईंटों के प्लेटफ़ार्म की जगह अब नीचे अस्पष्ट गहराई दिखाई देने लगी थी।
 
“अन्दर आ जाइए,” उसके ये शब्द सुनकर मुझे एहसास हुआ कि मुझे फुटबोर्ड से आगे भी कहीं जाना है। डिब्बे के अन्दर क़दम रखा, तो मेरे घुटने ज़रा-ज़रा काँप रहे थे।
 
अपनी जगह पर आकर मैंने टाँगें सीधी करके पीछे टेक लगा लीं। कुछ पल बाद आँखें खोलीं तो लगा कि वह इस बीच मुँह धो आयी है। फिर भी उसके चेहरे पर मुर्दनी-सी छा रही थी। मेरे होंठ सूख रहे थे, फिर भी मैं थोड़ा मुस्कराया।
 
“क्या बात है, आपका चेहरा ऐसा क्यों हो रहा है?” मैंने पूछा।
 
“मैं कितनी मनहूस हूँ…,” कहकर उसने अपना निचला होंठ ज़रा-सा काट लिया।
 
“क्यों?”
 
“अभी मेरी वज़ह से आपको कुछ हो जाता…।”
 
“यह खूब सोचा आपने!”
 
“नहीं। मैं हूँ ही ऐसी…,” वह बोली, “ज़िन्दगी में हर एक को दु:ख ही दिया है। अगर कहीं आप न चढ़ पाते…।”
 
“तो?”
 
“तो?” उसने होंठ ज़रा सिकोड़े, “तो मुझे पता नहीं…पर…।”
 
उसने ख़ामोश रहकर आँखें झुका लीं। मैंने देखा कि उसकी साँस जल्दी-जल्दी चल रही है। महसूस किया कि वास्तविक संकट की अपेक्षा कल्पना का संकट कितना बड़ा और ख़तरनाक होता है। शीशा उठा रहने से खिड़की से ठंडी हवा आ रही थी। मैंने खींचकर शीशा नीचे कर दिया।
 
“आप क्यों गये थे पानी लाने के लिए? आपने मना क्यों नहीं कर दिया?” उसने पूछा।
 
उसके पूछने के लहज़े से मुझे हँसी आ गयी।
 
“आप ही ने तो कहा था…।”
 
“मैं तो मूर्ख हूँ, कुछ भी कह देती हूँ। आपको तो सोचना चाहिए था।”
 
“अच्छा, मैं अपनी ग़लती मान लेता हूँ।”
 
इससे उसके मुरझाए होंठों पर भी मुस्कराहट आ गयी।
“आप भी कहेंगे, कैसी लडक़ी है,” उसने आन्तरिक भाव के साथ कहा। “सच कहती हूँ, मुझे ज़रा अक्ल नहीं है। इतनी बड़ी हो गयी हूँ, पर अक्ल रत्ती-भर नहीं है-सच!”
 
मैं फिर हँस दिया।
 
“आप हँस क्यों रहे हैं?” उसके स्वर में फिर शिकायत का स्पर्श आ गया।
 
“मुझे हँसने की आदत है!” मैंने कहा।
 
“हँसना अच्छी आदत नहीं है।”
 
मुझे इस पर फिर हँसी आ गयी।
 
वह शिकायत-भरी नज़र से मुझे देखती रही।
 
गाड़ी की रफ़्तार फिर तेज़ हो रही थी। ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी सहसा हड़बड़ाकर उठ बैठा और ज़ोर-ज़ोर से खाँसने लगा। खाँसी का दौरा शान्त होने पर उसने कुछ पल छाती को हाथ में दबाये रखा, फिर भारी आवाज़ में पूछा, “क्या बजा है?”
 
“पौने बारह,” मैंने उसकी तरफ़ देखकर उत्तर दिया।
 
“कुल पौने बारह?” उसने निराश स्वर में कहा और फिर लेट गया। कुछ ही देर में वह फिर खुर्राटे भरने लगा।
 
“आप भी थोड़ी देर सो जाइए।” वह पीछे टेक लगाए शायद कुछ सोच रही थी या केवल देख रही थी।
 
“आपको नींद आ रही है, आप सो जाइए,” मैंने कहा।
 
“मैंने आपसे कहा था न मुझे गाड़ी में नींद नहीं आती। आप सो जाइए।”
 
मैंने लेटकर कम्बल ले लिया। मेरी आँखें देर तक ऊपर की बत्ती को देखती रहीं जिसके साथ झुलसा हुआ कीड़ा चिपककर रह गया था।
 
“रजाई भी ले लीजिए, काफी ठंड है,” उसने कहा।
 
“नहीं, अभी ज़रूरत नहीं है। मैं बहुत-से गर्म कपड़े पहने हूँ।”
 
“ले लीजिए, नहीं बाद में ठिठुरते रहिएगा।”
 
“नहीं, ठिठुरूँगा नहीं,” मैंने कम्बल गले तक लपेटते हुए कहा, “और थोड़ी-थोड़ी ठंड महसूस होती रहे, तो अच्छा लगता है।”
 
“बत्ती बुझा दूँ?” कुछ देर बाद उसने पूछा।
 
“नहीं, रहने दीजिए।”
 
“नहीं, बुझा देती हूँ। ठीक से सो जाइए।” और उसने उठकर बत्ती बुझा दी। मैं काफी देर अँधेरे में छत की तरफ़ देखता रहा। फिर मुझे नींद आने लगी।
 
शायद रात आधी से ज़्यादा बीत चुकी थी, जब इंजन के भोंपू की आवाज़ से मेरी नींद खुली। वह आवाज़ कुछ ऐसी भारी थी कि मेरे सारे शरीर में एक झुरझुरी-सी भर गयी। पिछले किसी स्टेशन पर इंजन बदल गया था।
 
गाड़ी धीरे-धीरे चलने लगी तो मैंने सिर थोड़ा ऊँचा उठाया। सामने की सीट ख़ाली थी। वह स्त्री न जाने किस स्टेशन पर उतर गयी थी। इसी स्टेशन पर न उतरी हो, यह सोचकर मैंने खिड़की का शीशा उठा दिया और बाहर देखा। प्लेटफ़ार्म बहुत पीछे रह गया था और बत्तियों की क़तार के सिवा कुछ साफ़ दिखाई नहीं दे रहा था। मैंने शीशा फिर नीचे खींच लिया। अन्दर की बत्ती अब भी बुझी हुई थी। बिस्तर में नीचे को सरकते हुए मैंने देखा कि कम्बल के अलावा मैं अपनी रजाई भी लिये हूँ जिसे अच्छी तरह कम्बल के साथ मिला दिया गया है। गरमी की कई एक सिहरनें एक साथ शरीर में भर गयीं।
 
ऊपर की बर्थ पर लेटा आदमी अब भी उसी तरह ज़ोर-ज़ोर से खुर्राटे भर रहा था।
 

मुहब्बत a love story in hindi

मुहब्बत a love story in hindi


रविंद्र कालिया हिंदी साहित्य के एक जाने माने रचनाकार हैं। उनकी श्रेष्ट कहानी मुहब्बत आपके साथ शेयर कर रहे हैं । in hindi story हमारे ब्लॉग पर हिंदी साहित्य की सर्वश्रेष्ट कहानियों को हम प्रकाशित कर रहे हैं। ताकि हिंदी साहित्य के प्रति लोगो का रुझान बढ़ें और सभी हिंदी साहित्य की श्रेष्ट रचनाओं से रूबरू हो सकें।


मुहब्बत a love story in hindi


A love story in hindi


कपिल चाय की चुस्कियाँ लेते हुए अखबार पढ़ रहा था, तभी गोपाल ने सूचना दी कि दो महिलाएँ मिलने आई हैं। कपिल टॉयलेट से फारिग हो कर ही किसी आगन्तुक से मिलना पसंद करता है। उसने खिन्न होते हुए कहा, ‘इतनी सुबह? मुवक्किल होंगी। दफ्तर में श्रीवास्तव होगा, उससे मिलवा दो।’

‘वे तो आपसे ही मिलना चाहती हैं। शायद कहीं बाहर से आयी हैं।’

‘अच्छा! ड्राईंगरूम में बैठाओ, अभी आता हूँ।’

कपिल टॉयलेट में घुस गया। इत्मीनान से हाथ मुँह धो कर जब वह नीचे आया तो उसने देखा, सोफे पर बैठी दोनों महिलाएँ चाय पी रही थीं। एक सत्तर के आसपास होगी और दूसरी पचास के। एक का कोई बाल काला नहीं था और दूसरी का कोई बाल सफेद नहीं था, मगर दोनों चश्मा पहने थीं। कपिल को आश्चर्य हुआ। कोई भी महिला उसे देख कर अभिवादन के लिए खड़ी नहीं हुई। बुजुर्ग महिला ने अपने पर्स से एक कागज निकाला और कपिल के हाथ में थमा दिया।

‘यह खत आपने लिखा था?’ उसने कड़े स्वर में पूछा।

कपिल ने कागज ले लिया और चश्मा लगा कर पढ़ने लगा। भावुकता और शेर-ओ-शायरी से भरा एक बचकाना मजमून था। उस कागज को पढ़ते हुए सहसा कपिल के चेहरे पर खिसियाहट भरी मुस्कान फैल गयी। बोला, ‘यह आपको कहाँ मिल गया? बहुत पुराना खत है। तीस बरस पहले लिखा गया था।’

‘पहले मेरी बात का जवाब दीजिए, क्या यह खत आपने लिखा था?’ बुजुर्ग महिला ने उसी सख्त लहजे में पूछा।

‘हैन्डराइटिंग तो मेरी ही है। लगता है, मैंने ही लिखा होगा।’

‘अजीब आदमी हैं आप? कितना कैजुअली ले रहे हैं मेरी बात को।’ बुजुर्ग महिला ने पत्र लगभग छीनते हुए कहा।

कपिल ने दूसरी महिला की ओर देखा जो अब तक निर्द्वन्द्व बैठी थी, पत्थर की तरह।

कपिल को यों अस्त-व्यस्त देख कर मुस्करायी।

उसके सफेद संगमरमरी दाँत पल भर में सारी कहानी कह गये।

‘अरे! सरोज, तुम! ‘कपिल जैसे उछल पड़ा, ‘इतने वर्ष कहाँ थीं? मैं विश्वास नहीं कर पा रहा हूँ, तीस साल बाद तुम अचानक मेरे यहाँ आ सकती हो। कहाँ गये बीच के साल?’

‘कहो, कैसे हो? कैसे बीते इतने साल?’

‘तुम तो ऐसे कह रही हो जैसे साल नहीं दिन बीते हों। तीस साल एक उम्र होती है।’ ‘मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि तुमसे इस जिंदगी में कभी भेंट होगी।’

‘क्या अगले जन्म में मिलने की बात सोच रहे थे?’

‘यही समझ लो।’

‘इस एक कागज के टुकड़े के कारण तुम मेरे बहुत करीब रहे, हमेशा। मगर इसे गलत मत समझना।’

इतने में कपिल की पत्नी भी नीचे उतर आई। वह जानती थी कि नाश्ते के बाद ही कपिल नीचे उतरता है, चाहे कितना ही बड़ा मुवक्किल क्यों न आया हो।

‘यह मेरी पत्नी मंजुला है। देश के चोटी के कलाकारों में इनका नाम है। अब तक बीसियों रेकार्ड आ चुके हैं।’

‘जानती हूँ…’ सरोज बोली ‘नमस्कार।’

‘नमस्कार।’ मंजुला ने कहा और ‘एक्सक्यूज मी’ कह कर दोबारा सीढ़ियाँ चढ़ गयी। उसने सोचा होगा कोई नयी मुवक्किल आयी है। मंजुला की उदासीनता का कोई असर दोनों महिलाओं पर नहीं हुआ।

‘बच्चे कितने बड़े हो गये हैं?’ सरोज ने पूछा।

‘उसी उम्र में हैं, जिसमें मैंने यह खत लिखा था।’

‘शादी हो गयी या अभी खत ही लिख रहे हैं?’ सरोज ने ठहाका लगाया। कपिल ने साथ दिया।

‘बड़े की शादी हो चुकी है, दूसरे के लिये लड़की की तलाश है।’

‘क्या करते हैं?’ बुजुर्ग महिला ने पूछा।

‘बड़ा बेटा जिलाधिकारी है बहराइच में और छोटा मेरे साथ वकालत कर रहा है। मगर वह अभी कम्पीटीशन्स में बैठना चाहता है। सरोज की माँग में सिंदूर देख कर कपिल ने पूछा, तुम्हारे बच्चे कितने बड़े हैं?’

‘दो बेटियाँ हैं। एक डॉक्टर है, दूसरी डॉक्टरी पढ़ रही है।’

‘किसी डॉक्टर से शादी हो गयी थी? ‘कपिल ने पूछा।

‘बड़े होशियार हो।’ सरोज ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया।

‘तुम भी कम होशियार नहीं थीं।’ कपिल ने कहा। कपिल के दिमाग में वह दृश्य कौंध गया, जब कक्षा की पिकनिक के दौरान नौका विहार करते हुए सरोज ने एक फिल्मी गीत गाया था, ‘तुमसे आया न गया, हमसे बुलाया न गया…’

‘तुमने इनका परिचय नहीं दिया।’ कपिल ने बुजुर्ग महिला की ओर संकेत करते हुए कहा।

‘इन्हें नहीं जानते? ‘ये मेरी माँ हैं।

कपिल ने हाथ जोड़ अभिवादन किया

‘अब भी सिगरेट पीते हो?’

‘पहले की तरह नहीं। कभी-कभी।’

सरोज ने विदेशी सिगरेट का पैकेट और एक लाइटर उसे भेंट किया, ‘तुम्हारे लिये खरीदा था यह लाइटर। कोई दस साल पहले। इस बार भारत आई तो लेती आई।’

‘क्या विदेश में रहती हो? ‘कपिल ने लाइटर को उलट-पुलट कर देखते हुए पूछा।

‘हाँ, मॉन्ट्रियल में, मेरे पति भी तुम्हारे ही पेशे में है।’

‘कनाडा के लीडिंग लॉयर।’ सरोज की माँ ने जोड़ा।

‘लगता है तुम्हारी जिन्दगी में वकील ही लिखा था।’ कपिल के मुँह से अनायास ही निकल गया।

सरोज ने अपने पति की तस्वीर दिखायी। एक खूबसूरत शख्स की तस्वीर थी। चेहरे से लगता था कि कोई वकील है या न्यायमूर्ति। कपिल भी कम सुदर्शन नहीं था, मगर उसे लगा, वह उसके पति से उन्नीस ही है।

उसने फोटो लौटाते हुए कहा, ‘तुम्हारे पति भी आये हैं?’

‘नहीं, उन्हें फुर्सत ही कहाँ?’ सरोज बोली, ‘बाल की खाल न उतारने लगो, इसीलिए बताना जरूरी है कि मैं उनके साथ बहुत खुश हूँ। आई एम हैप्पिली मैरिड।’

तभी कपिल का पोता आँखे मलता हुआ नमूदार हुआ और सीधा उसकी गोद में आ बैठा।

‘मेरा पोता है।’ आजकल बहू आयी हुई है। कपिल ने बताया।

‘बहुत प्यारा बच्चा है, क्या नाम है?’

‘बंटू।’ बंटू ने नाम बता कर अपना चेहरा छिपा लिया।

‘बंटू बेटे, हमारे पास आओ, चॉकलेट खाओगे?’

‘खाएँगे।’ उसने कहा और चॉकलेट का पैकेट मिलते ही अपनी माँ को दिखाने दौड़ पड़ा।

‘कोर्ट कब जाते हो?’ उसने पूछा।

‘तुम इतने साल बाद मिली हो। आज नहीं जाँऊगा, आज तो तुम्हारा कोर्टमार्शल होगा।’

‘मैंने क्या गुनाह किया है? ‘सरोज ने कहा, ‘गुनाहों के देवता तो तुम पढ़ा करते थे, तुम्हीं जानो। अच्छा, यह बताओ जब मेरी दीदी की शादी हो रही थी तो तुम दूर खड़े रो क्यों रहे थे?’

कपिल सहसा इस हमले के लिये तैयार न था, वह अचकचा कर रह गया,

‘अरे! कहाँ से कुरेद लाई हो इतनी सूचनाएँ और वह भी इतने वर्षों बाद। तुम्हारी स्मृति की दाद देता हूँ। तीस साल पहले की घटनाएँ ऐसे बयान कर रही हो जैसे कल की बात हो।’

‘यह याद करके तो आज भी गुदगुदी हो जाती है कि तुम रोते हुए कह रहे थे कि एक दिन सरोज की भी डोली उठ जायेगी और तुम हाथ मलते रह जाओगे। अच्छा यह बताओ कि तुम कहाँ थे जब मेरी डोली उठी थी?’

‘कम ऑन सरोज। कपिल सिर्फ इतना कह पाया। मगर यह सच था कि सरोज की दीदी की शादी में वह जी भर कर रोया था।’

‘यह बताओ, बेटे कि सरोज को इतना ही चाहते थे तो कभी बताया क्यों नहीं उसे?’ सरोज की माँ ने चुटकी ली।

‘खत लिखा तो था।’ कपिल ने ठहाका लगाया, ‘इसने जवाब ही नहीं दिया।’

‘खत तो इसने उसी दिन मेरे हवाले कर दिया था,’ सरोज की माँ ने बताया, ‘जब तक रिश्ता तय नहीं हुआ था, बीच-बीच में मुझसे माँग-माँग कर तुम्हारा खत पढ़ा करती थी।’

‘मेरे लिए बहुत स्पेशल है यह खत। जिन्दगी का पहला और आखिरी खत। शादी को इतने बरस हो गये, मेरे पति ने कभी पत्र तक नहीं लिखा, प्रेमपत्र क्यों लिखेंगे? वह मोबाइल कल्चर के आदमी हैं। हमारे घर में सभी ने पढ़ा है यह प्रेमपत्र। यहाँ तक कि मेरे पति मेरी बेटियों तक को सुना चुके हैं यह पत्र। मेरे पति ने कहा था कि इस बार अपने बॉयफ्रेंड से मिल कर आना।’

‘इसका मतलब है, पिछले तीस बरस से तुम सपरिवार मेरी मुहब्बत का मजाक उड़ाती रही हो।’

‘यह भाव होता तो मैं क्यों आती तीस बरस बाद तुमसे मिलने! अच्छा इन तीस बरसों में तुमने मुझे कितनी बार याद किया?’

सच तो यह था कि पिछले तीस बरसों में कपिल को सरोज की याद आई ही नहीं थी। अपने पत्र का उत्तर न पा कर कुछ दिन दारू के नशे में शायद मित्रों के संग गुनगुनाता रहा था, ‘जब छोड़ दिया रिश्ता तेरी जुल्फेस्याह का, अब सैकड़ों बल खाया करे, मेरी बला से।’ और देखते-देखते इस प्रसंग के प्रति उदासीन हो गया था।

‘तुम्हारा सामान कहाँ है?’ कपिल ने अचानक चुप्पी तोड़ते हुए पूछा।

‘बाहर टैक्सी में। सोचा था नहीं पहचानोगे, तो इसी से चंडीगढ लौट जाएँगे।’

‘आज दिल्ली में ही रुको। शाम को कमानी में मंजुला का कन्सर्ट है। आज तुम लोगों के बहाने मैं भी सुन लूँगा। दोपहर को पिकनिक का कार्यक्रम रखते हैं। सूरजकुंड चलेंगे और बहू को भी घुमा लायेगे। फिर मुझे तुम्हारी आवाज में वह भी तो सुनना है, तुमसे आया न गया, हमसे बुलाया न गया याद है या भूल गयी हो?’

सरोज मुस्कराई, ‘कमबख्त याददाश्त ही तो कमजोर नहीं है।’

कपिल ने गोपाल से सरोज का सामान नीचे वाले बेडरूम में लगाने को कहा। बाहर कोयल कूक रही थी।

‘क्या कोयल भी अपने साथ लायी हो?’

‘कोयल तो तुम्हारे ही पेड़ की है।’

‘यकीन मानो, मैंने तीस साल बाद यह कूक सुनी है।’ कपिल शर्मिन्दा होते हुए फलसफाना अंदाज में फुसफुसाया, ‘यकीन नहीं होता, मैं वही कपिल हूँ जिससे तुम मिलने आई हो और मुद्दत से जानती हो। कुछ देर पहले तुमसे मिल कर लग रहा था वह कपिल कोई दूसरा था जिसने तुम्हें खत लिखा था…’

‘टेक इट ईजी, मैन’ सरोज उठते हुए बोली, ज्यादा फिलॉसफी मत बघारो। यह बताओ टॉयलेट किधर है?’

कोयल ने आसमान सिर पर उठा लिया था।




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